(विगत अगस्त अंक से आगे)
पाखंड खंडिनी पताका
गुरु से शिक्षा ग्रहण कर स्वामी दयानंद भ्रमण करते हुए हरिद्वार के कुँभ में गए। प्रवास में वे जगह−जगह लोगों से वैदिक धर्म की चर्चा करते। उसके मर्म को समझकर प्रथा−परंपराओं के पालन की बात करते । कुँभ में जाने का उद्देश्य यह था कि वहाँ हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं। गाँव−गाँव घूमने पर सौ−पचास लोगों से ही संपर्क हो पाता। कुँभ में सैकड़ों व्यक्तियों से एक साथ भेंट हो जाती। हरिद्वार पहुँचकर स्वामी दयानंद ने एक छोटा−सा शिविर लगाया और बाहर एक झंडे पर पाखंड खंडिनी पताका लिखकर गाड़ दिया। उस पताका ने भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया। स्वामी जी शिविर के बाहर खड़े होकर मूर्तिपूजा, श्राद्ध, अवतार, पुराण, कर्मकाँड आदि के नाम पर चलने वाले ढकोसलों की पोलपट्टी खोलने लगे। जाति−पाँति, छुआछूत, बाल−विवाह, सती प्रथा और वैवाहिक कुरीतियों, अंधविश्वासों के बारे में भी वे बोलने लगे। उसकी बातों में नयापन था और वे तर्कसंगत भी थीं। लोगों के गले उतरने लगीं। उनका विरोध भी हुआ और समर्थन भी मिला।
कुँभ और बाद की यात्राओं में मिले समर्थकों को लेकर स्वामी जी ने आर्यसमाज नामक संगठन की नींव रखी। उन्होंने आजीवन यात्राएँ की। राजाओं और सामंतों से लेकर पंडितों, विद्वानों तक हर वर्ग के लोगों से मिले। पिताश्री ने श्रीराम को विस्तार से बताते हुए यह जानकारी भी दी कि स्वामी दयानंद के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र रचे जाते थे। उनकी मृत्यु भी एक षड्यंत्र में ही हुई। जोधपुर में कुछ लोगों ने मिलकर उनके रसोइये को अपनी तरफ मिलाया और उसके हाथों स्वामी जी को विष दिला दिया। स्वामी जी ने विष की दारुण पीड़ा झेली और उसी से उनकी मृत्यु हो गई। मरते−मरते भी उन्होंने रसोइये को अपने पास से भगा दिया। उन्हें डर था कि लोगों को पता चलेगा, तो रसोइये को जिंदा नहीं छोड़ेंगे। स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया और उसके भाग जाने की व्यवस्था की।
श्रीराम यह वृत्ताँत बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। पिताश्री से मथुरा के अन्यान्य स्थानों का विवरण और कथाएँ सुनते हुए वापस लौट आए। ननिहाल और मथुरा होते हुए संपन्न हुई इस यात्रा ने पिता के सान्निध्य में एक संस्कार दिया। वह संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति एक दृष्टिकोण के रूप में था। नियति ने उनके लिए जो दायित्व चुन रखा था, उसके लिए बाहर से किसी विशेष सहयोग की आवश्यकता नहीं थी लेकिन शुक्रदेव जैसी मुक्त आप्तकाम आत्मा को भी अपने पिता वेदव्यास से भागवत कथा सुननी पड़ी थी।
सूक्ष्म जगत् का संकेत
जिस हवेली में श्रीराम रहते थे, उसमें तीन चाचा, उनकी संतानें और भाई−बहन भी निवास करते थे। बीस−पच्चीस लोगों का भरा−पूरा परिवार था। चाचाओं की ससुराल पक्ष के लोग भी आते−जाते रहते थे। बुआ−भतीजों और दूसरे रिश्तेदारों के आने−जाने से चहल पहल बनी रहती थी। हँसी−खुशी का माहौल होता। पिताश्री के रहने तक गाँव और पास−पड़ोस की बस्तियों से आए लोगों से बैठक भरी रहती थी। सहपऊ से भागवत सप्ताह से लौटने के बाद पिताश्री को एक दिन सीने में दबाव महसूस हुआ। अच्छी तरह बैठे बात कर रहे थे कि दबाव और पीड़ा से दोहरे होकर लेट गए। उनके मुँह से नमः भगवते वासुदेवाय मंत्र का उच्चारण हुआ और बोली बंद हो गई। घर में कोहराम मच गया। हँसी−खुशी का माहौल चिंता में बदल गया और लोग अपनी तरह से पंडित जी की सार−सँभाल करने लगे। यह घटना दिन में ही घटी थी। चिकित्सा सहायता तुरंत उपलब्ध हो गई और कुछ देर में होश आ गया। तीन−चार दिन बाद वे सामान्य दिखाई देने लगे।
पिताश्री स्वस्थ तो हो गए, लेकिन वैद्यों ने उन्हें अब सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि हृदय रोग का आक्रमण हुआ है। सँभलकर रहना चाहिए। यात्रा आदि से बचें, काम का बोझ कम लें और जहाँ तक हो सके, लोगों से मिलना−जुलना भी सीमित कर दें। पिताश्री ने सबकी सलाह सुनी। काम−काज का दबाव और मिलना−जुलना तो क्या कम किया, भजन−पूजन में ज्यादा समय देने लगे। कारण कथा−वार्ताओं में हिस्सा लेना थोड़ा कम हो गया।
श्रीराम पिताश्री की बीमारी और उसके बाद उनमें आए बदलावों को बड़ी बारीकी से देख रहे थे। रोग−बीमारी का शिकार होते हुए उन्होंने दूसरे लोगों को भी देखा था, लेकिन वे इलाज के बाद ठीक हो जाते थे और रोजमर्रा का जीवनक्रम अपना लेते । हमेशा की तरह सहज होने में उन्हें जरा भी देर नहीं लगती। खान−पान सहन−व्यवहार और दिनभर के काम−काज पहले की तरह चलने लगते। बीमारी के कारण कोई कमजोरी आती तो उसका प्रभाव दिनचर्या में शिथिलता के रूप में दिखाई देता, लेकिन ऐसा नहीं होता था कि स्वभाव और प्रवृत्तियाँ ही बदल जाएँ।
पिताश्री का संवरण
पिताश्री शुद्ध−सात्विक स्वभाव के थे, फिर भी उनमें विलक्षण परिवर्तन आया। उनके काम−काज से ऐसा लगता जैसे कुछ समेटने में लगे हुए हों। यात्रा का समय आने पर व्यक्ति जैसे अपना सामान समेटने और उस अवधि के काम निपटाने की जल्दी मचाने लगता है, उसी तरह की आतुरता पिताजी के व्यवहार में दिखाई देने लगी। उन दिनों वे बच्चों की ब्याह−शादी, छोटे भाई−बहनों की जरूरतों और अभ्यागतों की जिज्ञासाओं का समाधान करने में ज्यादा समय लगाने लगे।
संवत् 1961 (सन् 1923) का आषाढ़ शुरू होने को था। पिताश्री ने पुत्र श्रीराम को एक दिन बुलाया और कहा−कम−से−कम नौ दिन तक मेरे पास दो घंटा रोज बैठो और जो मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। पिता की आज्ञा शिरोधार्य होनी ही थी। जिस दिन से पिताश्री ने अपने पास बैठने के लिए कहा था, उसके एक दिन पहले क्षौरकर्म कराया। पुत्र से कहा कि अगले सात दिन तक व्रत−नियम से रहना है। दिन में एक समय भोजन और एक समय फलाहार करते हुए एकाशन व्रत की व्यवस्था दी। पिता−पुत्र दोनों के लिए जमीन पर बिस्तर बिछाकर सोने की व्यवस्था की गई।
अगले दिन सुबह पिताश्री ने भागवत की कथा सुनाना आरंभ किया। यह सिर्फ श्रीराम के लिए एक शिक्षण सत्र था और लोगों को भाग लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। भागवत का कथा−भाग और सिद्धाँत पक्ष इस प्रकार कहना शुरू किया कि उस दिन का विश्राम स्थल दो घंटे पूरे होने तक आ जाए। भागवत सुनाने का उद्देश्य पिताश्री ही भलीभाँति जाते होंगे। इस विषय में उन्होंने अपने चिरंजीव को भी नहीं बताया। संभवतः भागवत शास्त्र के मूल भाव जीवन और जगत् के सत्य से परिचित कराना हो?
भागवत का मूल भाव क्या है? विषय परिस्थितियों में भी धर्म का साधन। अपने अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए निष्ठापूर्वक प्रयत्न करना और प्रभु समर्पित जीवन जीना। भागवत कथा का आरंभ पृथ्वी पर कलियुग के अर्थात् विषय परिस्थितियों, जटिलताओं और आत्मिक उन्नति में बाधाओं के आधिपत्य से होता है। परीक्षित इन स्थितियों का शमन करने निकलते हैं, तो कलियुग भी क्षमा माँगने लगता है। भागवत शास्त्र के अनुसार कलियुग अशुभ और विपर्यय का नाम है। परीक्षित उसका निग्रह करने लगते हैं, तो वह पृथ्वी को मुक्त करने के लिए तैयार हो जाता है, लेकिन अपने लिए आश्रय भी माँगता है। परीक्षित कलि को पहले चार और फिर पाँच स्थानों पर रहने की छूट देते हैं। इन पाँच स्थानों में पहले चार असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता में वास करने के लिए कहते हैं। अनुनय करने पर पाँचवाँ स्थान रजस भी छोड़ देते हैं। रजस अर्थात् लोभ, दिखावा, अकड़, संकीर्ण भाव। जहाँ भी ये विकृतियाँ होगी, वहीं कलि के दुष्प्रभाव अर्थात् शोक−संताप होंगे।
संतापों से बचने का उपाय? भागवत का एक ही संदेह है−प्रभु समर्पित जीवन। और सब उपाय समस्याओं को उलझाते और विपदाओं को सघन की बनाते हैं। शृंगी ऋषि के शाम से परीक्षित का जीवन एक सप्ताह भर शेष रह गया, तो वे चिंतित नहीं हुए, क्योंकि वे प्रभु समर्पित जीवन जी रहे थे, इसलिए उन्होंने शेष दिनों के श्रेष्ठतम उपयोग की योजना बनाई। स्थितियाँ और संयोग ऐसे बने कि सातों दिन अध्यात्म चर्चा में व्यतीत हुए। कथा पूरी होने के बाद उन्होंने मृत्यु का अतिथि की तरह स्वागत किया और उत्सव की तरह उसे अपनाया।
सप्ताह भर के सान्निध्य में पिता−पुत्र ने कथा प्रसंगों का आस्वाद लिया। उनके माध्यम से अध्यात्म और तत्वज्ञान की चर्चा की । ज्ञान, कर्म और भक्ति के सागर में निमज्जित हुए। भागवत का एकादश स्कंध शुद्ध तत्वज्ञान का प्रतिपादन करता है। मुक्ति या निःश्रेयस की प्राप्ति के विविध उपायों की विवेचना करते हुए इस स्कंध में भगवान वेदव्यास ने ललित ललाम भाषा का उपयोग किया है। तत्वज्ञान की चर्चा प्रायः गूढ़−गंभीर हो जाती है। वह पंडित प्रवर लोगों के लिए ही बोधगम्य होती है। जैसे वेदाँत, योग, साँख्य, मीमाँसा आदि शास्त्र। इन शास्त्रों में दार्शनिक सिद्धाँतों का प्रतिपादन गणित के सूत्रों की तरह किया गया। भागवत कथा के एकादश स्कंध में सभी दार्शनिक मतों को काव्य में निरूपित कर दिया है।
तुम भगवान के हुए
कथा सुनने के दिनों में भी एकाँत में जाने और ध्यान में लीन रहने का क्रम जारी था। अंतिम दिन की कथा सुनाने के बाद एक विचित्र घटना घटी। पिता कहानी कहने या पाठ पढ़ाने की तरह ही भागवत कह रहे थे। अनुष्ठान की तरह विधि−विधान की आवश्यकता नहीं समझी गई थी, इसलिए पूर्णाहुति के दिन यज्ञयाग या भोग का कार्यक्रम नहीं रखा गया। कथा सुनने के बाद पुत्र ने पिताश्री से पूछा−श्रवण के बाद दक्षिणी दी जाती है। मैं आपको क्या भेंट करूं? पिता अपने लाड़ले का मुँह देखते रह गए। श्रीराम ने फिर वही प्रश्न किया। पंडित जी ने बेटे की बाँहें पकड़कर खींच लिया और सीने से लगा लिया। इस बार भी कुछ नहीं बोले। तीसरी बार फिर वही प्रश्न किया तो उत्तर आया, अपने आपको भेंट कर दो। श्रीराम ने कहा कि वह तो मैं आपका हूँ ही। आपका आशय यदि अपने आपको भगवान के लिए भेंट चढ़ा देने से है, तो उसके लिए संकल्प ग्रहण कराइए ।
पिताश्री ने हाथ में जल लेकर संकल्प कराया। फिर कहा−अब तुम भगवान के हुए । आशीर्वाद लेने के बाद श्रीराम हमेशा की तरह एकाँत में चले गए। गुफा वाली घटना के बाद वे जंगल में नहीं जाते थे, लेकिन कहाँ जाते हैं, यह भी माँ के सिवाय किसी को पता नहीं था। उस दिन एकाँत में गए तो घंटों बीत गए। शाम होने लगी फिर भी वापस नहीं आए। माँ को चिंता होने लगी । उन्होंने पंडित जी से पूछा कि बेटे को कहाँ भेज दिया है, अभी तक नहीं आया। पिता भी चिंतित हुए। हिमालय जाने वाली घटना याद आ गई। परेशान होकर वे बोले−कहीं चला तो नहीं गया। माँ को भी आशंका हुई। फिर अपने आपको ढाढ़स बँधाते हुए बोली−गौरी बाग के शिवालय में एक बार दिखवा लीजिए। कहीं वहाँ भक्ति में न रमा हो। गौरी बाग गाँव से एक डेढ़ मील छोटा−सा बगीचा था। वहाँ आम, अमरूद और नीम के कुछ पेड़ थे। बारहों महीने सन्नाटा रहता था। सोमवार, पूनम या शिवरात्रि के दिन लोग शिवालय में आते थे। बाकी समय सन्नाटा रहता था। इसी जगह श्रीराम ने अपना ठिकाना बना रखा था।
गहन ध्यान समाधि
पिता खुद दौड़े चले गए। साथ में दो−तीन व्यक्ति और थे । वहाँ जाकर देखा श्रीराम एक पड़े के नीचे पालथी मारकर ध्यान मुद्रा में बैठे हैं पंडित जी ने उन्हें पुकारा। कोई उत्तर नहीं आया, श्रीराम निश्चल बैठे ही रहे। उन्होंने दूसरी, तीसरी, चौथी बार पुकारा, फिर भी कोई असर नहीं हुआ तो हाथ पकड़कर हिलाने की कोशिश की। थोड़ा−सा धक्का लगते ही श्रीराम आगे की ओर सिर के बल लुढ़क गए। ध्यान के समय गोदी में रखे हाथ हिलाने−डुलाने के कारण प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए थे। लुढ़कते हुए उनकी स्थिति ऐसी थी जैसे सिर से प्रणाम करने के लिए आगे की ओर झुके हो और माथा टेक दिए हों। लुढ़कने के बाद वे उसी स्थिति में पड़े रहे। पंडित जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी।
उन्होंने बेटा−बेटा कहा और नाम लेकर दसियों बार पुकारा, हिलाने−डुलाने की कोशिश की, पकड़कर बिठाना चाहा, लेकिन शरीर निढाल ही रहा। अनहोनी−अनिष्ट आशंका से घिरकर उन्होंने नथुनों के पास अँगुली रखकर देखा, नब्ज़ टटोली और हृदय की धड़कन देखी। जीवन के लक्षण हैं या नहीं? फिर भी निष्कर्ष पर पहुँचने की स्थिति ही नहीं आई और पिता के मुँह से जोर की चीख निकल गई। साथ आए लोगों के चेहरों का रंग उड़ गया।
चीख का शायद कुछ भान हुआ कि श्रीराम की ध्यान समाधि खुली। वे अपने आप उठकर बैठकर और अपने आपको सँभालने से पहले पिताश्री का अभिवादन किया। पुत्र के प्रणाम से पंडित जी आश्वस्त हुए कि उनका बेटा सकुशल है। कहने लगे, मैं तो डर ही गया था कि तुम चले गए। श्रीराम ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। घर आकर पिता ने फिर वही बात दोहराई और भगवान को धन्यवाद देने लगे तो बोले कि आप उन्हें क्यों धन्यवाद देते हैं। आप मुझे भगवान को सौंप चुके हैं आशीर्वाद दीजिए कि मैं अब उन्हीं का काम करूं। ताई जी वहीं उपस्थित थीं। उन्हें ये बातें अच्छी नहीं लग रही थीं। पति से कहने लगी थीं आपने श्रीराम को पता नहीं क्या−क्या पढ़ा−सिखा दिया है। मुझे इससे बहुत डर लगता है।
उस अनुभव के बारे में श्रीराम ने कुछ दिन बाद अपने साथियों को बताया । अपने आपको भगवान के लिए अर्पित कर देने के बाद लगा कि मन अपूर्व शाँति आ गई हैं। ध्यान में बैठे तो संसार जैसे तिरोहित हो गया। अपने आसपास कुछ है ही नहीं । कितनी देर ध्यान में बैठना हुआ, इसका स्पष्ट आभास नहीं है, लेकिन उस अवधि में एक अद्भुत प्रसंग घटा। वह प्रसंग आँतरिक अनुभूति थी, कोई स्वप्न था अथवा दिव्य दर्शन। इस बारे में श्रीराम ने कुछ नहीं कहा। अनुभूति एक घटना की तरह थी जो प्रत्यक्ष होती लग रही थी। जिस समय यह हुई, तब भी यह आभास भी नहीं था कि ध्यान हो रहा है।