भक्ति और ज्ञान एक दूसरे के पूरक

October 2002

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ज्ञान का अर्थ है उत्कृष्ट चिंतन तथा भक्ति का तात्पर्य है संवेदना, भावना। ये दो धाराएँ हैं। ये पक्षी के दो पंख, नाव के दो पतवार तथा नदी के दो तट हैं। जीवन की चैतन्य चेतनता इसी के बीच बहती-प्रवाहित होती है। इन दोनों के समुचित विकास से ही जीवन में परमात्मा का दिव्य प्रकाश प्रकाशित होता है। परमावस्था एवं सिद्धावस्था की प्राप्ति होती है। पूर्णता एवं समग्रता दोनों के मिलन-संगम में सधती है।

ज्ञान भक्ति की शुरुआत है, प्रारम्भ है। और भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है, अन्तिम सोपान है। ज्ञान उर्वर भूमि तैयार करता है। इसके लिए उस भूमि में जड़ जमाए फैले कुसंस्कार रूपी खरपतवारों को उखाड़ता-फेंकता है तथा उसमें खाद-पानी डालता है। इस तैयार भूमि में भक्ति का बोया गया बीज है। अतः बीज के अंकुरण-अभिवर्द्धन के लिए उर्वर भूमि एवं प्रखर बीज दोनों की आवश्यकता है। दोनों के संयोग से ही विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। चिन्तन प्रखर हो और भावना न हो तो जीवन नीरस एवं शुष्क हो जाता है और विवेक के अभाव में भावना अंधी हो जाती है। जीवन भटक जाता है।

ज्ञान बुद्धि से उपजता है और भक्ति हृदय की गहराई से। ज्ञान से बुद्धि परिष्कृत तो हो जाती है, उसकी साफ-सफाई तो हो जाती है। परन्तु भक्ति के अभाव में पुष्पित, पल्लवित, विकसित नहीं होती। प्रभु के पथ पर, श्रेष्ठ राह पर बढ़ने के लिए उत्पन्न बाधाओं, रोड़ों एवं कठिनाइयों को ज्ञान काटता-मिटाता जाता है लेकिन जो सीढ़ियाँ एवं सोपान है वे केवल भक्ति की सीढ़ी से ही चढ़ी जाती है। अतः ज्ञान व्यर्थ को तोड़ता है, निरर्थक को हटाता है और अनर्थ को मिटाता है। परन्तु इसकी सार्थकता भावना में सधती है, इसकी समग्रता भक्ति में मिलती है।

ज्ञान में प्रखरता एवं ओजस्विता तो है, पर रेगिस्तान के असह्य ताप के समान। इसमें स्वच्छता, पवित्रता तो है पर निर्बीज। विस्तार है, पर न तो कोई ऊँचाई, न कोई गहराई। स्वयं में ज्ञान शुष्क है, नीरस है, एकाकी अकेला है। ठीक इसी प्रकार भक्ति की भावधारा में जीवन विकसित तो होता है, पर एकाँगी, अपूर्ण। भक्ति से जीवन में वृक्ष तो उगेंगे, फूल तो आएँगे, हरियाली भी होगी लेकिन उस हरियाली को बचाने के लिए कोई उपाय न होंगे, कोई सुरक्षा-संरक्षण का कवच न होगा। विवेक सम्मत ज्ञान ही इस हरी-भरी हरियाली की सुरक्षा का दृढ़ आधार है। ज्ञान ही इसे एक मजबूत ढाँचा प्रदान करता है। यह एक ऐसा लौह कवच है जैसे पसलियाँ धड़कते हृदय को ढाँके रहती है। और खोपड़ी मस्तिष्क को ढाँपे रखती है। विवेक-बुद्धि से ही भावना का वृक्ष पनपता-विकसित होता है।

भावनाएँ उर्वर भूमि है, जुताई की गई, खाद-पानी डाली जमीन तैयार है। इसमें बीज तो उगेंगे ही, अंकुर तो फूटेंगे ही। चाहे वह काँटेदार बबूल का हो, कड़वी नीम के हों या छायादार फलदार आम के। भावनाओं में सत्य के बीज उगते हैं और असत्य के भी अंकुरित होते हैं। विश्वास भी पल्लवित होता है और संदेह भी पनप सकता है। प्रेम, दया भी विकसित हो सकती है और घृणा-वैमनस्य भी फन फैला सकता है। अतः इस उर्वर भूमि में केवल सत्य के, श्रद्धा के, आस्था के, निष्ठ के बीज गले एवं अंकुरित हो। इसके लिए आवश्यक है भावनाओं की विवेकसम्मत बुद्धि से रखवाली एवं निगरानी। भावना को इसी पथ का अनुसरण करना होगा।

भावना यदि ज्ञान के मार्ग से न गुजरी हो तो उसका नींव कमजोर होगी। भक्ति रूपी उसका भवन सदा हिलता, डुलता रहेगा। प्रबल झंझावात से तो दूर एक हल्के थपेड़े से भी इसकी टूटने-गिरने-मिटने की आशंका बनी रहेगी। सामान्य क्रम में भक्त तो केवल विश्वास करना जानता है, उसे मात्र श्रद्धा आरोपण करना आता है। वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे सत्पथ पर ले जा रहे हैं। वह उनका भी अनुगामी बन सकता है जो उसे भटका रहे हैं। उसमें संदेह के बीज भी फूट सकते हैं। वह गलत को भी पकड़ लेता है उसी प्रकार जिस तरह ठीक को पकड़ता है। वह सोचता कहाँ है? क्योंकि वह बुद्धि की भाषा का नहीं, हृदय के उद्गार का अनुगामी है। वह केवल हृदय के उठने-गिरने, मद्धम-उच्च स्वर की तीव्रता को पहचानता है। यह ठीक तो है, इसमें इसकी विशेषता एवं महत्ता तो झलकती है पर यह पूर्ण ठीक नहीं है, समग्र नहीं है।

अकेली भावनाएँ मूक होती हैं। और बुद्धि वाचाल होती है। इन दोनों के मिलन से ही चरम संयोग बनता है। इन दोनों के एकाकार में ही परम उपलब्धि घटित होती है। जीवन रूपी महासमर को जीतने के लिए और उस जीत हेतु आवश्यक कला-कौशल प्राप्त करने के लिए इस जोड़ी की अनिवार्य आवश्यकता है। अन्यथा यह संग्राम बहुत भारी पड़ेगा। ज्ञान रूपी अस्त्र-शस्त्र से वार तो किया जा सकता है पर भक्ति की ढाल के बिना अपना बचाव नहीं किया जा सकता। अतः जितना उपयोग विचारों का है, उतनी उपादेयता भावनाओं की है।

इसी कारण विश्वविश्रुत स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ‘मुझे आचार्य शंकर के समान प्रखर मेधा की आवश्यकता है तो बुद्ध के सदृश करुणा, भावना, संवेदना से ओतप्रोत हृदय की।’ एक पर्याप्त नहीं है, अपूर्ण है। जिसने एक को प्राप्त किया है वह आधा-अधूरा रहा। इसलिए तो समस्त ज्ञान-विज्ञान को जान लेने पर भी देवर्षि नारद के अन्दर एक अतृप्ति रह गयी थी, किसी चीज को पाने की कसक, तड़पन, पीड़ा रह गई थी। और वह व्यथा, वह अतृप्ति तभी मिटी जब उन्होंने भक्ति रूपी सोमरस का पान कर लिया। उनमें ज्ञान के साथ भक्ति का भी उदय हुआ और वे इसी भावधारा में स्पन्दित एवं तरंगित हुए। नारद भक्ति सूत्र इसी का परिणाम है। आचार्य शंकर केवल प्रखर मेधा-प्रज्ञा के ही धनी नहीं थे उनके अन्दर हृदय की विशालता भी थी। वे प्रेम व भक्ति के जीवन्त पुरुष थे। उनके सौंदर्य लहरी में भक्ति की गहन गम्भीरता परिलक्षित होती है। महाकवि दिनकर तभी राष्ट्रकवि के अलंकरण से अलंकृत हो सके जब वे शुष्क विचारों से सजल भावनाओं की ओर उन्मुख हुए।

बुद्धि के मार्ग में दार्शनिकता-तात्त्विकता का जन्म होता है इससे जीवन में तर्क की सूखी रेत भर जाती है। सोचा बहुत है, परन्तु पहुँचा कहीं नहीं। पहुँचा तो तभी जा सकता है जब इसमें भावनाओं का पुट हो, करने का साहस हो। इसी तरह एकाँगी भावना भावुकता बन जाती है। और भावुकता उस ओस की बूँद की तरह है जिसमें आकर्षण है, पर क्षणभंगुर। सूरज की तपन बढ़ते ही यह गल जाती है, भाप बन उड़ जाती है। जीवन में आनन्द तभी बरसेगा, संगीत तभी गूँजेगा जब बुद्धि और भावना का संयोग होता है। इनका संयोग महायोग विनिर्मित करता है। इनके मिलने से महासमन्वय घटित होता है। और जब यह क्रियान्वित होता है, कर्म में उतरता है तो जीवन प्रभुमय हो जाता है।

ज्ञान और भक्ति, विचारणा और भावना के दो पतवारों से जीवन की नाव भवसागर पार लगती है। ये गाड़ी के दो पहिये हैं, जो मंजिल तक, गंतव्य तक पहुँचाने के लिए वाहक बनते हैं। ये नदी के दो तट हैं, दो पाट हैं जिसके बीच से बहना-गुजरना पड़ता है। बहने के लिए दोनों किनारों का सहारा चाहिए। और अन्त में दोनों किनारे छूट जाएँगे, मिट जाएँगे, विलीन हो जाएँगे। न नदी रहेगी, न धारा और न किनारा। सब सागर में जलमय हो जाते हैं। पर प्रभु के द्वार तक पहुँचने के लिए इन दोनों की, विचार और भावना की आवश्यकता है। यही साधना है, जिससे सिद्धि और समाधि जन्मती है। यह घटित तभी होती है जब हमारा चिन्तन उत्कृष्ट हो, भावना परिष्कृत हो। तभी कर्म भी श्रेष्ठ व निष्काम हो सकेंगे। जीवन की सार्थकता, समग्रता भी इसी में है। हम सभी को अपने विचारों, भावों एवं कर्मों से सतत् इसी श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होते रहना चाहिए।


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