राजा दिलीप उन दिनों गुरु वशिष्ठ के आश्रम में रह रहे थे। उन्हें आश्रम की गौ चराने का काम सौंपा गया। वे उस छोटे काम को भी बड़ा मानते और तत्परतापूर्वक सौंपी जिम्मेदारी निबाहते।
एक दिन एक सिंह ने गुरु की नंदिनी गाय को दबोच लिया। राजा के धनुष−बाण काम नहीं आए। अब क्या किया जाए? गुरु की सौंपी जिम्मेदारी कैसे निभे? दिलीप ने अपने आपको सिंह के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया, ताकि वह गाय को छोड़कर उन्हें खा ले। उठाए उत्तरदायित्वों को न निभाने का कलंक ओढ़ने की अपेक्षा उन्हें अपना शरीर देना अधिक श्रेयस्कर लगा।