एक आम का पेड़ था। फलों में से एक बड़ा डरपोक था। जो पकते गए, वे धरती पर कूढ़ते गए। कितनों को ही मालिक ने तोड़ लिया, पर वह एक पत्तों के झुरमुट में छिपा ही बैठा रहा।
उसकी उद्विग्नता और बढ़ी। साथियों के चले जाने का मोह सताने लगा, फिर भी पेड़ से जकड़े रहने का मोह छूटा नहीं। मन का संशय कीड़ा बना और उसने उसे खाकर सुखा डाला और कुरूप कर दिया। आँधी के एक ही झोंके ने उसे सूखे पत्तों के साथ तोड़कर एक खड्डे में फेंक दिया।
यही कृपणता एक दिन पककर जीवन का अंग, प्रारब्ध, संस्कार बन जाती है और जन्म−जन्मांतरों तक पीछा नहीं छोड़ती।