मन की वृत्तियों को निर्मल बना लो

October 2002

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अन्तर्यात्रा का विज्ञान विगत कई महीनों से योग साधकों का पथ-प्रदर्शन कर रहा है। इसमें बताए गए तत्त्वों को आत्मसात करके विश्वभर के असंख्य योग साधकों ने अपनी आत्मचेतना की अन्तर्यात्रा प्रारम्भ की है। और वे अनेकों दिव्य अनुभवों से गुजरे हैं। यही कारण है कि यह ‘योगकथा’ साधक समुदाय में ‘साधक-संजीवनी’ के रूप में विख्यात हो चली है। इसकी पिछली कड़ी में सभी योगानुरागियों ने समाधिपाद के चौथे सूत्र पर चिन्तन, मनन, एवं निदिध्यासन किया था। यह जाना था कि साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य हो जाता है। अब इससे अगले यानि की पाँचवे सूत्र में महर्षि पतंजलि इस तत्त्व को और अधिक सुस्पष्ट करते हैं। इस सूत्र में वह कहते हैं- ‘वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टक्लिष्टः’ (1/5)। यानि मन की वृत्तियाँ पाँच हैं। वे क्लेश का स्रोत भी हो सकती हैं और अक्लेश का भी।

योगसूत्रकार महर्षि का यह सूत्र पहली नजर में एकदम पहेली सा लगता है। एक बार में ठीक-ठीक समझ में नहीं आता कि मन की पाँचों वृत्तियाँ किस तरह और क्यों अपना रूप बदल लेती हैं? कैसे वे क्लेश यानि की दुःख, पीड़ा की जन्मदात्री बन जाती हैं? और कैसे वे हमें अक्लेश अर्थात् गैर दुःख या पीड़ा विहीन अवस्था में ले जाती है। इन सवालों का जवाब पाने के लिए हम सभी को सत्य की गहन अन्वेषण करना पड़ेगा। तत्त्व की गहराई में प्रवेश करना होगा। तब कहीं जाकर बात को समझने की उम्मीद बंधेगी। यहाँ भी ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ के साथ ‘गहरे पानी पैठि’ की शर्त जुड़ी हुई है। इस शर्त को पूरा करके ही महर्षि का मन्तव्य जाना जा सकता है।

लेकिन इस गहरे पानी में पैठने की शुरुआत कहीं किनारे से ही करनी होगी। और यह किनारा है शरीर। जिससे हम सब काफी सुपरिचित हैं। यह परिचय इतना प्रगाढ़ हो चला है कि हममें से कइयों ने यह मान लिया है कि वे शरीर से भिन्न और कुछ हैं ही नहीं। इस दृश्यमान शरीर के मुख्य अवयव भी पाँच हैं, जिन्हें पंच कर्मेन्द्रियाँ भी कहते हैं। इस शरीर से ही जुड़ा एक पाँच का समूह और भी है, जिसे पंच ज्ञानेन्द्रियाँ कहा गया है। इन्हीं पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमारी अन्तर्चेतना बाह्य जगत् से सम्बन्ध स्थापित करती है। बाह्य जगत् की अनुभूतियों का आस्वादन प्राप्त करती है। बाह्य जगत् एक सा होने पर भी इसकी अनुभूति का रस और आस्वादन का सुख हर एक का अपना निजी होता है। यह निजीपन मन और उसकी वृत्तियों के ऊपर निर्भर है। ये वृत्तियाँ भी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की ही भाँति पाँच हैं।

जहाँ तक मन की बात है, तो परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि मन शरीर से बहुत अलग नहीं है। यह शरीर से काफी कुछ जुड़ा और चिपटा है। शरीर से मन का जुड़ाव इस कदर है कि इसे यदि शरीर का सूक्ष्म हिस्सा कहा जाय तो कोई गलत बात न होगी। यही कारण है शरीर के सुखों-दुःखों से यह सामान्य अवस्था में बुरी तरह प्रभावित होता है। यह भी एक तरह से शरीर ही है, परन्तु योग साधना के बिना इसका अलग अस्तित्त्व अनुभव नहीं हो पाता। हालाँकि योग साधना करने वाले इस सच्चाई को बड़ी आसानी से जान लेते हैं। कि दृश्य शरीर यदि स्थूल शरीर है, तो अपनी शक्तियों एवं सम्भावनाओं के साथ मन सूक्ष्म शरीर है। इसका विकास इस तथ्य पर निर्भर करता है कि मन और उसकी वृत्तियों का किस तरह से उपयोग किया गया?

यदि बात दुरुपयोग तक सीमित रही है, मानसिक शक्तियाँ केवल इन्द्रिय भोगों में खपती रही हैं। केवल क्षुद्र स्वार्थ के साधन जुटाए जाते रहे हैं। खोखले अहंकार की प्रतिष्ठ को ही जीवन का सार सर्वस्व समझा गया है। तो फिर मन की पाँचों वृत्तियाँ जीवन में क्लेश का स्रोत साबित होने लगती है। यदि बात इसके उलट है, दिशा मन के सदुपयोग की है मन को योग साधना में लीन किया गया है तो मन की यही पाँचों वृत्तियों अक्लेश का स्रोत सिद्ध होती है। मन की पञ्चवृत्तियाँ जिन्दगी में क्लेश की बाढ़ किस तरह लाती है, इसका अनुभव हममें से प्रायः सभी को है। परन्तु इनका अक्लेश के स्रोत के रूप में सिद्ध होना परम पूज्य गुरुदेव द्वारा बताए गए जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्रों से ही सम्भव है।

गुरुदेव कहा करते थे कि वृत्तियों का खेल समझ में न आये तो सब कुछ किया-धरा बेकार चला जाता है। सारा जोग-जाप व्यर्थ हो जाता है। तपस्या साधना रावण, कुम्भकर्ण, हिरण्यकश्यपु एवं हिरण्याक्ष ने भी कम नहीं की थी। इनकी घोर तपस्या के किस्सों से पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। पुराण कथाएँ कहती हैं कि इनकी तपस्या से मजबूर होकर स्वयं विधाता इन्हें वरदान देने के लिए विवश हुए। परन्तु वृत्तियों के शोधन के अभाव में समस्त तप की परिणति अन्ततः क्लेश का ही स्रोत साबित हुई। अपनी तमाम उम्र ये वासनाओं की अतृप्ति की आग में जलते-झुलसते रहे। इन्हें जो कुछ भी मिला, इन्होंने जो भी अर्जित किया, उसने इनकी अतृप्ति की पीड़ा को और अधिक चरम तक पहुँचा दिया।

इसके विपरीत उदाहरण भी हैं। सन्त कबीर और महात्मा रैदास के पास साधारण जीवन यापन के साधन भी मुश्किल से थे। बड़ी मुश्किल से इनकी गुजर-बसर चलती थी। इनके जीवन का ज्यादातर भाग कपड़ा बुनने और जूता गाँठने में चला जाता था। इनमें से किसी ने अद्भुत एवं रोमाँचकारी तपस्या भी नहीं की। परन्तु एक काम अपनी हर श्वास के साथ किया। आने-जाने वाली हर श्वास के साथ मन और उसकी वृत्तियों के शोधन में लगे रहे। अपनी प्रगाढ़ भगवद्भक्ति से अपनी प्रत्येक मानसिक वृत्ति को परिष्कृत कर डाला। इसकी परिणति भी इनके जीवन में अति सुखद हुई। सभी पाँचों वृत्तियों इनके जीवन में अक्लेश का, आनन्द का स्रोत बन गयी। वृत्तियों की निर्मलता की इसी अनुभूति को पाकर महात्मा कबीर गा उठे थे- ‘कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पाछे-पाछे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर॥’

वृत्तियों की दुर्गन्ध मिटाने वाली, इन्हें शोधित, सुरभित एवं सुगंधित करने वाली बयार विराट् से आती है। यह बयार हमारे अपने जीवन में आए इसके लिए हमें स्वार्थ एवं अहं के दोनों कपाट खोलने पड़ेंगे। आनन्द तो समस्त सृष्टि में, विराट् ब्रह्मांड में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। यह उमड़-घुमड़कर हमारे भीतर आने के लिए आतुर है। बस हमीं अपने कपाट बन्द किए बैठे हैं। इस बात को हम कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि सुबह होने पर भी यदि हम अपने कमरे की खिड़कियाँ, दरवाजे न खोलें तो सूर्य की किरणें चाहकर भी हमारे कक्ष में घुस न पाएँगी। जबकि खिड़कियाँ खोलते ही हजारों-हजार किरणें एक साथ आकर कक्ष को उजाले से भर देती हैं। खिड़की खोलने से पहले भी सूर्य यथावत था। यदि वह वहाँ नहीं होता तो भला किरणें कहाँ से आती। बस खिड़कियों के अवरोध के अवरोधक हटते ही अँधेरा उजाले में रूपांतरित हो गया।

कुछ ऐसा ही रूपांतरण वृत्तियों का भी होता है। स्वार्थ और अहं के कपाट खुले, वासना की तृप्ति की जगह भक्ति की अनुरक्ति में लगा कि वृत्तियाँ बदलने लगती हैं। जो पहले कभी केवल दुःखों को, पीड़ा को, सन्ताप को, अतृप्ति को जन्म देती थीं, वही अब आनन्द की, तृप्ति की, सुखों की उफनती बाढ़ की जन्मदात्री बन जाती हैं। ये मानसिक वृत्तियाँ कौन-कौन है? इनमें से किसका किस तरह रूपांतरण होता है, यह अगले सूत्र की विषय वस्तु है। जो इस योगकथा की अगली कड़ी में परिभाषित और प्रकाशित होगी।


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