निश्चित होगा मिलन भविष्य में धर्म और विज्ञान का

October 2002

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धर्म और विज्ञान दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। सापेक्षितावाद के प्रणेता महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन के इस कथन में धर्म और विज्ञान के महासमन्वय की अनिवार्यता झलकती है। धर्म अर्थात् अंतर्जगत् की यात्रा, ईश्वर के प्रति प्रबल आस्था और विश्वास। विज्ञान यानि ईश्वर द्वारा बनाये गये इस पदार्थ जगत् का अध्ययन-अन्वेषण। दोनों का लक्ष्य सत्य की खोज है। परन्तु एक इसे आन्तरिक जगत् में खोजता है और दूसरा बाह्य जगत् में। सम्पूर्ण एवं समग्र खोज तो दोनों के मिलन-संगम से ही सम्भव है।

धर्म और विज्ञान सिक्के के दो पहलू, गाड़ी के दो पहिये, पक्षी के दो पंख के समान हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्त्व सम्भव कहाँ? परन्तु वर्तमान की ज्वलन्त समस्या एकाँगी खोज-अन्वेषण है। जिसके निष्कर्ष और परिणाम दोनों से ही मानव जाति संत्रस्त एवं परेशान हो उठी है। धर्म और विज्ञान दोनों को अब लगने लगा है कि आपसी संयोग-समन्वय के बिना कोई और रास्ता नहीं, विकल्प नहीं। इसके लिए पदार्थ को ही सर्वस्व मानने वाला हठवादी विज्ञान ने इस ओर अपने कदम बढ़ाये हैं। आधुनिक कास्मोलॉजी (ब्रह्मांड विज्ञान) के अनेक अनुत्तरित एवं अनसुलझे सवालों ने भी विज्ञान को ईश्वर की ओर, धर्म की तरफ मुड़ने के लिए विवश किया है। और तथ्य भी यही है कि पदार्थ जगत् से पार एवं परे हुए बिना कहाँ समग्र सत्य की झलक-झाँकी मिल सकती है।

विज्ञान ने ब्रह्मांड के बारे में इन दिनों काफी गहन शोध-अन्वेषण किया है। इसे अपने ढंग से परिभाषित भी किया है। इसी के तहत इसे प्राकृतिक नियमों का उत्पाद भी कहा, जिसमें न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण एवं आइन्स्टाइन का सापेक्षवाद भी शामिल है। विज्ञान ने नियम एवं सिद्धान्त तो बनाए और ये खूब प्रचारित व प्रसिद्ध भी हुए, पर इससे बात नहीं बनी। क्योंकि पदार्थ और प्रकृति के दायरे में भी बहुत कुछ ऐसा है जो वैज्ञानिक बुद्धि और मेधा को चुनौती देता है और इनकी समझ से परे है। यहाँ तक कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भौतिकविद् स्टीफन हाकिंग भी स्वयं सशंकित प्रतीत होते हैं। हालाँकि उन्होंने यह दावा किया है कि वे शून्य से ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका समाधान प्राकृतिक नियमों से खोज निकालेंगे। परन्तु उनके इस दावे में कितनी दृढ़ता है, कितनी सच्चाई है, उन्हीं के द्वारा विरचित ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में उल्लेख ‘फिर ईश्वर के लिए क्या स्थान होगा’ में झलक जाती है। इस पुस्तक को पढ़ने से यही समझ में आता है कि उन्हें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं है कि प्राकृतिक नियमों के द्वारा ईश्वरीय सृष्टि विज्ञान को समझा व जाना जा सकता है।

इस संदर्भ में प्राकृतिक विज्ञान तथा थीयोलॉजी के बर्कले सेन्टर के भौतिकविद् राबर्ट रसल का कहना है कि हाकिंग का ब्रह्मांड विज्ञान ईसाई धर्म का समर्थन करता जान पड़ता है। हाकिंग के ब्रह्मांड विज्ञान में समय का उद्भव एवं विकास ब्रह्मांड के साथ ही हुआ है और इसकी पृष्ठभूमि क्वाण्टम है। क्वाण्टम अर्थात् कण का ऊर्जा में और ऊर्जा का कण में अनवरत परिवर्तन। इस कण-ऊर्जा रूपी क्वाण्टम की आधारभूमि में ऐसा कोई निश्चित क्षण नहीं है, जब समय का आरम्भ एवं जन्म हुआ। सृष्टि संरचना का भी कोई निश्चित क्षण नहीं है। संभवतः इसीलिए विज्ञान किसी महाशक्ति पर विश्वास नहीं कर पाता। परन्तु यह अविश्वास भी नहीं कर पाता है क्योंकि अनेकों ऐसे प्रश्न हैं जो उसकी समझ से परे हैं।

बिग बैंग के पूर्व क्या था इसका द्रष्टा कौन है? इस संदर्भ में कास्मोलॉजी मौन है। परन्तु ऋग्वेद की ऋचाएँ कहती हैं कि इस घटना का एकमात्र द्रष्ट ईश्वर है और वह इस महाविस्फोट के पहले भी था। इस ऋग्वेदोक्त सत्य को स्वीकार किया था पांचवीं शताब्दी के महान् ईसाई सन्त आँगस्टाइन ने। वह कहते हैं कि ईश्वर ने समय को बनाया। वह इससे बंधा-सिमटा नहीं है। वह तो काल को बनाने वाला महाकाल है। वह दिक् एवं काल से परे परम सद्वस्तु है। भौतिकविद् रसल की उक्ति एवं मान्यता में यही सत्य गुँजायमान होता जान पड़ता है। वह यह तो मानते हैं कि समय का आरम्भ ब्रह्मांड के प्रादुर्भाव के साथ हुआ पर इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में ईश्वर की भागीदारी को अस्वीकार नहीं करते।

राबर्ट रसल तो यहाँ तक कहते हैं कि स्टीफन हाकिंग चाहे ईश्वर के प्रति आस्था-विश्वास करें या न करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मांडीय सिद्धान्त तो ईश्वर निष्ठ को प्रकट कर ही देता है। उनके अनुसार हाकिंग की ईश्वर अस्तित्व के प्रति यह अवधारणा ब्रह्मांडीय विज्ञान में ही नहीं समूचे विज्ञान जगत् में भी नूतन क्रान्ति का परिचायक है। इससे धर्म और विज्ञान को आपस में मिलने एवं मिलकर एक साथ चलने में नया अवसर मिलेगा।

आज की आधुनिक कास्मोलॉजी में कई ऐसे सूत्र हैं, जिसके एक छोर पर तो समस्त वैज्ञानिक अपने अध्ययन-अन्वेषण में क्रियाशील हैं परन्तु उसका अगला छोर किसी अज्ञात दिशा की ओर संकेत करता है, जिसका उन्हें अभी भान एवं ज्ञान नहीं है। इसी कारण उन्हें जितना दिखता है, उससे भी अधिक अनदेखा रह जाता है। जितना अभिव्यक्त होता है, उससे ज्यादा अव्यक्त रह जाता है। इस अगले अनदेखे छोर को ही पूर्वी ऋषि मनीषी धर्म की संज्ञा देते है। जहाँ तक अभी विज्ञान की पहुँच तो नहीं हो सकी है, पर संकेत अवश्य मिलने लगे हैं। इसी कारण ससेक्स विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्रोफेसर जॉन वैरो ने उल्लेख किया है कि आज के वैज्ञानिक उस अदृष्ट, अदृश्य ईश्वर की हल्की सी, महीन सी, झीनी सी झाँकी प्राप्त करने लगे हैं।

इसे क्रान्तिकारी एवं अभूतपूर्व परिवर्तन मानते हुए एक जर्मन वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी कि समूचे आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान को ईश्वर का विश्वास प्रभावित करने लगा है। अब आज के भौतिकशास्त्री यह भी मानने लगे हैं कि समस्त ब्रह्मांड को एक सिद्धान्त ‘थ्योरी ऑफ एवरीथिंग‘ से जाना समझा एवं परखा जा सकता है। यह तथ्य सच हो या न हो परन्तु इससे यह तो पता चल ही जाता है कि एक ईश्वर है जो समस्त जगत् का नियन्ता एवं नियंत्रणकर्त्ता है। इसे दार्शनिकों ने एकेश्वरीय सिद्धान्त की मान्यता प्रदान की है।

वैज्ञानिकों की ईश्वर आस्था के संदर्भ में प्रसिद्ध पत्रिका नेचर ने पिछले दिनों एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि 39.3' वैज्ञानिक एक ऐसे ईश्वर के प्रति आस्था-विश्वास करते हैं जिसकी वे उपासना-आराधना कर सकें। इस आँकड़े से प्रदर्शित होता है कि जड़ जगत् के अध्येता-अध्ययनकर्त्ता भी अब इस जगत् से परे की ओर सोचने-विचारने लगे हैं। सन् 2000 में हुए एक अमेरिकी विज्ञान सम्मेलन में भी इस बात पर बल मिला है कि ब्रह्मांड विज्ञान में ईश्वर को मानने के अनेकों प्रमाण हैं। अनेकों ऐसे अकाट्य तर्क एवं तथ्य हैं जिसे यदि खुले मन से स्वीकारा जाए तो ईश्वर के अस्तित्त्व पर कोई भ्रम नहीं रह जाएगा।

इसी सम्मेलन में एक प्रख्यात् वैज्ञानिक ने अपना उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था कि किसी विशिष्ट अर्थ, उद्देश्य, मूल्य एवं तर्क आदि के आधार विज्ञान से नहीं मिल पाते हैं। अतः इसके लिए धर्म की आवश्यकता है, जो हमें इस दिशा में सहयोग करे। प्रसिद्ध खगोलविद् एलन सेण्डेज की मान्यता है कि ब्रह्मांडीय गतिविधियाँ एवं घटनाएँ इतनी जटिल एवं दुरूह है कि उसकी समुचित एवं सन्तोषप्रद व्याख्या आधुनिक विज्ञान नहीं दे सकता है। जीव और जगत् के गम्भीर रहस्य का अनावरण करने में भी यह असमर्थ एवं अक्षम है। इसे तो किसी महाशक्ति के माध्यम से ही समझा एवं अनुभव किया जा सकता है। और इसी की कृपा शक्ति द्वारा ही स्वयं के अन्दर एवं जगत् के भीतर झाँका जा सकता है।

विज्ञान का धर्म की ओर इस झुकाव के बारे में राबर्टरसल कहते हैं कि विज्ञान अब अदृष्ट के प्रति आस्था-विश्वास रूपी धर्म को मानने लगा है। वह अब ईश्वर के अस्तित्त्व को संदेह की निगाहों एवं नजरों से नहीं देखेगा। रसल की मान्यता है कि पहले ‘बिग बैंग थ्योरी’ में ईश्वर का कोई स्थान नहीं था लेकिन अब वैज्ञानिक अनुभव करने लगे हैं कि इस महत् कार्य में ईश्वर का योगदान अवश्य है। क्योंकि ब्रह्मांड का एक सुनिश्चित उद्देश्य है। इस संदर्भ में श्री अरविन्द कहते हैं कि सृष्टि रचना ईश्वर की लीला है। उसने अपनी लीला करने के लिए इस ब्रह्मांड का सृजन किया है। इस कथन को अपने ढंग से समर्थन एवं व्याख्या करते हुए लेसर किरणों के आविष्कारक चार्ल्स टाउस का कहना है कि बिना किसी बाजीगर की बाजीगरी एवं कलाकार की कलाकारी से ऐसे अद्भुत ब्रह्मांड का सृजन अकल्पनीय है। इसमें किसी न किसी महाशक्ति का हाथ जरूर है।

सृष्टि विकास (इवॉल्युशन) में आज वैज्ञानिक ईश्वरीय हाथ देखने लगे हैं। इनकी मान्यता है कि इससे ईश्वर एवं प्रकृति का रहस्य उद्घाटित होगा। पदार्थवादी वैज्ञानिक भी परिकल्पना करने लगे हैं कि ब्रह्मांड का सृजन एवं निर्माण जीवन और चेतना के लिए ही हुआ है। इसी कारण अमेरिकी धर्म और विज्ञान केन्द्र निदेशक मार्क रिचर्डसन कहते हैं कि विज्ञान ईश्वर का प्रत्यक्ष एवं चश्मदीद गवाह बने या न बने, पर वह उसके क्रिया-कलापों का गवाह तो बन ही सकता है। इस सत्य की अनुभूति प्राप्त करने के बाद जैव रसायनविद् आर्थक पीकाँक के जीवन की दिशाधारा ही बदल गई। वह पूर्णतः धर्म की शरण में चले गये और उन्होंने कहा ‘परमात्मा के कारण ही पृथ्वी पर जीवन की इतनी विविधता दृष्टिगोचर होती है।’

वैज्ञानिक अपने अनुसन्धान-अन्वेषण कर लेने के पश्चात् जब निष्कर्ष पर पहुँचने लगते हैं तो उन्हें किसी अदृश्य की झाँकी दिखाई देने लगती है। ऐसे ही वैज्ञानिक थे कार्ल सागा जिन्होंने विज्ञान को अति सहज-सरल एवं प्रामाणिक रूप में लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की है। वे भी अपने जीवन के अन्तिम समय में इसी ऊहापोह में थे कि ईश्वर को मानूँ या न मानूँ। उन्होंने अपनी इस उधेड़बुन को अमेरिका की राष्ट्रीय चर्च परिषद् के महासचिव के सामने रखा भी था। महान् वैज्ञानिक न्यूटन के अनुभव भी कुछ ऐसे धार्मिक विचारों से अनुप्राणित थे। उन्होंने कहा था कि ग्रहों की गतिविधियाँ केवल किसी प्राकृतिक कारणों से परिचालित नहीं होती बल्कि इसमें किसी अति बुद्धिमान-मेधावान एजेण्ट का प्रभाव भी दिखाई देता है।

आज के विज्ञान ने अपनी सीमाओं और परिधि से निकलने की घोषणा कर दी है। अब धर्म की बारी है। अब देखना है कि धर्म ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की रीति-नीति को तोड़ पाता है या नहीं। आगे बढ़ने के लिए, पिछले स्थान से पैर उठाता है कि या नहीं। तर्क और प्रयोगों के महत्त्व को स्वीकार कर अपनी एकाँगिता-अपूर्णता को दूर करता है या नहीं? विज्ञान ने इस तथ्य को स्वीकारा और अपनाया है। अब धर्म और अध्यात्म को भी इस प्रकार के साहस और पुरुषार्थ का संचय करने के लिए हिचकिचाहट नहीं करनी चाहिए।

इस सम्बन्ध में विज्ञान की पहल सराहनीय एवं अभिनन्दनीय है। उसने दुराग्रह नहीं अपनाया। सत्य के लिए अपने द्वार खुले रखे हैं। यदि आज कोई बात गलत निकली तो वह अपनी आज सुधारने के लिए तैयार है। उसका कथन है कि हम सत्य की राह के पथिक मात्र हैं। हठ करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि जो बात गलत साबित हुई है, उसे समय रहते सुधार-संवार लिया जाय। इस मान्यता से उसकी ईमानदारी साबित होती है। धर्म को भी अपनी उन प्राचीन वैदिक परम्पराओं का अनुसरण करना चाहिए। जिनमें तर्क एवं प्रयोगों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऐसा करने पर धार्मिक जगत् अपनी भ्रान्तियों एवं मूढ़ मान्यताओं से छुटकारा पा सकेगा।

इस तरह विज्ञान भी धर्म की भावना, करुणा एवं संवेदना को अपना सके तो विनाश-विध्वंस की ओर बढ़ते उसके कदम मुड़कर पुनः सृजन की ओर चल पड़ेंगे। इन दोनों के मिलन-संगम में ही जीवन के विकास की समग्रता-पूर्णता समाहित है। इसी से आन्तरिक जीवन की प्रसन्नता तथा बाह्य जीवन में सौंदर्य झलक सकेगा।


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