जब कामनाएँ प्रार्थनाओं में बदल जाती हैं।

October 2002

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कामना गहरी अतृप्ति का परिणाम है। इस अतृप्ति को तृप्ति के लिए अनेकों प्रकार की कामनाएँ जन्म लेती हैं। कामना की सघनता से दुःख उत्पन्न होता है और दुःख की सघनता में कामना और भी गहरी हो जाती है। दुःख के दलदल का कारण कामना के अंकुरण की बहुलता है। यही पल्लवित एवं विकसित होती है। पर कभी-कभी सुख की शीतल छाँव तले भी इसकी बाढ़ आती है। कामनाओं का यह मोह जाल तभी टूटता है जब ज्ञान उदय हो।

कामना जो नहीं है, उसकी प्राप्ति की कल्पना है। यह असत्य की एक भ्रान्ति है। असत्य याने जो कल्पना में दृष्टिगोचर होता तो है पर उसका अस्तित्त्व न तो कल था और न कल होगा। कामना इस असत्य रूपी मृगमरीचिका की ओर अंधी दौड़ है। यह दौड़ती कितनी भी बेतहाशा हो, पर इसका परिणाम कुछ नहीं होता। यह क्षणभंगुरता को पाने की तीव्र ललक है, नश्वरता को उपलब्ध करने की घनी चाहत है। ललक और चाहत इसलिए, क्योंकि उसमें प्रबल एवं क्षणिक आकर्षण है। नश्वरता आकर्षण का ही विपर्यय है। क्योंकि पल भर बाद यह नहीं होगा। कामना इसी आकर्षण से उपजती एवं पनपती है।

यह उस ओस की बूँद के समान है जो पल भर बाद ढुलक जाएगी। पर जब तक है तो इसमें मोती के समान चमक दिखाई देती है। जिन्दगी उसे पाने को दौड़ती है। कामना उस क्षण भर की इठलाती-मदमाती यौवन की माँग है जिसके नशे में मनुष्य अपना सर्वस्व भूल जाना चाहता है। इसे पाने की आशा में सभी कुछ लुटा देता है। हालाँकि इस हेतु सब लुट जाने पर, खो जाने पर भी मिलता कुछ भी नहीं है। कामना है लौकिक ऐश्वर्य की माँग। धन-सम्पदा, पद-प्रतिष्ठ, मान-सम्मान पाने की अपार उत्कण्ठा। जीवन इन्हीं कामनाओं का सपना बुनता है। सपने तो सपने होते हैं, जागे कि टूट गये। ऐसे ही कामनाओं की उधेड़बुन में, ऊहापोह में सभी कुछ टूटता मिटता रहता है पर फिर भी कामना जीवित और जीवन्त बनी रहती है।

गरीब भी कामना करता है, कामना में जीता है। अमीर भी कामना करता है, वह भी कामना में जीता है। गरीब जिसके पास कुछ नहीं है उसे पाने की कामना है, उसे अमीर बनने की कामना है। अमीर, धनवान जिसके पास बहुत कुछ है उसे और पाने की कामना है। गरीब और अमीर दोनों ही आशान्वित हैं। दोनों को पाने की चाहत है क्योंकि जो चाहत है वह तो इहलौकिक है, साँसारिक है, इस चाहत की जैसे-जैसे पूर्ति होती जाती है कामना और भी बढ़ती जाती है। कामना तो आग में घी डालने जैसी है। यह तो एक इंधन है। यह जितनी मात्रा में होगा उतनी मात्रा में अग्नि प्रज्वलित होती रहेगी। उसकी लपटें उतनी तेजी से उठेंगी।

अगर सदा अतृप्ति गहरी हो तो कितने भी सुख साधन, भोग-विलास के सरंजाम जुटा लिया जाए यह अतृप्ति बनी रहेगी, मिटेगी नहीं। यद्यपि व्यक्ति कामना करता है, अपेक्षा रखता है ताकि यह अतृप्ति मिट जाए, परन्तु वह मिटने के बदले और गहरी होती चली जाती है। क्योंकि इसकी तलाश बाहरी नहीं हो सकती, इसकी खोज तो अन्दर ही सम्भव है। फिर भी लोगों की तलाश बाहर जारी है, खोज जारी है। कामनाओं की पल-पल बदलती धूप-छाँव में। सच यही है कि जिसने बाहर कभी भी कोई कामना की उसे असफलता हाथ लगी। और इन सपनों से जो जागा उसे तृप्ति मिली।

जापान के महान् कवि ईशा के जीवन में भी कामनाओं की बदली घहराती रही। संसार के क्रूर आघातों-चोटों से उनकी जीवन की आशा की नाव डूबती-उतराती रही। उनका दाम्पत्य जीवन चलने ही लगा था कि उनकी पत्नी उन्हें सदा के लिए छोड़ चल बसीं। फिर बेटी की मौत के मुँह में समा गयी। जवानी की दहलीज को पार भी न कर पाये थे कि उनके पांचों बच्चे स्वर्ग सिधार गये। वह अकेले रह गये। व्यथा के इन क्षणों में उनका कवि हृदय फूट पड़ा और उन्होंने हाइकू नामक कविता लिखी। उन्होंने लिखा- निश्चित ही जीवन एक ओस का कण है, और मैं पूर्णतया सहमत हूँ कि जीवन ओस का कण है, फिर भी, फिर भी कामनाएँ हैं कि मिटती ही नहीं। यह ‘फिर भी’ ही वह भ्रमित कामना है जो सर्वस्व खो जाने के बाद भी बनी रहता है। मनुष्य सोचता है कि जो कुछ खोया है उसमें कुछ तो मिल ही जाएगा। बुद्धि की पकड़ में आ जाने पर भी भाव से सम्बन्ध नहीं जुड़ता। विचारों में कौंध जाय तो भी सत्य भावना में नहीं झलकता। और कामना अपनी जाल बुनती रहती है, अपने कई रूप संजोती रहती है। परन्तु जब यही कामना उस अन्तर की अतृप्ति को दूर करने के लिए प्रभु को पुकारने लगती है तो वह प्रार्थना बन जाती है। और जब यह प्रार्थना सघन एवं घनीभूत हो क्रियान्वित हो उठती है तो आराधना बन जाती है। मीरा के जीवन में ऐसी ही प्रार्थना की आर्त पुकार उठी थी। उन्होंने भी अपना सर्वस्व खोया था और उन्होंने जीवन की असह्य प्रताड़ना झेली थी। पर इस क्रूर यातना एवं प्रबल तिरस्कार के बदले उन्होंने प्रभु के सिवा और कुछ भी पाने की कोई कामना नहीं थी। किसी से कोई अपेक्षा नहीं की थी। उनमें थी तो बस प्रभु के प्रति प्रबल पुकार, चिर अभीप्सा। इस प्रार्थना के प्रभाव से मीरा की अतृप्ति मिट गई।

जब अतृप्ति मिट जाती है तो कामना नहीं उठती, इच्छाएँ नहीं कसकती। यहाँ पर मौन प्रार्थना छलक उठती है और भजन बन जाती है। मीरा का अन्तर इसी प्रार्थना से भर गया था। भरा ही नहीं छलक गया था और वह नाच उठी थी, प्रभु के लिए गाने लगी थी। चैतन्य के अन्दर भी कामनाओं का उठता गुबार नहीं था प्रार्थना थी, भजन था। और यह ऐसे छलका कि वे नाचने लगे थे। रामकृष्ण परमहंस भी इसी तरह प्रभु प्रेम से छलकते-लबालब भरे संत थे। जिनके पास कामनाओं की आँधी आकर शाँत हो गई थी। गुरु गोविन्दसिंह ने कामनाओं का नहीं भावनाओं का गीत गाया था। इन सभी सन्तों की कामनाएँ प्रार्थनाओं में रूपांतरित हो गयी थी।

कामना जब परिष्कृत एवं पवित्र हो जाती है तो अन्तर की अतृप्ति मिट जाती है। व्यामोह की घटाएँ साफ हो जाती हैं, और अन्तर में सुखद तृप्ति का उदय होता है। सुख का सही अर्थ भी यही है कि जो अन्तर को तृप्त कर दे, शान्त एवं संतुष्ट कर दे। यहाँ पर कामना मिट जाती है, उसकी उफान थम जाता है। परन्तु दुःख की गहन अतृप्ति में अनेकों कामनाएँ जन्म लेती हैं। हालाँकि यह सत्य कम ही लोग जानते हैं कि दुःख का यथार्थ कारण प्रमाद नहीं सुख के क्षणों में अविवेक है।

अविवेक कहीं भी हो, वहीं निष्कामता छा जाती है। सुख एवं साधन से परिपूरित राजपुत्र महावीर, राजकुमार सिद्धार्थ में कामनाएँ मिट गयी थी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे, बुद्धों के चौबीस बुद्ध राजकुमार थे। प्रायः

हिन्दुओं के सभी अवतार राजपरिवारों से सम्बन्धित थे। उनमें भी कामनाएँ नहीं थीं। इसका कारण समृद्धि नहीं विवेक था। यही कारण है कि कामनाएँ तो जूता गाँठने वाले रैदास, कपड़ा बुनने वाले कबीरदास और प्रभुमय जीवन निर्वाह करने वाले अनगिन असंख्य संत महात्माओं में भी नहीं थी। क्योंकि अविवेक से ही अभाव और अतृप्ति की पीड़ा सताती है। और कामनाओं की आँधी उठती है।

कामना मिटे कैसे? अतृप्ति तृप्ति में कैसे बदले? यह ज्वलन्त प्रश्न है। ऋषियों-मनीषियों के अनुसार कामनाओं की निरर्थकता एवं व्यर्थता का बोध एवं अनुभव तभी हो सकता है जब अन्दर में ज्ञान का उदय हो। और ज्ञान का प्रादुर्भाव तभी होता है जब उच्चस्तरीय चेतना के लिए सतत अभीप्सा हो। इसी अभीप्सा की अग्नि में समस्त कामनाएँ भस्मीभूत हो जाती हैं, अतृप्ति मर जाती है, दुःख का नाश हो जाता है और प्रभु के दिव्य एवं मधुर स्पर्श का अनुभव होता है। अतः कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए प्रभु की अभीप्सा ही एक मात्र विकल्प है। प्रार्थनामय जीवन जीते हुए हमें उस परमात्मा की अभीप्सा करते रहना चाहिए।


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