आदि शंकराचार्य बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर छोड़ गए। अंतिम समय उनके सहयोगी भक्त आस−पास थे। वे दुःख प्रकट करने लगे, आप जैसों को जीवन लंबा मिलता तो हम सबका अधिक हित होता।
आचार्य शंकर गंभीर स्वर में बोले, मैं कम उम्र लेकर आया था, पर जीवन तो मैंने लंबा जिया है। सौ वर्ष में जितना कुछ किया जा सकता था, मैंने उससे कम नहीं किया है। तुम सब यही मानकर चलो। कम उम्र में जाने का दुःख मनाने की अपेक्षा शानदार लंबे जीवन का लाभ लोगों तक पहुँचाने का प्रयास करो।
भगवान बुद्ध के पास श्रेष्ठिपुत्र सुमंत और श्रमिक पुत्र तरुण ने एक साथ प्रव्रज्या ली। दोनों भिक्षु ने बतलाया, सुमंत तरुण की अपेक्षा स्वस्थ और अध्ययन की दृष्टि से अधिक आगे है भावना भी उसकी कम नहीं है, परंतु कार्यों की उपलब्धियाँ तरुण की सुमंत से श्रेष्ठ रहती हैं, यही कारण समझ में नहीं आता।
तथागत बोले, सुमंत अभी जंग लगा पुर्जा है, जंग छूटने में समय लगेगा। प्रधान भिक्षु प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते रह गए। भगवान ने स्पष्ट किया, उनका लंबा जीवन आलस्य−प्रमाद में बीता है, इससे मनुष्य मे जंग लग जाता है, ओर वो औजार जैसा हो जाता है। तरुण ऐसा औजार है जिसमें जंग नहीं है। इसीलिए तुरंत फल पा रहा है। सुमंत की पर्याप्त साधना जंग छुड़ाने में लग जाएगी, तब वह ठीक प्रकार से प्रयुक्त हो सकेगा।