सतत पुरुषार्थ से व्यक्तित्व को गढ़ा जा सकता है।

October 2002

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व्यक्तित्व हमारे अन्तर की आत्माभिव्यक्ति है। हम जैसे हैं, यह उसका प्रकटीकरण एवं प्रकाशन है। व्यक्तित्व वह प्रकाशपुँज है जिसका स्रोत हमारे अपने ही अन्दर विद्यमान है। आन्तरिक गुण ही व्यक्तित्व के रूप में प्रकाशित-प्रसारित होते हैं। अन्तःकरण जितना परिष्कृत होगा, भावनाएँ जितनी पावन होंगी तथा विचार जितने उत्कृष्ट होंगे व्यक्तित्व उतना ही प्रखर एवं ज्योतिर्मय होगा। अतः व्यक्तित्व का मापदण्ड फौलादी चरित्र, पैना एवं परिपक्व चिन्तन तथा भावपूर्ण व्यवहार के आधार पर तैयार होता है।

व्यक्ति का प्रखर व्यक्तित्व समाज के जनसंकुल में अलग दिखता है। यह उस प्रकाश स्तम्भ के समान होता है, जो स्वयं तो ज्योतित होता ही है। साथ ही जीवन समुद्र में चलने-बढ़ने वाली नौकाओं एवं जहाजों को अपने मंजिल तक पहुँचाने के लिए दिशा प्रदान करता है। यह एक ऐसी बेशकीमती अशेष सम्पदा है जो बहुतायत में -खर्चने पर भी चुकता, खर्चता एवं शेष नहीं होता है। यह अपनी दशा एवं दिशा का निर्धारण स्वयं करता है। यह स्वयं सत्पथ पर चलता है तथा अन्य अनेकों को इस ओर बढ़ने के लिए प्रेरणास्रोत बनता है।

उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति में असाधारण निर्णय क्षमता होती है। यह अच्छे-बुरे का सत्य-असत्य का श्रेय-प्रेय का भेद जानता है और सदा श्रेष्ठ का ही वरण करता है। इसके लिए वह हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहता है। इसलिए इसकी अपनी अनोखी मौलिकता होती है तथा उम्दा निरालापन होता है। आत्मबल, साहस एवं प्रखरता इसकी मौलिक विशेषता होती है। इसी तरह से विशेषज्ञों के अनुसार व्यक्तित्व उसे कहा जाता है जिसमें स्वतंत्र सत्ता, आत्म योग्यता, प्रभावोत्पादकता, श्रेष्ठता व उत्कृष्ट चरित्र व चिन्तन का समुचित एवं सुन्दर समावेश हो। और इसीलिए उसमें चुम्बकीय आकर्षण होता है, जादुई प्रभाव होता है।

व्यक्तित्व व्यक्ति के गुणों का ऐसा प्रकटीकरण है जो जन्मजात भी होता है और इसे अर्जित भी किया जा सकता है। जन्मजात व्यक्तित्व के धनी तो विरले ही होते हैं, जो जन्म से व्यक्तित्व सम्पन्न होते हैं। ऐसे व्यक्ति अति विलक्षण एवं विशेष प्रतिभा सम्पन्न होते हैं। इनके विचार एवं चिन्तन श्रेष्ठ होते हैं। विचारों में दिव्यत्व की आभा झलकती है। इनका हृदय भावनाओं एवं सम्वेदनाओं का आगार होता है। ये सभी से आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का बर्ताव करते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य ऐसे दिव्य व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने अपने तपस्वी व्यक्तित्व के बूते जन-जन की सुप्त चेतना को झकझोरा एवं निष्प्राण हृदयों में संवेदना का संचार किया। अपने इसी जन्मजात व्यक्तित्व के कारण ही विश्ववंद्य स्वामी विवेकानन्द, प्रत्येक विचारशील मस्तिष्क में नव्य वेदान्त की स्थापना कर सके। छत्रपति शिवाजी, चन्द्रशेखर आजाद, वीर भगतसिंह ऐसे जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व थे।

व्यक्तित्व के ये गुण जन्म से कम ही को मिलते हैं, अधिकतर तो स्वयं को तप की भट्टी में पकाकर, महान् पुरुषार्थ के द्वारा गढ़कर ही बनाना पड़ता है। वस्तुतः विरलों एवं अपवादों को छोड़कर देखा जाए तो ऐसे अनगिन व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को गढ़ा, संवारा एवं निखारा है। पाँच फुट दो इंच के कृशकाय एवं दुर्बल देह के गाँधी जी ने अपने व्यक्तित्व को गढ़ा था। और इनका व्यक्तित्व इतना प्रखर हुआ कि ब्रिटिश शासन का बड़े से बड़े अधिकारी भी उनके सामने आने से कतराता था, झिझकता था। कोई भी उनकी आँखों में आँख डालकर बात करने में घबड़ाता था। उनके व्यक्तित्व में इतनी उत्कृष्टता थी कि सारा भारत देश ने उनके चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। यह उनके अर्जित व्यक्तित्व का ही परिणाम था।

रूस के सन्त गुरजिएफ ने स्थायी व्यक्तित्व उसी को माना है जो स्वयं के द्वारा गढ़ा एवं निर्मित किया जाता है। जन्मजात सद्गुण सम्पन्न व्यक्तियों को भी अपने व्यक्तित्व को विकसित करना पड़ा है। क्योंकि यह तो विकास की एक सतत् एवं अनवरत प्रक्रिया है। अन्यथा पुलस्त्य जैसे श्रेष्ठ ऋषिकुल में पैदा होने वाला भी रावण दुष्ट-दुराचारी एवं आततायी न होता। वैसे तो रावण भी जन्मजात व्यक्तित्व सम्पन्न था परन्तु इसके दुरुपयोग से वह अपने दुर्लभ व्यक्तित्व को खो बैठा। वह अपने चरित्र एवं स्वभाव को अपने व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं रख सका और इसका कुपरिणाम सर्वविदित है। अतः स्थायी व्यक्तित्व सतत पुरुषार्थ के द्वारा ही बन पड़ता है।

व्यक्तित्व को गढ़ने एवं बनाने के लिए कई गुणों को विकसित करना पड़ता है। इसके निर्माण कार्य में कई कारक कार्य करते हैं। इसमें से एक है- स्वभाव। व्यक्तित्व निर्माण में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। यही व्यक्ति के आन्तरिक स्वरूप का श्रेष्ठ एवं सच्चा तत्त्व है। स्वभाव से ही कोई प्रिय या अप्रिय बनता है। इसी से श्रेय सम्मान या अपमान तिरस्कार का अच्छा-बुरा उपहार मिलता है। यही प्रशंसा एवं निन्दा का मुख्य कारक बनता है। अच्छे स्वभाव से जहाँ सबका दिल जीता जा सकता है वहीं बुरे स्वभाव से वंचना-लाँछना रूपी कालकूट पीने को मजबूर करता है। स्वभाव न केवल औरों को प्रभावित करता है बल्कि अपनी मानसिक बनावट एवं बुनावट का भी कारण बनता है।

मनोविज्ञानी ऐरिक फ्रॉम के अनुसार जब कोई गहरा मनोभाव या विचार स्वभाव में स्थायी रेखा खिंच देता है, गहरा प्रभाव छोड़ देता है तो उसके स्थायी लक्षण शरीर और उसकी गतिविधियों पर भी दिखाई देने लगते हैं। फ्रेन वॉन के अनुसार हमारा अपना स्वभाव ही है जो अपनी शारीरिक संरचना तथा इसके व्यवहारों में प्रतिबिम्बित होता है। इस संदर्भ में एक सुन्दर घटना है। एक बार एक विशेषज्ञ ने सुकरात को देखकर कहा था कि ये सज्जन विषयी, मूढ़ और आलसी वृत्ति के जान पड़ते हैं। सुनने वाला सुकरात के व्यक्तित्व एवं स्वभाव से नजदीकी से परिचित था अतः उसने इस मन्तव्य को सिरे से नकार दिया। परन्तु पास खड़े सत्य के पुजारी सुकरात ने इस कथन की सत्यता को स्वीकार किया और कहा- ‘यह मेरा जन्मजात स्वभाव का लक्षण है। परन्तु यह भी सत्य है कि इसे मैंने तप एवं ज्ञान रूपी पुरुषार्थ तथा प्रभु की अनन्त कृपा से परिवर्तित कर दिया है, आमूलचूल बदल दिया है।’ अतः सुकरात के उन्नत एवं सुसंस्कारित स्वभाव ने उनके व्यक्तित्व को ढालने एवं बदलने में अनोखा योगदान दिया।

व्यक्तित्व का निखार आता है उसके गुण और चरित्र से। व्यक्ति गुणों से गुणी एवं गणमान्य होता है। गुणों का विकास आत्मसाधना से होता है जबकि चरित्र निर्माण समाजिक आराधना में ही सम्भव है। इन दोनों तत्त्वों के समुचित विकास से ही व्यक्तित्व निखरता है। गुणवान एवं चरित्रवान व्यक्ति भले ही नाम, रूप, जाति, कुल से श्रेष्ठ न हो पर वह इन विशेषताओं के कारण लोकमान्य बनता है, प्रतिष्ठित होता है तथा श्रेय-सम्मान का अधिकारी बनता है। निम्न कुल-जाति की माने जाने वाले मत्स्यगंधा पुत्र व्यास जी ने अपनी प्रचण्ड तपस्या एवं गहन साधना के द्वारा गुण एवं चरित्र का विकास कर अपने व्यक्तित्व को समुज्ज्वल बनाया था। इनका व्यक्तित्व इतना महान् था कि उन्हें कोई उनके जाति-कुल-गोत्र आदि के बारे में नहीं पूछता, बल्कि प्रखर व्यक्तित्व के सामने माथा नवाता है।

व्यक्तित्व ऐसा दिव्य प्रकाश है जिसके मूल में उत्कृष्ट चिन्तन एवं सजल संवेदना होती है, विचारों की आलौकिक आभा इसमें झलकती है। जैसे विचार होंगे वैसा ही व्यक्तित्व होगा। उत्कृष्ट चिन्तन व्यक्तित्व को प्रखर बनाता है। सरस भावनाएँ एवं संवेदनाएँ इसे भावपूर्ण बनाती हैं। जीवन साधना के सूत्रों को अपनाकर ऐसा करने से रूखा, नीरस, शुष्क व्यक्तित्व भी उस सरिता के समान प्रवाहित हो उठता है जिसमें अत्यन्त प्रभावकारी तीव्र जीवनधारा के साथ किनारों को चूमती-छूती लहरों की अटखेलियाँ भी होती हैं।

उदात्त व्यवहार व्यक्तित्व का प्राण है। शेष सभी कारक तो व्यक्तित्व के कलेवर को गढ़ते हैं उसके ढाँचे को खड़ा करते हैं, परन्तु इस ढाँचे का कलेवर में कोई प्राण फूँकता है तो वह है व्यवहार। भावपूर्ण व्यवहार से व्यक्तित्व जीवन्त होता है, उसमें नई-नई कोपलें फूटती हैं और प्रसून खिलते हैं। अतः व्यक्तित्व को प्रखर, ओजस्वी, तेजस्वी बनाने के लिए आवश्यक है चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार में बदलाव एवं परिवर्तन। इसमें श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का समावेश करके ही उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सम्पन्न बना जा सकता है।


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