भय है कायरता की प्रतिकृति

October 2002

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अकड़न की बीमारी जब शुरू होती है, तो सारे शरीर को बुरी तरह जकड़ लेती है, अंग सीधे नहीं होते, चलना उठना कठिन हो जाता है, रक्त ठंडा पड़ जाता है और दिमाग सोचना बंद कर देता है, चाहने पर भी शरीर कुछ काम नहीं करता। यह लक्षण अन्य बीमारियों के भी हो सकते हैं, पर सर्वसाधारण में तो इनका प्रकटीकरण ‘भय’ के दौरान ही होता है। सिंह को देखकर हिरन चौकड़ी भरना भूल जाते हैं और किंकर्त्तव्यविमूढ़ की−सी स्थिति में पड़े रहकर बे−मौत मारे जाते हैं। यही दशा मनुष्यों में तब पैदा हो जाती है, जब कोई अप्रत्याशित संकट सामने आ खड़ा होता है, फिर तो उससे कुछ भी सोचते नहीं बन पड़ता, हाथ−पाँव फैलने लगते हैं और जो नहीं घटने चाहिए, वह सब घटित हो जाते हैं। मूर्द्धन्य मनीषी जे. कृष्णमूर्ति अपनी कृति प्रथम और अंतिम मुक्ति में लिखते हैं कि जैसा कि भय के बारे में सोचा और समझा जाता है, वास्तविकता वैसी है नहीं। डर हमेशा ज्ञात के प्रति ही हो। सकता है, अविज्ञात के प्रति भय बनने का कोई कारण नहीं। जहाँ ऐसा प्रतीत होता है, वहाँ समझने में भूल हो जाती है। वे कहते हैं कि आम धारण में मृत्यु को भयकारक माना जाता है, पर वह सच नहीं है, कारण कि साधारण स्थिति में न तो मौत को जाना सकता है, न उसकी अनुभूति की जा सकती है। जिसे देखा नहीं, जिसकी भयंकरता समझी नहीं, भला उससे डर कैसा। त्रास के यथार्थ कारण का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि संकट व्यक्ति को उस विलगाव में दिखलाई पड़ता है, जहाँ वह अपने प्रिय कुटुँबियों, वस्तुओं, संपदाओं, भोगों से स्थायी पृथकता की कल्पना करता है। अलग हो जाने की यही धारणा भय का वास्तविक कारण है।

कोई भूत, जिसके बारे में बालक ने कुछ सुना नहीं, कभी देखा नहीं, वह यदि अचानक उसके सामने प्रकट हो जाए, तो इतना निश्चित है कि वह उसे देखकर भागेगा नहीं, वरन् और प्रसन्न होगा कि एकाँत और सुनसान राह पार करने के लिए एक साथी मिल गया। यह अज्ञानताजन्य निर्भयता है।

दूसरी ओर धर्मभीरु लोग ईश्वर से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें उसकी कर्मफल व्यवस्था और दंड विधान का पता होता है और ऐसा प्रयास करते हैं, जिससे जीवन में कोई अनैतिक कर्म न बन पड़े, जिसका दंड आने वाले समय में, आगामी जीवन में भीषण त्रास की तरह न झेलना पड़े।

इसके विपरीत ऐसे भी लोगों की कमी नहीं, जो भयंकरता का ज्ञान होते हुए भी भयकारक वस्तुओं, प्राणियों, परिस्थितियों से आँखमिचौली खेलते रहते हैं। सपेरे रोज ही काले विषधर नाग पकड़ते हैं। शिकारी शेर, बाघ का शिकार करते ही रहते हैं। उन्हें वे तनिक भी डरावने नहीं लगते, अपितु उन्हें ढूँढ़ने रहते हैं और मिल जाने पर प्रसन्न होते हैं, जब कि अजनबी व्यक्ति को शेर−साँप की तस्वीर देखने और चर्चा सुनने भर से पसीना छूटता है।

संसार में करतबबाजों की चर्चा दुस्साहसियों के रूप में होती है। उनमें ऐसे कार्यों के प्रति सनक स्तर की धुन सवार होती है, जिसे देखकर लोग हैरान हों और चकित रह जाएँ। दो पहाड़ की चोटियों के बीच की खाई को रस्सियों के सहारे पार करने का कौशल दिखाना, दो गगनचुँबी इमारतों को परस्पर बाँधकर रस्सी के सहारे एक−से−दूसरे में जाने का दुस्साहसिक प्रदर्शन करना, उड़ते वायुयान से छलाँग लगाकर पैराटुपिंग का आनंद लेना, इसके अतिरिक्त आइस स्केटिंग माउंटेनियरिंग, ग्लाइडिंग यह सभी खतरनाक खेल हैं, पर तत्संबंधी लोगों के लिए तो यह सामान्य−सी बात है, यह उनका आएदिन का खिलवाड़ है। इनमें उन्हें तनिक भी भय नहीं लगता। नट अपनी विद्या में चाहे जितना कुशल हो, पर रस्सी के ऊपर चलते समय संतुलन बिगड़ जाने और गिर पड़ने का एक ही परिणाम होता है, मौत, किंतु ऐसा करते समय वह बिलकुल भयभीत नहीं दीखता। सर्कस में अनेक प्रकार के प्रदर्शन होते हैं। सब एक−से−एक बढ़कर खतरनाक । इसके बावजूद दुनिया में सर्कस कंपनियों का अब भी अस्तित्व है, वे भयवश बंद नहीं हुई हैं। मौत का कुआँ उसका एक जोखिम भरा प्रदर्शन है। आयोजन के पश्चात् खेल दिखाने वाला व्यक्ति जीवित रहेगा भी यह नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। इतने पर भी सर्कस में यह खेल आयोजित होते ही रहते हैं।

इन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि भय मानसिक होता है और अंतः को मजबूत बनाकर उस पर विजया प्राप्त की जा सकती है। मन यदि सशक्त हो, तो वास्तविक डर भी बौना लगता है। इसके विपरीत मन के कमजोर रहने पर बार−बात पर आशंका होती है, डर महसूस होता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो अगल−बगल में, अड़ोस−पड़ोस में सर्वत्र उसके विरुद्ध दुरभिसंधियाँ रची जा रही हों, कुचक्र चल रहे हों। लोग अवसर की तलाश में हों कि कब मौका आए और उसे धर दबोचा जाए। इस तरह की मानसिक कुकल्पनाओं से व्यक्ति की आंतरिक संरचना इतनी लड़खड़ा जाती है कि उसे हर वक्त, हर जगह और हर व्यक्ति तथा वस्तु से डर लगने लगता है, उनमें से प्रत्येक में उसे एक प्रच्छन्न भय नजर आने लगता है। इस स्थिति पर यदि जल्द ही काबू नहीं, पाया गया, तो यही भय ‘फोबिया’ का रूप धारण कर आदमी की सुखमय जिंदगी को नरकतुल्य बना देता है। इसे ही कहते हैं−हँसते−खेलते जीवन की शाँति अपने ही हाथों छीन लेना।

भय वस्तुतः कायरता की प्रतिकृति है। भीरु मनुष्य की आँतरिक दुर्बलता इस संसार−दर्पण में विपत्ति बनकर दीखती है। संकट का सामना करने की, उससे उलझने−निपटने की क्षमता अपने में नहीं है, ऐसा मान लेने के बाद ही डर आरंभ होता है। जिसे यह विश्वास है कि कठिन परिस्थितियों का सूझ−बूझ के साथ मुकाबला करेंगे, उन्हें हटाने−मिटाने के लिए जूझेंगे। इसके लिए आवश्यक समझ और बल अपने पास है। मित्र और ईश्वर भी साथ देंगे। इस प्रकार की हिम्मत यदि अपने में मौजूद हो, तो काल्पनिक डरों से छुटकारा मिल जाता है और मन का अधिकाँश बोझ हो जाता है।

विख्यात हंगेरियन मनोवैज्ञानिक फरेंज नैडेस्डी ने अपनी पुस्तक ‘फियर ओर फ्रीडम’ में भय का एक अन्य कारण गिनाते हुए लिखा है कि डर वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ एक विशेष प्रकार के ढाँचे में जीने की इच्छा होती है, एक विशेष प्रकार के जीवन की चाह होती है। इस ढाँचे को, चाह को त्याग कर व्यक्ति कुछ समय के लिए भय मुक्त हो सकता है, पर ऐसा तभी है, जब वह इस सत्य को भलीभाँति जान ले कि उक्त आकाँक्षा की भय का कारण है और भय उस आकाँक्षा को मजबूत कर रहा है। वे कहते हैं कि किसी एक ढाँचे को तोड़ देने मात्र से ही कोई पूर्णतः भयमुक्त नहीं हो सकता। इससे इतना ही अंतर पड़ सकता है कि हम एक शैली को छोड़कर किसी दूसरी जीवन शैली में प्रवेश कर जाएँगे। वह दूसरे प्रकार का भय उत्पन्न करेगी। इसे भी यदि तोड़ा गया, तो किसी तीसरी जीवन शैली के हम अधीन हो जाएँगे। वह पुनः अपने तरह का डर पैदा करेगी। तथ्य यह कि इस प्रकार किया गया कोई भी प्रयास, जो ढाँचा तोड़ने की प्रवृत्ति पर आधारित हो, केवल एक दूसरी प्रणाली उत्पन्न करेगा और भय का कारण बनेगा। अंततः वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वास्तविक शाँति और भयमुक्ति तभी संभव है, जब मूल निमित्त अपने अंतर को, मन को बलवान बनाया जाए।

अनैतिकता को भी भीरुता का एक कारण माना जाता है। जिसकी अंतरात्मा कलुषित और पाप कर्म से लिप्त है, वह कभी चैन की नींद न सो सकेगा। चोर, डकैत, आततायी, व्यभिचारी, राजद्रोही कभी भी निश्चिंत नहीं होते। उन्हें हमेशा ही अपने करतूतों की पोल खुलने, बदनामी होने, पकड़े जाने का भय बना ही रहता है। वे सदा ही समाज दंड, राजदंड, ईश्वरीय दंड से भयभीत बने रहते हैं। आत्मा पर लदने वाला अनीति का बोझ निरंतर उन्हें कचोटता रहता है। बाहर वाले दंड मिलने में तो देर−सवेर भी हो सकती हैं, पर आत्मदंड तो कुमार्ग पर कदम धरते ही मिलना आरंभ हो जाता है और वह बराबर दुःख देता रहता है।

ब्रिटिश मनः शास्त्री रिचर्ड गार्नेट अपने ग्रंथ ‘साइकोलॉजी ऑफ फियर में लिखते हैं कि शारीरिक कष्ट एक स्नायुगत अनुक्रिया है पर मानसिक कष्ट तब उत्पन्न होता है, जब व्यक्ति का किसी वस्तु से गहनतम तादात्म्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में वस्तु से उसकी निकटता, उसका लगाव शाँति और संतोषदायक होता है, क्योंकि तब वह उस व्यक्ति या वस्तु से भयभीत रहता है, जो उन वस्तुओं को उससे अलग कर सकते हैं। वे कहते हैं कि जब तक मनोवैज्ञानिक कष्ट को रोकते हैं।

मनुष्य की विडंबना यह है कि जिसका वास्तव में भय करना चाहिए, उससे वह निडर स्तर का बना रहता है और जहाँ भय का कोई कारण नहीं, वहाँ डरता रहता है। उसे पाप से डरना चाहिए, कर्मफल से डरना चाहिए, ईश्वरीय न्याय से डरना चाहिए, इनसे वह भयभीत होने की आवश्यकता नहीं समझता। चोरी करते हुए, भोले लोगों को ठगते हुए, छल−प्रपंच रचते हुए, षड्यंत्र अपनाते हुए, चुगली, नशेबाजी, व्यभिचार, बेईमानी, असत्य भाषण, मिथ्या प्रलाप करते हुए कौन डरता है? डरते हैं भूत−पलीतों से, मानसिक कुकल्पनाओं से, प्रतिकूल परिस्थितियों से, कठिनाइयों से, उलझनों से, जबकि सचाई यह है कि इनसे डरने का कोई कारण नहीं। हमें मन में यह विचार दृढ़तापूर्वक धारण कर लेना चाहिए कि जीवन में आने वाली हर प्रिय−अप्रिय स्थिति का डटकर मुकाबला करेंगे और किसी भी परिस्थिति में मन को कमजोर न होने देंगे। यह संकल्प यदि अंतर में दृढ़ हो गया, तो समझना चाहिए कि जीवन की आधी मुसीबतें समाप्त हो गई। फिर भय के कारण जीवन घोर नरक न बनकर स्वर्ग−सुख देने वाला माध्यम साबित होगा।


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