जीवन शैली से उपजे मनोविकास व उनका समाधान

October 2002

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आधुनिक युग की त्रुटिपूर्ण जीवनशैली के कारण जहाँ शारीरिक रोगों की बाढ़ सी आ गई है। वहीं मानसिक रोगों की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय मानसिक कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय तीन करोड़ मानसिक रोगों से पीड़ित हैं। शारीरिक रोगों के लिए जहाँ व्यापक एवं पर्याप्त चिकित्सीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। मनोरोगियों के साथ इस संदर्भ में यथोचित न्याय नहीं हो पाता। एक तो मन के रोग सूक्ष्म होते हैं, जो सामान्यतः पकड़ में नहीं आते, दूसरे प्रचलित अंधविश्वासों एवं मूढ़मान्यताओं के कारण इनके प्रति सामाजिक रवैया सहानुभूतिपूर्ण नहीं होता। मनोरोगी को उसकी असामान्यता के अनुरूप सनकी, पागल, शेखचिल्ली, शंकालु आदि संबोधनों से उपहासित, लाँछित एवं प्रताड़ित किया जाता है। रोगी नारकीय यंत्रणा से होकर गुजरता है। जब समाज के साथ उसके अपने परिवारजन भी उससे अमानवीय व्यवहार करते हैं तो जीते जी रोगी प्राणान्तक कष्ट से छटपटाता रहता है। साथ ही अपनत्त्व, संवेदना एवं प्यार की एक बूँद के लिए तरसता रहता है।

मनीषियों के इस काम में चिंता मन में उठने वाली एक सामान्य वृत्ति है, जिसमें व्याकुलता, भय एवं व्यग्रता का समावेश रहता है। यह शरीर व मन को चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए सचेत व एकाग्र करती है। लेकिन यही चिंता अपने बढ़े हुए रूप में ‘एंग्जायटी’ या दुश्चिंता का रूप ले लेती है व सामान्य जीवन को दुभर कर देती है।

दुश्चिंता का प्रमुख लक्षण अस्वाभाविक एवं निर्मूल चिंता है। मन तनावग्रस्त हो उठता है व बेमतलब शंकाओं से घिर जाता है। मन किसी एक जगह पर एकाग्र नहीं हो पाता। उलझन, बेचैनी, चिड़चिड़ाहट, घबराहट, छोटी-छोटी बातों में गुस्सा, भविष्य को लेकर काल्पनिक चिंताएँ व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगती हैं। दुश्चिंता में दिल की धड़कन तेज हो जाती है। साँस तेजी से चलने लगती है। नब्ज़ गति तेज हो जाती है, ब्लडप्रेशर घटता-बढ़ता रहता है। माँसपेशियों में तनाव, हाथ पैर का कंपन हथेलियों व माथे से पसीना चूने लगता है। जरा सी आहट से नींद चली जाती है। भूख कम हो जाती है। स्त्रियों में मासिक धर्म गड़बड़ा जाता है। रोगी का स्वास्थ्य बिगड़ता जाता है।

चिंता की तरह उदासी भी मन की एक अवस्था है। जीवन के कठिन क्षणों, दुर्घटनाओं व दुःख-कष्टों में व्यक्ति का उदास होना स्वाभाविक है। लेकिन जब जीवन के चारों ओर उदासी का अंधेरा इतना सघन छा जाता है कि जीवन की दिशा, उत्साह व उमंग समाप्त हो जाते हैं व जीवन भारभूत लगने लगता है। व्यक्ति नकारात्मक सोच से ग्रसित हो जाता है। उसे अपना भूत, वर्तमान एवं भविष्य सभी कुछ बेकार सा लगता है, तो यह अवसाद अर्थात् डिप्रेशन रोग का शिकार बन जाता है। अपनी चरमावस्था में रोगी आत्महत्या तक कर सकता है।

नकारात्मक सोच व उदासी के साथ सुस्ती व कमजोरी की शिकायत रहती है। व्यक्ति जल्दी थक जाता है। कब्ज या दस्त की शिकायत रहती है। सर में भारीपन या दर्द की शिकायत रहती है। काम में मन नहीं लगता है। भार में लगातार कमी होती है। अन्य लक्षणों में अकारण घबराना, बातचीत न करने का मन, बिना कारण रोने की इच्छा, नींद न आना, नींद आने पर बुरे-बुरे स्वप्न आना, दिमाग में कंपकंपी व झनझनाहट आदि प्रमुख है। इस दशा में व्यक्ति चाय, कॉफी, सिगरेट व अन्य नशों की अधिक आवश्यकता महसूस करता है।

अवसाद परिस्थितिजन्य कारकों के अतिरिक्त, यह जैव रसायनों के असंतुलन से भी हो सकता है। इसमें मस्तिष्क के जैव रसायन ‘सेरोटॉनिन’ की कमी के कारण व्यक्ति अवसाद में चला जाता है। इसके अतिरिक्त नशीले पदार्थ, शराब, कुछ शारीरिक रोग व कुछ दवाइयाँ भी न्यूरोट्रांसमीटर में कमी लाकर अवसाद पैदा कर लेती है।

न्यूरोट्रांसमीटर सेरोटॉनिन की कमी के कारण जहाँ व्यक्ति अवसाद के घने कुहासे से घिर जाता है। वहीं इसके बढ़ने पर, इसका दूसरा सिरा मैनिया के रूप में परिलक्षित होता है। इसमें रोगी अति उत्साह में आ जाता है व सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। रोगी स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझने लगता है। कभी स्वयं को राजा, मंत्री तक मानने लगता है। ऐसा रोगी हर समय काम में लगा रहता है व काम में बहुत जल्दबाजी करता है। रोगी को नींद कम आती है व भूख अधिक लगती है। न्यूरोट्रांसमीटर के उतार-चढ़ाव के अनुरूप रोगी को कभी अवसाद तो कभी अति उत्साह के दौरे पड़ते रहते हैं। मूड की गड़बड़ी के इस विकार को ‘मेनिक डिप्रेसिव साइकोसिस’ का रोग कहते हैं।

मानसिक रोगों में सबसे प्रचलित अवस्था ‘सीजोफ्रेनिया’ रोग की है, जिसे विभक्त मानसिकता भी कहा जाता है। इसमें व्यक्ति का नाता वास्तविकता की दुनिया से टूट जाता है। वह स्वप्न व कल्पना की दुनिया में विचरण करता है। इस रोग के मूल लक्षण ‘इल्यूजन’ व ‘हेल्यूसिनेशंस’ है।

‘इल्यूजन’ में रोगी को तरह-तरह के मिथ्या आभास होने लगते हैं। सामने कुछ है पर रोगी को कुछ और दिखाई देता है। ‘हेल्यूसिनेशंस’ में रोगी को विचित्र अनुभव होते हैं। इसमें उसे तरह-तरह की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, लगता है कि कोई उससे बात कर रहा है या डरा, धमका रहा है। कभी लगता है कि मन में उठने वाले विचारों को कोई ऊँची आवाज में कह रहा है। आँखों के आगे विचित्र दृश्य घूमने लगते हैं। कभी उसे लगता है कि सारी दुनिया उसके खिलाफ है, लोग उसे मारने का प्रयास कर रहे हैं। रोगी के हाव-भाव विसंगत हो जाते हैं। कभी जोरों से हँसने लगते हैं तो कभी रोने, कभी-कभी अलौकिक सुख भी अनुभव करते हैं कि समूचे ब्रह्मांड से एकाकार हो रहे हैं।

काफी हद तक यह अनुवाँशिक रोग है। यह मस्तिष्क में ‘डोपामीन’ जैव रसायन की अधिकता के कारण होता है। बचपन के कटु अनुभव, पारिवारिक व सामाजिक स्थिति में लम्बे बाहरी तनाव के कारण भी इसकी संभावना अधिक रहती है।

हिस्टेरिया (मूर्छावायु) अवचेतन मन की गहराइयों से जुड़ा रोग है। इसमें विक्षिप्त मानसिकता के साथ मूर्छा, लकवा, संज्ञाशून्यता आदि लक्षण भी पाए जाते हैं। इसमें रोगी को अचानक बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं, शरीर में ऐंठन आ जाती है, हाथ-पैर तुड़ने-मुड़ने लगते हैं, साँस तेजी से चलने लगती है, आवाज एकाएक गुम हो जाती है, सुनना-दिखना बन्द हो जाता है या शरीर के किसी भाग को लकवा मार जाता है। मन का ज्वार शाँत होते ही रोगी इन लक्षणों से मुक्त हो जाता है। ये दौरे बार-बार पड़ते रहते हैं।

इसके कारण के संदर्भ में आज मनःविशेषज्ञों का मानना है कि यह मूलतः अवचेतन मन में चल रहे अंतर्द्वन्द्व, क्लेश, व्यथा एवं दमित भावनाओं का परिणाम है। जब यह आँतरिक संघर्ष एवं भड़ास अपनी अभिव्यक्ति का उचित मार्ग नहीं खोज पाती तो अवचेतन की ये कुँठाएँ और भावनाएँ शरीर के माध्यम से फूट पड़ती है। इससे रोगी भीतरी दबाव से राहत महसूस करता है। साथ ही इसके परिवारजनों का ध्यान उस पर केन्द्रित हो जाता है व उनके सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार का पात्र बनता है। परिवारजनों के अतिरिक्त चिकित्सक व अन्य परिजनों की ओर से ही हमदर्दी मिलती है। इससे रोगी के अवचेतन मन को सुख व संतोष मिलता है।

मानसिक रोगों में एक रोग है ऑवसेशन या सनका का। इसके अंतर्गत व्यक्ति के अंदर तरह-तरह की सनकें पनपने लगती हैं। व्यक्ति का मन पूरी तरह संदेह व अनिश्चय से भरा होता है। इसमें रोगी हमेशा एक ही बात सोचता रहता है अतः एक ही क्रिया दुहराता रहता है। बार-बार हाथ धोना, घर से निकलते समय बार-बार ताला ठीक बंद होने की तसल्ली करना, घर में सफाई एवं सुव्यवस्था की स्थिति बनाए रखने की आदत का सनक की हद तक पहुँचना आदि इसमें शामिल है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसकी जड़ें जीवन के कष्टप्रद अनुभवों में ढूंढ़ी जा सकती है। मन में उन क्षणों की छवि स्मृतिपटल पर गहरी अंकित रहती है। लेकिन मन उन्हें भूला देना चाहता है। इससे घटना तो गौण हो जाती है, पर जुड़ी भावनाएँ शाँत नहीं होती, जो आगे चलकर अवचेतन में ‘ऑवशेसन’ का रूप लेती हैं। इसका जैविक कारण मस्तिष्क में सिरोटानन नामक रसायन की कमी बतायी जाती है। जिसके कारण रोगी के व्यक्तित्व में असंतुलन पैदा हो जाता है।

इसी भाँति भय एक सामान्य एवं स्वाभाविक अनुभूति है। लेकिन कुछ लोगों में अकारण ही किसी वस्तु या स्थिति से भय का आतंक छा जाता है। मनोरोग की स्थिति तक पहुँचे इस भय को ‘फोबिया या विभीति’ कहते हैं। यह कई तरह का होता है। सर्वसाधारण विभीति,

एगोराफोबिया है, जो 60' रोगियों में पाया जाता है। इसमें रोगी के लिए बाजार, गली, कूचों में निकलना कठिन हो जाता है। वह घर में ही कैद होकर रहना चाहता है। क्लौस्ट्रो फोबिया में बंद जगहों को लेकर भय रहता है। लिफ्ट, बस, ट्रेन या सिनेमाघरों जैसी जगहों पर अजीब सी बेचैनी व घुटन महसूस होती है। कुछ अन्य फोबिया है, एंक्रोफोबिया (ऊँचाई का), साइनोफोबिया (कुत्तों का), पायरोफोबिया (अजनबी का), एंथ्रोफोबिया (लोगों का) एक्वाफोबिया (पानी का) जीफायरो फोबिया (पुल का), फोनोफोबिया (ऊँची ध्वनि का), एयरेफोबिया (हवाई उड़ान), एमेक्सोफोबिया (यातायात, वाहन और ड्राइविंग का)।

फोबिया रोगी के हृदय जोरों से धड़कने लगता है। साँस तेजी से चलने लगती है, हाथ-पैर काँपने लगते हैं। मुंह सूख जाता है और भय के मारे पसीना छूटने लगता है। अपने ऊपर वश नहीं रहता, बुद्धि-विवेक पंगु हो जाते हैं। और भय छा जाता है। रोगी ऐसी परिस्थिति, वस्तु या व्यक्ति से अलग होकर ही चैन पाता है।

मनोविशेषज्ञ इसके लिए अवचेतन मन की अहम् भूमिका मानते हैं। अमेरिकी मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. थामस उहड़े के अनुसार इसका कारण कुछ भी हो सकता है, शुरुआत, प्रायः किसी तनाव के कारण होती है। परिवार में किसी तरह का हादसा, गम्भीर बीमारी, किसी प्रियजन की मृत्यु, कोई अप्रिय घटना जैसी तनावजन्य परिस्थितियाँ फोबिया की नींव डाल सकती है। इसके वंशानुगत कारण भी हो सकते हैं।

मानसिक रोगों की सही पहचान न होने के कारण व प्रचलित भ्रान्तियों के कारण मनोरोगी भयंकर त्रासदी से गुजरता है। कई तो सड़कों के किनारे अर्धविक्षिप्त अवस्था में पड़े घोर उपेक्षा, तिरस्कार एवं उपहास के शिकार बनते हैं। सिजोफ्रेनिया, मेनियक डिप्रेशन व मस्तिष्कीय विकार के रोगी को दृष्टि व ध्वनि का भ्रम होता है व उन्हें विचित्र दृश्य एवं ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है, जिसे लोग भूत-प्रेत का प्रकोप मान बैठते हैं। उसे उतारने के लिए झाड़-फूँक से लेकर जंजीरों में जकड़कर कमरों में बन्द रखा जाता है। और अमानवीय व्यवहार किया जाता है। इन भ्रान्तियों का प्रचलन जहाँ बहुधा ग्रामीण क्षेत्रों में है, वहीं शहर के भी अधिकाँश लोग इसके शिकार है।

आज मनोरोगों पर व्यापक शोध हो रहा है। वे अंधविश्वास एवं भ्रान्तियों के दायरे से बाहरी आ चुके हैं। इनमें किसी का कारण जैव रसायनों का असंतुलन है तो कुछ अनुवाँशिक कारणों से है। कुछ में पारिवारिक एवं रासायनिक परिवेशगत कारण है, तो कुछ जीवन की विषम परिस्थितियों से उपजी अवचेतन कुण्ठाएँ एवं द्वंद्व। हालाँकि आज इन रोगों की चिकित्सा की व्यवस्था हो रही है। जहाँ सामान्य से लेकर गम्भीर मानसिक रोगों का उपचार किया जाता है। किन्तु मनोरोगियों की बढ़ती संख्या के हिसाब से उपलब्ध सेवा नगण्य सी है। मात्र 10' मनःरोगी ही चिकित्सीय सुविधा का लाभ ले पाते हैं। यह भी अभी शहरों तक ही सीमित है।

इन मनोरोगियों के उपचार में जहाँ मनःविशेषज्ञों एवं चिकित्सकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वहीं सबसे महत्त्वपूर्ण है, रोगियों के प्रति संवेदना एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार। इसमें परिवारजनों की प्राथमिक भूमिका रहती है कि बहे रोगी की दैनन्दिन आवश्यकताओं से लेकर भावनात्मक पुष्टि का सरंजाम जुटाएँ। रोगी परिवारजनों से उदार एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है, जो उसके उपचार को सरल बना देता है। इस काम में रोगी को छोटे एवं हल्के फुल्के काम दिए जा सकते हैं, छोटी-छोटी बातों में उसकी प्रशंसा करें, कभी आलोचना न करें, किसी तरह का दबाव न डालें, न ही अत्यधिक उपेक्षा करें। धीरे-धीरे उसमें आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का भाव जाग्रत् करें। उज्ज्वल भविष्य के प्रति प्रोत्साहित करें। रोगी की सीमा व कमजोरियों को समझते हुए उससे असंभव की आशा-अपेक्षा न करें। इस तरह मनोरोग की नारकीय यंत्रणा से गुजर रहे रोगी के उपचार एवं सुधार में परिवारजनों का सहानुभूतिपूर्ण एवं संवेदनशील व्यवहार संजीवनी औषधि का काम करता है, जिसे उपलब्ध करवाना हर विचारशील मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है।


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