तनाव का सृजनात्मक समाधान

October 2002

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निश्चिंत एवं शान्तिपूर्ण जीवन की चाहत सभी को रहती है। परन्तु कई तरह की कोशिशों के बावजूद विरले ही इसे उपलब्ध कर पाते हैं। ज्यादातर के पल्ले चिन्ता एवं तनावजन्य उलझनें ही पड़ती हैं। उन्हें कुण्ठा, निराशा, हताशा एवं विषाद के बीच उलझते, फँसते हुए ही जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। यह स्थिति धरती के किसी एक कोने तक सिमटी न रहकर समूची वसुधा-वसुन्धरा में व्याप्त है। मनुष्य की इस विपन्न भावदशा से चिन्तित विशेषज्ञों एवं वरिष्ठों ने इसी कारण वर्तमान युग को ‘द ऐज़ ऑफ एंग्जायटी’ या दुश्चिन्ता का युग कहा है। हालाँकि उनके अनुसार यह मानव के लिए चुनौतीपूर्ण सुअवसर भी है। जिसे स्वीकार करके अपने अस्तित्त्व की गहराई में प्रवेश किया जा सकता है। और जीवन के अनेकों विकट प्रश्नों के समाधान खोजे एवं पाए जा सकते हैं।

इस सम्बन्ध में प्रख्यात् मनोवैज्ञानिक रोलो में काफी उत्कृष्ट प्रयास किए हैं। साथ ही उन्होंने अपने इन शोध-प्रयोगों को ‘मैज सर्च फॉर हिमसेल्फ’ नाम के ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित भी किया है। इस ग्रन्थ को मानवीय दुश्चिन्ता की समस्या के रहस्यों को अनावृत्त करने वाला महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी कहा जा सकता है। इसमें रोलो में का कहना है कि किसी भी रूप में दुश्चिन्ता की समस्या से पलायन करना या इसे युक्तिसंगत ठहराना इस व्याधि को और अधिक गम्भीर बनाने की कुचेष्टा है। उनके अनुसार इसका साहसपूर्ण सामना करना ही एकमात्र विकल्प है। रोलो में के शब्दों में अनेकों तरह की भ्रान्तियों के कारण सभी इससे बचने और भागने की कोशिश करते रहते हैं। और इसके परिणाम स्वरूप समस्या पहले की बजाय कहीं ज्यादा जटिल एवं जीर्ण होती जाती है।

अपने अनुसन्धान के निष्कर्ष के रूप में रोलो में आज के बढ़ते तनाव एवं व्यापक होती जा रही दुश्चिन्ता का मुख्य कारण जीवन मूल्यों के क्षरण को मानते हैं। उनका कहना है कि इस क्षरण के कारण इन्सान अन्दर ही अन्दर खोखला हो चुका है। जीवन के उच्चतर मूल्यों के अभाव के कारण उसकी आन्तरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है। यही वजह है कि सामान्य क्रम में भी आने वाली थोड़ी सी जटिल परिस्थितियाँ उसे चिन्तित और परेशान कर डालती हैं। वह दुश्चिन्ता के भंवर में फँसकर छटपटाने लगता है। मूल्यों को परिभाषित करते हुए रोलो में कहते हैं कि वास्तविक जीवन मूल्य अन्तः प्रेरित होते हैं और ये जिन्दगी के सद्गुणों के रूप में पनपते व विकसित होते हैं। जिन मूल्यों को बाहर से आयातित किया जाता है, वे केवल लोक दिखावा और एक बोझ मात्र बनकर रह जाते हैं। दूसरों को खुश करने के चक्कर में अथवा उनकी नजर में बड़ा बनने की कोशिश में जो दिखावा किया जाता है, उससे आन्तरिक शक्तियों के विकास से कोई लेना देना नहीं है। जबकि जीवन मूल्यों को अपनाने का सीधा परिणाम आन्तरिक शक्तियों एवं अंतर्निहित क्षमताओं की असीम ऊर्जा का विकास हैं।

मानव मन के मर्मज्ञ डॉ. लिण्ड का अनुसन्धान निष्कर्ष है कि आज के संक्रमण युग में लोक दिखावे की प्रवृत्ति में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। अपने एक प्रयोग में उन्होंने अमेरिका, फ्राँस, ब्रिटेन, हालैण्ड एवं जर्मनी के अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में लगे लगभग 20,000 पुरुषों एवं महिलाओं का अपने सहयोगियों के साथ परीक्षण किया। डॉ. लिण्ड के अनुसार इस प्रयोगात्मक परीक्षण में यही पाया गया कि ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि जब मूल्यों को बाहर से आरोपित करने से, मूल्यनिष्ठ होने का अभिनय करने से लोक सम्मान का लाभ मिल जाता है, तो इन मूल्यों को अन्तःभूमि में रोपित एवं विकसित करने का झंझट कौन उठाए। हालाँकि ऐसी दशा में थोड़ी बहुत देर का झूठा सम्मान भले ही मिल जाए, परन्तु सर्वकालिक रूप से कुण्ठा एवं चिन्ता ही पल्ले पड़ती है। प्रख्यात् दार्शनिक स्पिनोजा के शब्दों में इस तरह की जीवन शैली से न केवल नैतिक जागरुकता बल्कि आन्तरिक शक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

मनीषियों के अनुसार सही स्थिति की जाँच-परख कर लेने पर दुश्चिन्ता एवं तनाव की इस जटिल पहेली का समाधान असम्भव नहीं रहता। हाँ यह कठिन एवं श्रमसाध्य भले ही हो। हर्मन हैंस के शब्दों में यदि हम अपने अस्तित्त्व की गहनतम सच्चाई को जानने व इसकी असीम सुखद सम्भावनाओं को कुण्ठित कर रही दुश्चिन्ता से जूझने के लिए कृतसंकल्पित हैं, तो देर-सबेर इस महाव्याधि से छुटकारा मिलना निश्चित है। पाल टिलिच के अनुसार तनाव एवं चिन्ता का सार्थक समाधान तब तक सम्भव नहीं है- जब तक कि इनका सम्पूर्ण साहस से सामना न किया जाय। अतः अपनी स्थिति को, साहसपूर्ण स्वीकृति को समाधान का शुभारम्भ मान सकते हैं। विलियम ग्रे के शब्दों में, हम जहाँ जिस रूप में खड़े हैं, उसी रूप में स्वयं को पहचानना और स्वीकारना होगा। साथ ही अपनी गहन समझ के आधार पर जीवन मूल्यों के रूप में अपनी आन्तरिक शक्ति के केन्द्र को खोजना होगा। इससे कम में इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

इसकी शुरुआत कहाँ से करें? इस सवाल के जवाब में रोलो में का कहना है कि प्राथमिक तौर पर यह शुरुआत अपने शरीर से कर सकते हैं। उनके अनुसार इसके लिए हमें उन गुणों, नियमों एवं मूल्यों को संकल्पपूर्वक अपनाना चाहिए, जो स्वास्थ्य एवं निरोगिता के आधार हैं। इसके बाद हमें अपनी भावनाओं की नए सिरे से खोज करनी चाहिए। इस प्रयास में हम अपनी गहनतम चाहत एवं इच्छाओं को खोज सकते हैं। में के अनुसार भाव व इच्छाओं के बोध का अर्थ इनकी स्वच्छन्द अभिव्यक्ति नहीं है। बल्कि अपने स्व का अपने परिवेश की यथार्थता के अनुरूप स्वस्थ-समायोजन है। यह अपने जीवन का मर्यादापूर्ण एवं जिम्मेदारी भरा निर्वाह है। इसका अगला चरण वे अचेतन मन की खोज-बीन को मानते हैं, जो कि अनिवार्य रूप में उपरोक्त बिन्दुओं से जुड़ा है। इसमें स्वप्नों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। जो न केवल अचेतन के अन्तर्द्वन्द्वों एवं दमित इच्छाओं व भावनाओं के प्रतीक होते हैं, बल्कि इनमें समाधानपरक महत्त्वपूर्ण सूत्र-संकेत भी उपलब्ध होते हैं।

मानव चेतना के कुशल अनुसंधानी रोलो में के अनुसार, इस प्रयास के अनुरूप हम अपने अस्तित्त्व की गहनता में जितना उतरेंगे, उतना ही इसके नित नवीन रहस्यों, सत्यों, तथ्यों एवं आश्चर्यों से परिचित होने लगेंगे। जीवन का गहनतम उद्देश्य एवं लक्ष्य स्पष्ट होने लगेगा। एक नवीन नैतिक संवेदनशीलता एवं जागरुकता का विकास होगा। जो परिवेश एवं परिस्थितियों की जटिल दशा में भी श्रेष्ठतम तत्त्वों को ग्रहण करने में सक्षम होगी। यहाँ व्यक्ति अपने आंतरिक आधार से सक्रिय होने के बावजूद, सामूहिकता से कटा नहीं होगा। वरन् उसके पारस्परिक सम्बन्ध सघन आत्मीयता एवं रचनात्मक दृष्टि पर आधारित होंगे। पॉल टिलिच के शब्दों में यहीं पर व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है, जो नैतिक श्रेष्ठता से भी कहीं परे व गहन सत्य के भावों से परिपूर्ण है।

महान् मनीषी अल्डुअस हक्सले ने इसे ‘वियान्ड गुड एण्ड इविल’ की संज्ञा देते हुए ‘स्प्रिचुअल एलीमेण्ट’ कहा है। उनके अनुसार दरअसल यह व्यक्ति की अन्तःचेतना के उद्भव एवं विकास का तथ्य है। एरिक फ्रॉम ने इसे अन्तर्ध्वनि कहते हुए साहस का आदि स्रोत बताया है। यह अपने आप में समग्रतावादी एवं समन्वयकारी शक्ति भी है। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने समूचे अस्तित्त्व को हाथ में लेता है। और इसे एक सुन्दर सुव्यवस्थित सूत्र में पिरोता, सजाता, संवारता हुआ सामञ्जस्यपूर्ण बनाता है। यहाँ वैयक्तिक मौलिकता एवं सार्थकता के साथ अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों में भी एक नई जीवन्तता, रचनात्मकता, सरसता एवं समरसता का उद्भव होता है। व्यक्ति इस तरह अपने अस्तित्त्व के गहनतम मूल्यों से संपर्क सूत्र में बंधता है। और इसके परिणाम स्वरूप व्यक्तित्व के पुनर्गठन के साथ दुश्चिन्ता की अस्तित्व जन्य व्याधि के निराकरण का पथ प्रशस्त होता है।

हालाँकि यह कार्य इतना सरल एवं सहज नहीं है। बाहरी प्रतिकूलता एवं विषमता से कहीं ज्यादा इसमें आन्तरिक अवरोध ही मूल रूप से बाधा डालते हैं। इसमें अपने वर्तमान सत्य का समग्रता से सामना न कर पाने का पलायनवादी रुख एक प्रमुख अवरोध सिद्ध होता है। रोलो में के शब्दों में वर्तमान की सच्चाई का सामना प्रायः उद्विग्नता पैदा करता है। क्योंकि इसमें निर्णय व जिम्मेदारी के भाव जुड़े होते हैं। जबकि सामान्य मनुष्य अपनी जिन्दगी में प्रायः इन्हीं से बचता फिरता है। इसी कारण उसे प्रायः अतीत की यादों अथवा आगत की कल्पनाओं में जीते हुए देखा जाता है। क्योंकि अतीत की मधुर स्मृतियों व भविष्य के सुखद स्वप्नों में निर्णय व जिम्मेदारी का बोझ नहीं रहता है। जबकि वर्तमान संघर्षशील एवं साहसपूर्ण कर्त्तव्यकर्म का पर्याय है। पलायनवादी प्रवृत्ति से परिस्थितियों के प्रश्न का समाधान नहीं मिलता बल्कि वे और भी बद से बदतर होते जाते हैं। पलायन के प्रयास में किया गया वर्तमान का दुरुपयोग क्रमशः अतीत को ग्लानि एवं पश्चाताप युक्त तथा भविष्य को चिन्ता व आशंकायुक्त बनाता है। जबकि दुश्चिन्ता के मर्म को भेदने के लिए जरूरत वर्तमान की यथार्थता में जीने की है।

रोलो में इस संदर्भ में साहस को एक अनिवार्य तत्त्व मानते हैं, जिसका उनके अनुसार दूसरा कोई विकल्प नहीं है। यह एक आँतरिक गुण है, जिसकी आवश्यकता बाह्य चुनौतियों से जूझने से अधिक अपने आँतरिक स्थिति को संभालने व सुधारने में अधिक पड़ती है। गोल्डस्टेन के शब्दों में यह अस्तित्त्व के झटकों के प्रति सकारात्मक रुख है, जिन्हें अपनी प्रकृति के असली स्वरूप को पाने के लिए झेलना होता है। हर क्षण अपनी पहचान को पाने के लिए, इसको जताने के लिए व अपने नए जन्म की पीड़ा झेलने के लिए इसकी जरूरत होती है। सर्वोपरि, आर्थ मिलर के शब्दों में यह अपने विश्वास के लिए मरने-मिटने की हिम्मत है।

मे के अनुसार इस साहस एवं निष्ठ के अनुरूप ही व्यक्ति उस आँतरिक स्वतन्त्रता का अर्जन करता है, जो कि असीम सम्भावनाओं का द्वार खोलती है। यहीं व्यक्ति अपने पुनर्निर्माण व विकास में अपनी उच्चतम आस्था के अनुरूप जुट जाता है और वह अपने स्वतंत्र विकास में अपने हाथ होने का बोध करता है। ऐसे में व्यक्ति का जीवन पूर्ण जिम्मेदारी से युक्त बन जाता है। दुश्चिन्ता व तनाव में व्यतीत होने वाले उसके क्षण सृजन के क्षण बन जाते हैं। ऐसी दशा में उसे किसी अनुशासन की जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि उसका अनुशासित आन्तरिक जीवन विकास की एक सतत सचेतन प्रक्रिया बन जाता है। इस तरह विशेषज्ञों के सतत अनुसंधान का निष्कर्ष यही है कि अपने अस्तित्त्व के गहनतम सत्य, इसकी असीम सम्भावनाओं एवं मूल्यों की खोज का साहसपूर्ण अभियान ही युग की महाव्याधि- दुश्चिंता का सार्थक, सुनिश्चित एवं प्रभावी समाधान है।


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