स्वयं को खोकर ही प्राप्ति होगी सत्य की

October 2002

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स्वयं को खोकर ही ‘स्व’ को पाना होता है। जैसे बीज जब अपने को गला देता है, मिटा देता है, तभी उसमें नव−जीवन अंकुरित होता है। वैसे ही ‘मैं’ बीज है, वह आत्मा का बाहरी आवरण और खोल है। इस ‘मैं’ के टूटने और मिटने पर ही अमृत जीवन के अंकुर का जन्म होता है। इस सूत्र को आत्मसात करने की कोशिश करें। पाना है, तो मिटना होता है। मृत्यु के मूल्य पर अमृत मिलता है। बूँद जब स्वयं को सागर में खो देती है, तो वह सागर हो जाती है।

मैं आत्मा हूँ, पर अपने में खोजने पर सिवाय वासना के और कुछ नहीं मिलता। कुछ ऐसा लगता है कि जैसे सारा जीवन ही वासना बन गया है। यह वासना कुछ होने, कुछ पाने की चाहत है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ होने, कुछ पाने की दौड़ में है और इस लगातार हो रही दौड़ का कोई अंत नहीं है, क्योंकि जैसे ही ‘जो उपलब्ध होगा’ वह व्यर्थ हो जाएगा और चाहतें पुनः अनुपलब्ध पर टिक जाएँगी। वासना−आकाश क्षितिज की तरह है। इसके जितना ही निकट पहुँचो, वह ठीक उतना ही दूर हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह तो कहीं है ही नहीं। केवल एक प्रतीति, भ्राँति भर है। सत्य नहीं है। मायावी वासनाओं के चाहे कितने ही निकट जाएँ, वह उतनी ही दूर बनी रहती है।

वासनाओं की यह भ्राँति आत्मा का विरोध नहीं, उस पर आवरण है। यह कुहासे और धुएँ की तरह है, जिसमें हमारी सत्ता छिपी है। ‘हम जो नहीं’ उसके लिए दौड़ते−भागते रहते हैं। इसलिए ‘जो हैं’ उससे अनजान रह जाते हैं, उसे देख नहीं पाते हैं। एक क्षण को भी यह होने की दौड़ और वासना की चाहतें न हों, तो जो है वह प्रकट हो जाता है। एक क्षण को भी आकाश में बदलियाँ न हों, तो सूरज चमकने लगता है। इस कुछ होने की भाग−दौड़ का अभाव, स्वयं में, अपने−आप ठहराव ही ध्यान हैं।

ध्यान के इन क्षणों में कितना अचरज होता है, क्योंकि इनमें हम उसे पाते हैं, जो है। इन क्षणों में वह सब मिल जाता है, जिसके लिए चाहतें जगी थी। आत्मा का दर्शन वासना की पूर्ण तृप्ति है। दरअसल वहाँ कोई अभाव ही नहीं है। अभाव तो वासना के विचारों में है। यही अज्ञान है। ज्ञान में विचार नहीं, दर्शन होता है। इसलिए विचार का मार्ग ज्ञान नहीं ले जाता। निर्विचार−चैतन्य ज्ञान का द्वार है।

जो इसे पाते हैं, वे जानते हैं, ज्ञान उपलब्धि नहीं, अनावरण है। वह हममें नित्य उपस्थित है, उसे खोदना है। ज्ञान के जल−स्रोतों पर विचारों के कंकड़−पत्थर जमा हो गए हैं। इन्हें हटते ही चैतन्य की अपरिसीम धारा उपलब्ध हो जाती है। इसके लिए अपने में कुआँ खोदना है। ध्यान की कुदाली से विचारों की पर्तों को अलग करना है। सम्यक् स्मृति, सजग जागरुकता से विचारों को निष्प्राण करना है। तब अनुभव होगा कि विचार जहाँ नहीं है उस निर्धूम चेतना में ज्ञान है। इसके लिए एकाँत में जाने की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपने में एकाँत लाने की ।

परिस्थिति नहीं−मनःस्थिति महत्वपूर्ण है। भीड़ बाहर नहीं, भीड़ भीतर है। भीड़ से भागना व्यर्थ है, भीड़ को भीतर से विसर्जित करना सार्थक है। इसलिए एकाँत मत खोजो, एकाँत बनो। निर्जन में मत जाओ, अपने को निर्जन करो। ऐसी अवस्था होने पर ऐसे शाँति, शून्य और एकाँत से देखने पर संसार परमात्मा में परिणत हो जाता है। जो कल तक घेरे हुए थे, आज वे अपने में ही विलीन हो जाते हैं।

किसी ऐसे ही क्षण में उपनिषद् के ऋषि ने कहा होगा−’अहं ब्रह्मास्मि’।

इस भावदशा को पाने के लिए परंपराओं, रूढ़ियों और उधार के विचारों के बोझ से छुटकारा पाना आवश्यक है। पर्वतारोही जितने निर्भार होते हैं, उतने ही ऊँचे पर्वतों पर उनके चरण पहुँच पाते हैं। सत्यारोही भी जितने शून्य होते हैं, जितने निर्भार होते हैं, उतनी ही ऊँचाइयाँ उनका आवास हो पाती हैं। परमात्मा तक, उस अंतिम ऊँचाई तक जिन्हें पहुँचना है, उन्हें उस अंतिम शून्य तक पहुँचना जरूरी है। शून्य की गहराई में पूर्ण ऊँचाई का जन्म होता है। असत्ता में सत्ता के संगीत की उत्पत्ति होती है। तब ज्ञान होता है कि निर्वाण ही ब्रह्मोपलब्धि है।

सत्य अज्ञात है, तो उसे उन विचारों से कैसे जाना जा सकता है, जो कि ज्ञात है। ज्ञात से अज्ञात तक कोई मार्ग नहीं है। हाँ ज्ञात से छलाँग अज्ञात में ले जाती है। विचार हम पर हैं। उन पर हम खड़े हैं। उनसे निर्विचार में कूदना है। शब्दों से मौन में कूद जाना है। यह सोचने से नहीं जागने से होगा। विचारों की चक्रीय गति को देखने से होगा। इसे देखते−देखते अनायास ही किसी क्षण में छलाँग लग जाती है। फिर स्वयं को अतल शून्य में पाते हैं। ज्ञात के किनारों के छूटने भर की देर है, फिर अपनी नौका सहज ही अज्ञात के सागर में अपने पालों को खोल लेती है। फिर तो बस इस आनंद यात्रा में आनंद−ही−आनंद है।

अशाँति से भरी आँखों को शाँति की यह सचाई दिखाई नहीं देती। आँखें चाहे आँसुओं से भरी हों, चाहे मुस्कराहटों से, सत्य नहीं देख पातीं। इसके लिए तो खाली आँख चाहिए। खाली आँखों से सब दिखाई दे जाता है, आत्मा भी और परमात्मा भी । हममें से हर कोई परमात्मा को जानना चाहता है और स्वयं को जानता नहीं। स्वयं से ज्यादा निकट और कोई सत्ता नहीं है। जो वहाँ अज्ञान में है वह किसी भी तल पर ज्ञान में नहीं हो सकता।

ज्ञान की प्रथम ज्योति अंतस् में ही जागती है। वही ज्ञान की प्राची है। वहीं से ज्ञान का सूर्योदय होता है। वहाँ अँधेरा है, तो स्मरण रहे कि सूर्योदय कहीं भी नहीं हो सकता है। परमात्मा को नहीं, स्वयं को जानना होगा। वही ज्योतिकण अंत में सूर्य में परिणत हो जाता है। स्वयं को जानकर ही जाना जाता है कि वहाँ सत्ता तो है, चैतन्य तो है, आनंद तो है, सच्चिदानंद तो है, पर मैं नहीं है। यह अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है। मैं युक्त आत्मा जीव है− यही अज्ञान है। मैं मुक्त आत्मा परमात्मा है− यही ज्ञान है।

दसों दिशाओं में आत्मा की खोज में भागने−दौड़ने से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि दसों दिशाएँ बाहर की ओर जाती हैं। उनसे जो निर्मित है, वही जगत् है, इनमें भागने−दौड़ने वाला निश्चित ही इनसे अलग है, अन्यथा न वह इन्हें जान सकता था और न इनमें गतिमान हो सकता है। इसी पृथक तत्व में स्थिरता है, ध्रुवता है। यह ध्रुव ही अध्रुव को थामे हुए है। अध्रुव जीवन है, ध्रुव आत्मा है। यह आत्मा ग्यारहवीं दिशा है। इसे खोजने कहीं नहीं जाना है। खोजना छोड़कर इसके प्रति जागना होगा। यह दौड़ने से नहीं रुकने से होगा। रुको और देखो, इन दो शब्दों में ही सारा धर्म है, सारी साधना है, सारा योग है।

इसी से ग्यारहवीं दिशा खुज जाती है और बस आँतरिक आकाश में प्रवेश होता है। इस आँतरिक आकाश का नाम ही आत्मा है। इस सत्य से अपरिचित जन अध्यात्म के नाम पर, साधना के नाम पर दौड़ते रहते हैं। गिरते−पड़ते,

हाँफते−काँपते दौड़ते हैं। तब तक यह दौड़−भाग चलती रहती है, जब तक मृत्यु नहीं आ जाती, पर जो सत्य को जान लेते हैं, वे मृत्यु में भी अमृत को पा लेते हैं। सत्य यही है कि स्वयं को खोजें नहीं−स्वयं को खो दें। तभी अध्यात्म के अद्भुत लोक का प्रवेश द्वार आपके लिए खुल जाता है। इसमें प्रवेश पाने के लिए सभी आमंत्रित हैं।

जापान पर आक्रमणकारियों का कब्जा हो गया। उन्होंने श्रमिकों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए एक चाल चली। दैनिक श्रम का घंटा दिया और सप्ताह छह दिन की बजाय पाँच दिन का कर दिया ।

इस पर श्रमिकों ने घोर विरोध प्रकट किया और कहा−यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर आक्रमण है। हमने श्रम के द्वारा ही इस छोटे से टापू को समर्थ बनाया है। यदि हममें श्रम से जी चुराने की आदत डाली गई, तो प्रस्तुत संकट से हम हजार वर्ष में भी न उबर सकेंगे।


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