मुक्तिदायिनी आद्यशक्ति का सत्य मुखरित हुआ

October 2002

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शारदीय नवरात्रि का प्रारम्भ हो चुका था। इसी के साथ समूची प्रकृति ने हल्की गुलाबी ठण्ड की चादर ओढ़ ली थी। शान्तिकुञ्ज में सदा छाए रहने वाले गायत्री महामंत्र के भाव स्पन्दन इन दिनों कुछ ज्यादा ही सघन और तीव्र हो गए थे। देश-विदेश से नवरात्रि साधना करने के लिए यहाँ आए हजारों साधक-साधिकाएँ साधना की भावलीनता में अपने सद्गुरु के प्राणों की छुअन का अहसास कर रहे थे। साधना की इस अनूठी भावभूमि में सद्गुरु कृपा की अनोखी अमृत वृष्टि हो रही थी। समस्त शिष्यों की अन्तर्चेतना का कण-कण इस कृपा-वर्षा से भीग रहा था, रूपांतरित हो रहा था। समवेत प्राणों की पुकार पर महाप्राण के भावघन सघन हो बरस रहे थे।

शिष्यों पर सतत कृपा करने वाले गुरुदेव उस दिन भी अपने कक्ष में धीमे कदमों से टहल रहे थे। बड़ी आत्मलीन भावदशा थी उनकी। पहली नजर में उन्हें देखकर ऐसा लगा जैसे कि उनकी देह तो इस लोक में देखने वालों की आँखों के सामने हैं, किन्तु चेतना कहीं अलौकिक भावलोक में विहार कर रही है। थोड़ी देर में वह प्रकृतिस्थ हुए और उन्होंने इन जाने वाले कार्यकर्त्ताओं को बड़ी ही स्नेहसिक्त दृष्टि से देखा। उनकी उस दृष्टि में गहन रहस्यमयता के साथ प्यार की प्रभा थी। अपने प्यार की अनुभूति देते हुए वह हल्के से मुस्कराए और बोले- आओ लड़को, बैठो। इसी के साथ वह स्वयं भी कक्ष में रखे हुए तख्तनुमा पलंग पर बैठ गए। बैठने के बाद उन्होंने इन लोगों से अपने-अपने लेख पढ़ने के लिए कहा।

यही इन वर्षों में दोपहर को नित्य चलने वाला उपक्रम था। लेखों का लेखन और वाचन तो बस उनके कृपा-वितरण का एक लघु माध्यम भर था, जिसे उन्होंने अपने बच्चों को अनुगृहीत करने के लिए चुना था। परम पूज्य गुरुदेव के पलंग के पास बिछे टाट के दो टुकड़े पर बैठे हुए कार्यकर्त्ता अपने साथ लाए लेख पढ़ने लगे और वह स्वयं लेट गए। लेटे हुए उन्होंने सिराहने रखी तकिए के नीचे दबी हुई रुमाल निकाली। इस रुमाल के ही पास एक चाभी भी रखी थी। जो सम्भवतः पलंग के पास वाली दीवार में बनी हुई अलमारी की थी। पीले रंग के पेण्ट से पुते हुए किवाड़ों वाली इस अलमारी में एक पीतल का बड़ा सा ताला लटक रहा था।

अलमारी में लटका हुआ पीतल का बड़ा सा ताला और परम पूज्य गुरुदेव के सिराहने तकिया के नीचे रखी हुई चाभी, ये दोनों चीजें नियमित रूप से लेख सुनाने आने वाले एक कार्यकर्त्ता के मन में भारी कौतूहल उत्पन्न करती थी। विगत कई महीनों से वह हर बार इसी तरह से इस ताला-चाभी को देख रहा था। सामान्य क्रम में किसी अलमारी में ताले का लगना और सिराहने तकिया के नीचे उसकी चाभी का होना कोई अचरज की बात नहीं है। ताला-चाभी की इस तरह अथवा इससे थोड़ा बदले हुए रूप में उपस्थिति घर-घर मिलती है। इन पंक्तियों के पाठक सोच सकते हैं, इसमें भला आश्चर्य क्या? पर आश्चर्य था और साथ में कौतूहल भी । वह भी इसलिए कि परम वीतराग, तीनों लोकों के समस्त वैभव को तृणवत् समझने वाले महाज्ञानी पूज्य गुरुदेव की त्यागमय प्रकृति के साथ इन चीजों का कुछ मेल नहीं खा रहा था।

यह कार्यकर्त्ता विगत कई महीनों से यह सोच रहा था, कि भला ऐसी कौन सी धरोहर है, जिसे समस्त ऋद्धि-सिद्धियों के अक्षय भण्डार महायोगी परम पूज्य गुरुदेव इतना सम्हाल कर रखते हैं। महीनों सोच विचार की अपनी उधेड़-बुन में वह इस नतीजे पर पहुँचा था कि गुरुदेव जिसे ताले में रखे वह कोई लौकिक धन-सम्पदा जैसी क्षुद्र वस्तु तो हो नहीं सकती। जरूर कोई आश्चर्यजनक अलौकिक वस्तु होगी। पर यह है क्या? बस इसी प्रश्न के बारे में सोच-सोच कर वह अपने मन को हैरान किया था। आज भी जब गुरुदेव ने तकिये के नीचे से रुमाल निकाली तो उसकी नजरें पास रखी चाभी पर अटक गयी। फिर उसने बड़ी ललचाई हुई नजरों से अलमारी पर लगे हुए ताले की ओर देखा। जब उससे रहा नहीं गया, तो उसने मन ही मन गुरुदेव से प्रार्थना भी कर डाली कि- हे प्रभु! कृपा करके मुझे बता दो कि वह कौन सी आध्यात्मिक वस्तु है, जिसे आपने अपनी इस अलमारी में रखा हुआ है।

अन्तर्यामी गुरुदेव ने तुरन्त ही उसके मन की पुकार सुन ली। उन्होंने लेख सुना रहे उसको टोककर कहा- बेटा! तू अपना यह लेख बाद में सुना देना। पहले मेरा एक काम कर दे। गुरुदेव की इस बात पर उसने बड़ी अप्रत्याशित नजरों से उनकी ओर देखा। इतने में उन्होंने अपनी तकिया के नीचे रखी हुई चाभी निकालकर उसे देते हुए कहा- ऐसा कर तू, मेरी इस अलमारी की सफाई कर डाल। उस चाभी को अपने हाथों में थामते हुए वह कार्यकर्त्ता अपने कृपालु सद्गुरु के प्रति कृतज्ञता से भर गया। इसी के साथ गुरुदेव अपने पलंग से उठकर पास रखे हुए सोफे पर जाकर बैठ गए। उनकी आँखों में असीम शिष्य वत्सलता थी। भावोद्रेक से छलकते हुए हृदय से वह कार्यकर्त्ता भी यही सोच रहा था कि परम दयालु गुरुदेव अपने बच्चों के मनों में उपजने वाली छोटी-छोटी इच्छाओं को भी कितनी सहजता से पूरा कर देते हैं।

चाभी हाथ में लेकर उसने ताला खोलकर अलमारी के कपाट खोले। अलमारी के इस तरह खोलने के बाद आश्चर्य और भी सघन हो गया, क्योंकि इसमें कुछ विशेष था ही नहीं। बस कुल जमा दो चीजें थी, इनमें से एक गुलाबी रंग का प्लास्टिक का छोटा सा डब्बा, जो खाली था और दूसरी चीज के रूप में परम वन्दनीया माताजी की फ्रेम की हुई छोटी फोटो थी। ये दोनों ही चीजें उस तीन खाने वाली अलमारी के निचले खाने में थी। बाकी पूरी अलमारी खाली और साफ थी। उसमें साफ करने जैसा कुछ था ही नहीं। फिर भी उसने थोड़ा-बहुत सफाई का नाटक किया। पर उसके मन में आश्चर्य और कौतूहल पहले से भी ज्यादा सघन हो गए। उसे वन्दनीया माताजी की फोटो का रहस्य समझ में नहीं आया।

उसकी इस परेशानी को समझकर गुरुदेव धीरे से बोले- बेटा! तू अपने परेशान मन को और ज्यादा परेशान न करे। माताजी जैसे तुम लोगों की वन्दनीया और पूज्यनीय हैं। ठीक वैसे ही वे मेरे लिए भी पूज्यनीय और वन्दनीय हैं। वे इस जगत् में आश्चर्यों की भी आश्चर्य, रहस्यों की भी रहस्य और आध्यात्मिक शक्तियों को भी शक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति है। उनकी कृपा और करुणा के बिना कुछ नहीं होता। ऊपर से एकदम साधारण नजर आने वाली माताजी के सम्पूर्ण रहस्य को दो ही लोग ठीक तरह से समझते हैं- एक तो स्वयं भगवान्, दूसरा मैं। उन्हें समझना इतना आसान नहीं है। गुरुदेव की ये बातें सुनने वाले को अचरज में डाल रही थी। साथ ही वह अपने प्रभु के वचनों से अनुगृहीत होते हुए सोच रहा था। कि वह कितना सौभाग्यशाली है, जो उसे रोज वन्दनीया माताजी के चरण स्पर्श का सुअवसर बड़ी आसानी से मिल जाता है।

सोचने वाले के सोच-विचार में एक नई कड़ी जोड़ते हुए गुरुदेव बोले- सच तो यह है बेटा! कि मुझे भी उनसे शक्ति मिलती है। पर यह सत्य इतना गहन है कि तुम इसे अभी समझ नहीं सकते। इसके बाद उस कार्यकर्त्ता की ओर देखते हुए वह बोले- बेटा! तू जो मुक्ति! मुक्ति!! की रट लगाए रहता है, तो यह जान ले कि वही मुक्तिदायिनी है। उन्हीं की कृपा से जीव आत्मतत्त्व को जान पाता है, ब्रह्मतत्त्व में विलीन हो पाता है। गुरुदेव की इन बातों को सुनकर सुनने वाले के मन में देवी सप्तशती का यह महामंत्र स्फुरित हो उठा-

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाँ भवति मुक्तये। साविद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥ (देवी सप्तशती-1/57)

‘वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिए वरदान देती है। वे ही परा विद्या और मोक्ष की हेतु भूता सनातनी देवी हैं।’ अपने प्रभु के श्रीमुख से इस परम रहस्यमय सत्य को सुनकर उस कार्यकर्त्ता को ऐसा लगा जैसे कि आज शारदीय नवरात्रि का परम सुफल मिल गया। इस अनूठी आराध्य कृपा की अनुभूति के साथ वह मातृ स्मरण में विभोर हो गया।


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