नव संवत्सर का संदेश

April 2002

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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की प्रातः सब तरह से अनूठी है। हो भी क्यों नहीं? आज ही तो सुबह की सबसे पहली किरण के साथ नव सम्वत्सर हमारे घर-आँगन में, हमारे जीवन में आया है। समूची सृष्टि में वितान बनकर वही चहुँ ओर छाया है। उसके आगमन की खुशी में प्राची में ऊषा ने अपना प्राचीन आँचल उतार फेंका है। उसका मुख दिव्य रक्त कमल की भाँति उद्भासित है। हर क्षण तप्त स्वर्ण की कान्ति दसों दिशाओं में विकीर्ण कर रहा है। अलसाई सी, धीमे-धीमे बन्द दृगों को खोलती हुई वसुन्धरा के आँगन में नया सूर्य उदय हुआ है।

नए सूर्य की हर किरण में नयी सम्भावनाओं की झिलमिल है। जाग्रत् आत्माओं की अन्तर्चेतना में एक अहसास, एक अनुभूति है कि जगत् और जीवन में इस नव वर्ष में बहुत कुछ नया प्रस्फुटित होगा। भौतिक पदार्थों एवं परिस्थितियों की अप्रत्याशित उलट-पुलट के बीच कुछ नया झाँकेगा। आध्यात्मिक अन्तर्चेतना में एक नए आलोक का अवतरण होगा। समूची सृष्टि को अपनी स्वर्णित किरणों से द्युतिमान कर रहे आज के सूर्य का यही सन्देश है। यह सूर्य दिव्य चेतना से चेतन है। इसके प्रकाश में परिस्थितियों के भविष्यत् स्वरूप की, आध्यात्मिक अन्तर सम्भावनाओं की अनेकों झाँकियाँ झलक रही हैं।

सर्वज्ञ चेतना में उठने वाले नव सम्वत्सर की विशेषताओं को, विशिष्टताओं को साफ-साफ देख रहा है। उन्हें बहुत ही स्पष्ट ढंग से देश और धरती में कुछ नया अवतरित होता हुआ नजर आ रहा है। सम्भावनाओं का ज्वार सब ओर जोर-शोर से उमड़ रहा है। बाह्य और आन्तरिक जीवन की ओर भागी चली आ रही ये सम्भावनाएँ तो बड़ी ही प्यारी हैं। पर ये सच्चे ढंग से साकार तभी होंगी, जब हमारी साधना इन्हें बड़ी ही भावपूर्ण रीति से छुएगी।

आज के दिन हम एक नए युग में, स्वर्णिम युग में प्रवेश कर रहे हैं। यह घड़ी युगान्तर की है। प्राचीन पीछे छूट रहा है, नवीन, जिसे स्वर्णिम युग कहने में आन्तरिक प्रसन्नता हो रही है, वसुन्धरा के वातावरण में प्रवेश पा रहा है। हमें चाहिए नव सम्वत्सर के आगमन की इस भव्य बेला में, अपनी चिन्तनधारा को विस्तृत करें, उसे ऊँची उठाएँ। अपने हृदय के द्वार खोलें, उसे विश्व प्रेम से भरपूर करें। धार्मिक तथा जातीय सीमाओं का अतिक्रमण कर मानव मात्र को आत्मा का सखा मानें। आत्मीयता के आलिंगन में सम्पूर्ण मानवता को बाँधें। खोखली मान्यताओं से बाहर आएँ, युग ऋषि द्वारा अनुभूत सत्य को अपने विचारों का आधार बनाएँ।

नव सम्वत्सर की माँगों के अनुसार साधना करते हुए अपने स्वभाव में नमनीयता लाएँ। विकसित होती हुई मानवता के साथ अपने चिन्तन एवं दर्शन का भी विकास करें। शास्त्रों के मौलिक सत्य को अपरिवर्तित रखते हुए, उसके व्यावहारिक पक्ष में यथोचित हेर-फेर करें, नए क्षितिजों का प्रवेश सम्भव बनाएँ। जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाएँ, जो कि जीवन के त्याग में नहीं, उसे आध्यात्मिक स्तर पर उठाने में सच्ची सफलता मानता है। मानव मात्र का चेतना स्तर नए आलोक में सजाने-संवारने में पुरुषार्थ की सार्थकता समझता है।

नव वर्ष पर अवतरित होती हुई आध्यात्मिक चेतना के प्रति अगर आज हम सचेतन बनें, इसके आलोक में जीवन मार्गों पर अग्रसर हों, तो अवश्य उज्ज्वल भविष्य की संस्थापना हो जाएगी। धरती का कोना-कोना प्रकाशपूर्ण चेतना से भर उठेगा। सम्पूर्ण मानव जाति में युगान्तरीय चेतना के प्रति उद्घाटन ही वह कर्म है, जिसके द्वारा संसार अपनी सब समस्याओं का समाधान कर सकता है। इसके प्रति ग्रहणशीलता का भाव ही हमें ज्ञान तथा अज्ञान के मिश्रित वर्तमान जीवन स्तर से ऊपर उठाने में समर्थ होगा। तभी हमारी चेतना आध्यात्मिक विकास कर सकेगी। देश और धरती का भी कल्याण हो सकेगा। नव सम्वत्सर की प्रातः उदय हो रहे सूर्य का यही सन्देश है। उसकी किरणों की झिलमिलाहट में यही भाव जगमग है। उसकी प्रभा और प्रकाश में यही दीप्ति बिखरी है। उसकी ऊष्मा में इसी की ऊष्ण छुअन है। साधना ही सार है, यही सम्भावनाओं की द्वार है। नव सम्वत्सर का यही तत्त्वोपदेश है।


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