‘आनंद’ आध्यात्म की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जो व्यक्ति इसे प्राप्त कर लेता है, उसकी अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से काफी उच्च मानी जाती है। यों बहिरंग की प्रफुल्लता सर्वसामान्य में भी देखी जाती है, पर वह भौतिकता से जुड़ी होने के कारण अस्थिर होती और घटती-बढ़ती रहती है, लेकिन ‘आनंद’ आत्मिक होने के कारण चिरस्थायी होता और समस्वर बना रहता है।
आमतौर पर आनंद ओर उत्फुल्लता को एक माना जाता है, किंतु दोनों में जमीन-आसमान जितना अंतर है। जो भेद सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश के मध्य है, लगभग वैसा ही फर्क इन दोनों के बीच माना जाना चाहिए। बाह्य वस्तुओं में हमें जहाँ-जहाँ, जब-जब सुख की अनुभूति होती है, वह वस्तुतः हमारे अंतस् के आनंद का ही प्रकाश है, क्योंकि बाहरी उपादानों में सुख कभी होता नहीं। जो होता है, वह मात्र दुःख है। यदि भौतिक पदार्थ आनंद के स्रोत रहे होते, तो जिस चीज से एक को प्रसन्नता मिलती है, दूसरे के लिए भी वह उत्फुल्लतादायक ही होनी चाहिए थी, पर दैनिक जीवन में जो अनुभव होते हैं, वह इसके ठीक विपरीत है देखा जाता है कि जो सामग्री हमारे जीवन में सुख और शाँति लाती है, दूसरे के लिए वही महान दुःख का कारण बन जाती है। जड़ पदार्थ यदि सचमुच ही प्रसन्नता के उद्गम होते, तो किसी के लिए भी वे विपन्नता के निमित्त नहीं बनते। यदि बनते हैं, तो निश्चय ही समझने में कोई भूल हुई है। इस भूल को समझकर और सुधारकर ही हम उस चिरंतन आनंद को प्राप्त कर सकते है।
इस संसार में पदार्थ और चेतना दो प्रधान तत्व है। स्थूल जगत् में पदार्थ ही सर्वोपरि है, जबकि सूक्ष्म जगत् में आत्मा-परमात्मा से बढ़कर दूसरा कुछ भी नहीं। दोनों ही अपने-अपने प्रकार के सत्य हैं, पर यह संभव नहीं कि एक से संबंधित सत्य की उपलब्धि दूसरे में की जा सके, न यही शक्य है कि एक का सच दूसरे का पर्याय बने। द्रव्य का गुण आत्मा में ढूंढ़ना निरर्थक है और आत्मा का धर्म पदार्थ और संसार में तलाशना नासमझी। संसार में सौंदर्य भरा पड़ा है। कोई उसको निहारकर गदगद होता रहता है, जबकि दूसरे को उसमें वैसा सुख नहीं मिल पाता। यदि सौंदर्य है, तो इसकी खोज करने वाले प्रत्येक अन्वेषक को इससे सुख मिलना चाहिए, किंतु ऐसा कहाँ होता है? जिस सौंदर्य से, भोग और विलासिता से हमें आनंद मिलता है, उसी से कोई ‘बुद्ध’ भाग खड़ा होता है, विरागी बन जाता है। यदि सौंदर्य सच्चा है, तो यह विरोधाभास नहीं दिखलाई पड़ना चाहिए। कोई नयनाभिराम सौंदर्य के बीच रहकर भी अतृप्त बना रहता है, जबकि दूसरा घोर नरक जैसी परिस्थितियों में भी स्वर्गीय सुख की प्रतीति करता है। आखिर ऐसा क्यों? गहराई से विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि जिस शाश्वत संतोष की तलाश हम बाहर करते रहते हैं, वस्तुतः अंदर की वस्तु है। बाहर यदि उसकी अनुभूति होती है, तो वह भी भीतर का ही विस्तार है। जैसे-जैसे हम गहराई में प्रवेश करते चलते है, वैसे-वैसे इस तथ्य की अनुभूति और अधिक स्पष्ट होती जाती है। हम सुख को बाहरी वस्तुओं में ढूँढ़ना चाहते है। सुख वहाँ है नहीं, इसलिए दुःख भोगना पड़ता है। इतना जानते-समझते हुए भी व्यक्ति आज संसार में साधनों के पीछे शाँति के लिए भागता फिर रहा है। कोई उसे किसी चीज में खोजने का प्रयास कर रहा है, तो दूसरा किसी अन्य में अन्वेषण कर रहा है। सभी प्रयत्नशील है, पर आज तक इनमें से कोई भी इस सनातन सुख को उपलब्ध कर पाने में सफल न हो सका। पत्नी सोचती है कि उसे पति के सान्निध्य में सुख मिलेगा और पति सोचता है कि वह इसे पत्नी से प्राप्त कर लेगा। माँ, बेटे में सुख ढूँढ़ रही है, जबकि बेटे को इसकी तलाश माँ में है। पिता पुत्र में, पुत्र पिता में, संसारी संसार में और वैरागी विराग में इसे अपने-अपने ढंग से खोज रहे हैं, किन्तु उनकी अब तक की यह खोजयात्रा पूरी न हो सकी है और न भविष्य में पूरी होने की संभावना है, क्योंकि जिन्हें हम सुख का स्रोत मान बैठे हैं, वे इसके उद्गम हैं नहीं।
आश्चर्य तो तब होता है, जब यह विदित होता है कि जिन्हें हम शाँति का पुँज मानते और जिनमें हमें शाँति की तलाश है, वे वास्तव में अशाँत हैं और वे इसकी खोज कहीं अन्यत्र कर रहे है। शरीर उनका कुछ कर रहा है, मन कुछ और ढूंढ़ रहा है शरीर कहीं है, मन कहीं और। वे अपने में होते नहीं। उनका संपूर्ण अस्तित्व वहाँ विद्यमान नहीं होता। इसलिए उनसे भेंट संपूर्ण रूप से होती नहीं। मिलन मात्र शरीर से हो पाता है, जो मन-प्राण के बिना अधूरा है। जो तृप्ति का अन्वेषण वाह्य विश्व में करते रहते हैं, उनकी सत्ता हर वक्त अधूरी बनी रहती हैं। ऐसे लोगों को थोड़ी भी ठोकर लगती है, तो एकदम असंतुलित होकर गिर पड़ते है और गिरते ही चलते है। गिरने पर या तो आत्महत्या कर लेते हैं या फिर पागल हो जाते है। जो तनिक बुद्धिमान है, वे नाममात्र के विरागी बनकर इधर-उधर भटकने लगते हैं। यही कारण है कि इन दिनों विक्षिप्तों अर्द्धविक्षिप्तों और बैरागी कहे जाने वालों की संख्या द्रुतगति से बढ़ती जा रही है, कारण कि वर्तमान में लोगों की यात्रा भीतर से बाहर की ओर हो गई है, जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था।
कभी यही स्थिति भर्तृहरि के समक्ष उपस्थित हुई थी। जब संसार की विषय वासनाओं में उन्हें बार-बार अतृप्ति और अशांति मिली, तो वे समझ गए कि उनकी तलाश गलत दिशा में, गलत ढंग से चल पड़ी है। इसके उपराँत उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था, ‘शृंगार शतक। इस पुस्तक में उन्होंने बाह्य जगत् में सुखोपलब्धि की व्यर्थता का विस्तार से उल्लेख किया है। इसके पश्चात उनकी अंतर्यात्रा शुरू हुई इसके अनुभवों को उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वैराग्य शतक’ में लिपिबद्ध किया है और बताया है कि स्थिर आनंद की उपलब्धि आँतरिक एवं आत्मिक हैं
मिलता-जुलता भाव प्रकट करते हुए मूर्द्धन्य मनीषी जुँग ने अपनी पुस्तक ‘मॉर्डन मैन इन सर्च ऑफ ऐ सोल’ में कहा है कि आरंभ में मनुष्य संबंधी मान्यता यह थी कि वह मात्र एक शरीर है और यह संसार उसके उपभोग के निमित्त है। ऐसी स्थिति में वह तुष्टि का संधान साधन-सामग्रियों में करता था और उसी के अधिकाधिक भोग में लिप्त रहता था। अब जबकि शरीर के अंदर आत्मा की उपस्थिति को विज्ञान ने करीब-करीब स्वीकार लिया है, तो संभव है उसकी उपलब्धि से संपूर्ण और शाश्वत सुख की उपलब्धि हो जाए और मनुष्य को पहले की तरह भटकना न पड़े। इसीलिए वे सलाह देते हुए कहते हैं कि यदि सचमुच में आदमी के अंदर वैसा कोई अद्भुत तत्व है, जिसकी प्राप्ति ही चरम प्राप्ति हो और जिसके उपलब्ध हो जाने से सब कुछ उपलब्ध हो जाता हो, तो मनुष्य को उसी परमतत्व की शोध में जुट जाना चाहिए।
‘स्प्रिचुअल क्राइसिस ऑफ मैन’ नामक ग्रंथ में विख्यात विचारक पाल ब्रंटन लिखते है कि अध्यात्म की खोज वस्तुतः अपने ही अंदर की खोज है, जबकि संसार जड़ पदार्थों के अनुसंधान की यात्रा है विज्ञान जड़युक्त है। अध्यात्म चेतनामय है। जड़ से जड़ की ही शोध की जानी चाहिए। उससे जो कुछ हस्तगत होगा, वह जड़वत् होगा, जबकि आनंद दिव्य चेतनात्मक स्थिति है। यह आत्मा का स्वाभाविक गुण है। आत्मा चैतन्य है, अस्तु उसे उपलब्ध कर ही उस अवस्था में प्रतिष्ठित हुआ जा सकता है, जिस अध्यात्म में ‘सच्चिदानंद’ कहकर निरूपित किया गया है। वे लिखते है कि इन दिनों भूल यह हो रही है कि जड़ में चेतन को खोजते फिर रहे है। परा प्रकृति को अपरा प्रकृति में ढूंढ़ रहे हैं, जबकि दोनों दो पृथक विज्ञान है। जिस दिन यह निरर्थक प्रक्रिया बंद होगी, उसी दिन से मनुष्य की वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा शुरू होगी। फिर उसे शाँति और संतोष के लिए बाहर भटकना नहीं पड़ेगा।
इसके लिए उपाय यही है कि हम उपलब्ध साधनों में संतुष्ट रहना सीखें। धीरे-धीरे संतोष को बढ़ाएं उसे साधन-संपदा से न जोड़े, तो एक दिन उस अवस्था में पहुँच सकते है, जिसको ‘सहजानंद’ कहा गया हैं यह उच्च आध्यात्मिक स्थिति है। फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम साधनहीन हैं या साधनसंपन्न। सच तो यह है कि उक्त मनोदशा का भौतिकता से कोई संबंध नहीं। यह एक अभौतिक अवस्था है। अस्तु, प्राप्तव्य है। इसके विपरीत यदि हम साधन-सुविधाओं से सुख-संतोष को जुड़ा मानें, तो उसके दुःख भी हमारे साथ संलग्न होते चले जाएंगे। यह बहुत ही कष्टकारक होगा। इसलिए विवेकवान् लोग सुख की सुविधाओं से नहीं संयुक्त करते, क्योंकि वे जानते है कि यह पंचभौतिक जगत् नश्वर है। जो संसार नश्वर है और जहाँ की समस्त वस्तुएं नाशवान हैं, उनसे प्रापित सुख शाश्वत कैसे हो सकता है। अतएव तत्ववक्ताओं ने प्रेम की वस्तु परमात्मा को बतलाया हैं हमारी आत्मा उसी की अंशधर है। आत्मपरिष्कार द्वारा आत्मा और परमात्मा को उपलब्ध करना एवं उनका मिलन करना अध्यात्म का उद्देश्य है। सर्वोच्च शाँति और परमानंद उसी अवस्था में प्राप्त किया जा सकता है। इसी निमित्त हम सबका प्रयत्न होना चाहिए।