विक्रम संकल्प ही बनेगा हमारी सही पहचान

April 2002

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नव संवत्सर विक्रम संवत् 2059 का आगमन हो गया है। नव वर्ष की खुशियाँ प्रकृति में सब ओर छलक उठी है। गाँव के किसान अपनी नयी फसल को लेकर उत्साहित हैं। ज्योतिष के ज्ञाता अपने पंचाँग के पन्ने उलटकर भविष्य को बाँचने में जुटे हैं। उत्साह और भविष्य की ज्योति रश्मियों के साथ नव वर्ष का यह शुभारम्भ हम भारतवासियों के लिए प्रेरणा पर्व भी है। इसमें एक ऐसी शुभ प्रेरणा, जिसका प्रवर्तन सम्राट वीर विक्रमादित्य ने आज से 2058 वर्ष पूर्व किया था। धूमिल अतीत में सम्राट विक्रम के स्मारक स्वरूप जिस विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ था, उसके पथ की वर्तमान रेखा यद्यपि तमसाच्छन्न है, फिर भी इस डोर के सहारे हम अपने आप को उस शृंखला के क्रम में पाते हैं, जिसके अनेक अंश अत्यन्त उज्ज्वल एवं गौरवमय रहे हैं।

विक्रम संवत् के ये दो हजार अट्ठावन वर्ष तो भारतीय इतिहास के उत्तरकाल के ही अंश हैं। विक्रम के उद्भव तक विशुद्ध वैदिक संस्कृति का युग, रामायण ओर महाभारत का समय, महावीर एवं गौतमबुद्ध का काल, पराक्रम सूर्य चन्द्रगुप्त मौर्य एवं प्रियदर्शी अशोक का काल, अन्ततः पुष्यमित्र शुँग की साहस गाथा सुदूरभूत बातें बन चुकी थी। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, सूत्रग्रन्थ एवं मुख्य स्मृतियों की रचना हो चुकी थी। व्याकरणाचार्य पाणिनि एवं योगी पतंजलि अपनी कृतियों से पण्डितों एवं साधकों को चकित कर चुके थे। उन पिछले दो हजार अट्ठावन वर्षों की लम्बी यात्रा में भी भारत के शौर्य ने, उसकी प्रतिभा एवं विद्वता ने जो मान स्थित किए, वे अद्भुत एवं अनुपम हैं।

विक्रम संवत् के प्रवर्तन के प्रथम हजार वर्षों में सर्व प्रत्यक्षदर्शीकाल ने शिवनागों, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, स्कन्दगुप्त, यशोधर्मन, विष्णुधर्मन आदि के बल और प्रताप के सम्मुख विदेशी शक्तियों को थर-थर काँपते हुए देखा, विश्वगुरु भारत का साँस्कृतिक एवं राजनैतिक वैभव देखा, भारत के उपनिवेश बसते देखे, भारत देश की संस्कृति और उसके धर्म का प्रसार बाहर के देशों में देखा। कालिदास, भवभूति, भारवि, माघ आदि की काव्य प्रतिभा तथा दण्डि और बाणभट्ट की विलक्षण लेखन शक्ति देखी, कुमारिल, भट्ट एवं शंकराचार्य का बुद्धि वैभव देखा और स्वतंत्रता की अग्नि को सदैव प्रज्वलित रखने वाली राजपूत जाति के संगठन व उत्थान को देखा। हालाँकि विक्रम संवत् की दूसरी शताब्दी में काल गति विपरीत हो गयी। भारत के भाग्य चक्र की गति उलट गयी। इसी उलटी एवं विपरीत गति ने भारतीय उपनिवेशों का उजड़ना दिखाया। और भारतीयों ने देखी अपनी हार और देखा अपना बहुमुखी पतन। परन्तु देश की आन्तरिक जीवनी शक्ति अभी चुकी नहीं थी। स्वतंत्रता के समर्थ आन्दोलन ने विदेशियों को देश से बाहर खदेड़ कर यह दिखा दिया कि गिरकर भी कैसे उठा जा सकता है?

भारत देश की देव संस्कृति पर दैवीदर्प रखने वालों के लिए यह कम गर्व और गौरव की बात नहीं है कि- आज भारत वर्ष में प्रचलित विक्रम संवत्सर, बुद्ध निर्वाण काल गणना छोड़कर संसार भर के प्रायः सभी प्रचलित ऐतिहासिक संवतों से अधिक प्राचीन है। हालाँकि इस प्राचीनता में निहित इसकी प्रेरणा दिव्य एवं नवीन है। सम्राट विक्रम की शौर्य गाथा, विदेशी घुसपैठियों शकों को खदेड़ भगाने की इतिहास कथा काल क्रम से भले ही पुरानी हो, परन्तु उसका तेज अभी भी प्रखर एवं भास्वर है।

इतिहासकारों को मतभिन्नता के कुहासे को भेदकर अपने आप ही प्रकट हो जाता है कि विक्रम अवन्तिनरेश गंधर्वसेन एवं माता सौम्यदर्शना के सुपुत्र एवं योगिवर महाराज भर्तृहरि के सहोदर भ्राता थे। किसी भी बात पर एकमत न होने का हठ रखने वाले इतिहासवेत्ता भी इस सत्य को तो स्वीकार करते ही हैं कि भारत देश में शकों-हूणों ने घुसपैठ की। यहाँ की संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया। भारतीय सभ्यता को अपनी बर्बरता से आतंकित करने की कोशिश की। उनके इस धृष्ट और दुष्ट प्रयास को धूल-धूसरित करने के लिए सम्राट विक्रम नाम के युग सत्य का आविर्भाव हुआ। और जिस तरह से त्रिपुरदैत्य को नष्ट करने के बाद भगवान् शिव त्रिपुरारि कहलाए, ठीक उसी तरह बर्बर आतंकवादी शकों को नष्ट करने के बाद सम्राट विक्रम शकारि कहाए।

इस ऐतिहासिक सत्य के अनुरूप ही विक्रम का शाब्दिक अर्थ भी है। वैदिककाल में विक्रम शब्द का प्रयोग आगे बढ़ने के अर्थ में होता था। बाद में यही शौर्य एवं बल का द्योतक हो गया। विक्रम के इन शाब्दिक अर्थों से यही बोध होता है कि सम्राट विक्रम का युग भारतीय इतिहास का वह युग था, जिसमें सभ्यता के धीमे पड़ते हुए स्रोत में एक ऐसी बाढ़ आयी, जिससे युग-युगान्तर से जमी हुई कीच-काई बह गई। और आप्लावित भूमि पर नयी, उर्वर मिट्टी की परत आयी, जिसमें उत्पादित अपार आत्मिक अन्नराशि ने मानव जाति का भरपूर मानसिक एवं आध्यात्मिक पोषण किया। साथ ही उसमें ऐसे अनगिन-अगणित रंग-बिरंगे सुगन्धित साँस्कृतिक पुष्प खिले, जिन्होंने अपनी सुरभि से दसों दिशाओं को भर दिया।

सभ्यता-संस्कृति की इसी विजय के उपलक्ष में सम्राट विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् का प्रवर्तन किया। सम्राट विक्रम द्वारा विक्रम संवत् के इतिहास-सत्य को यूरोपीय विद्वानों में प्रमुख डॉ. स्टेनकरेनो ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। यही बात इस जैन गाथा में भी स्वीकारी गयी है-

कालान्तरेण केणाई उप्पादिट्ण संगाण संबंसम्। जापो मालवराया नामेण विक्कमाइच्च॥65॥

तथा

नियवो संवच्छरो जेण॥68॥ (कालकाचार्य कथानक)

सम्राट वीर विक्रमादित्य की यह विजय बर्बर आतंकवाद पर भारतीय संस्कृति की विजय थी। उनकी यह विजय जन-गण की विजय थी, मालव विजय थी और सबसे बढ़कर मानव विजय थी। इस विजय में एक सन्देश था, जो सर्वकालिक है। यह सन्देश है कि बर्बरता के विरुद्ध यदि जन-आन्दोलित हो उठे, तो बर्बरता टिक नहीं सकती। आतंकवाद के विरोध में राष्ट्रनायक यदि विक्रमादित्य की भाँति संकल्पित एवं सजग होंगे- तो आतंक का सर्वनाश एवं देश की संस्कृति का उत्थान निश्चित है। विक्रमादित्य द्वारा किए गए संवत् प्रवर्तन में निहित इस सन्देश को उनके बाद के राष्ट्र नायकों ने समय-समय पर हृदयंगम करने की कोशिश की। और इसी का परिणाम है कि बाद में भी विदेशी घुसपैठियों से संघर्ष किया जाता रहा। जिसने भी इस संघर्ष में अपने अद्वितीय पराक्रम का प्रदर्शन करके विजय पायी, उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। सम्राट शालिवाहन एवं गुप्तवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा विक्रमादित्य उपाधि धारण करना इसी इतिहास-सत्य को व्यक्त करता है।

बृहत्कथामञ्जरी में संवत्सर प्रवर्तक सम्राट वीर विक्रम की शक-विजय का विवरण इस प्रकार दिया गया है-

ततो विजित्य समरे कलिंगनृपतिं विभुः राजा विक्रमादित्यः स्रींप्रायः विजयश्रिम्।

अथ श्री विक्रमादित्यो हेलया निर्जिताखिलः।

म्लेच्छान काम्बोजयवनान् नीचान् हूणान् सबर्बरान्। तुषारान् पारसीकाँश्च त्यक्ताचारान् विशृंखलान्। हत्वाभ्रूमंगमात्रेण भुवो भारमवारयत्। तं प्राह भगवान् विष्णुस्त्वं ममाँशो महीपते। जातोसि विक्रमादित्य पुरा म्लेच्छशंशाकतः।

बृहत्कथामञ्जरी के इस विवरण में सम्राट विक्रमादित्य को भगवान् विष्णु का अंशावतार बताकर यह सत्य प्रकट किया गया है, कि उन्होंने शक-हूण-यवनों को मारकर, भगाकर पृथ्वी का भार दूर किया। आज भी भारत देश की धरती भारतवासियों के उसी शौर्य का आह्वान करती है। जो बर्बरता और आतंक को पराजित कर संस्कृति की विजय सिद्ध कर सके। विक्रम संवत् के प्रवर्तक सम्राट विक्रम का मान रख सके। देशवासियों का विक्रम संकल्प ही विक्रम संवत् की सही पहचान बन सकेगा। इसी संकल्प में नववर्ष के आगमन का सच्चा उल्लास और उछाह है।


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