परमतत्व का सत्य

April 2002

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महाराज विश्वजित् विश्व के सर्वोच्च धर्म की खोज में थे। उन्हें एक ऐसे धर्म की खोज थी जो सब तरह के दोषों से मुक्त और सर्वश्रेष्ठ हो। अपने इस अन्वेषण में वह किशोर से वृद्ध हो चले, परन्तु उनकी खोज पूरी न हो पायी। और यह पूरी होती भी कैसे? क्योंकि जीवन है अल्प, और ऐसी खोज है विचित्र। जीवन अनन्त हो तो भी शायद इसे पूरा न किया जा सके। कारण कि धर्म तो वस्तुतः धर्म ही है, वह तो एक ही, शाश्वत और सनातन। इसलिए यहाँ ऊँचा-नीचा निकृष्ट और श्रेष्ठ, क्या और कैसे हो सकता है?

तात्त्विक दृष्टि से धर्म की अनेकता ही भ्रामक है, इसलिए सर्वोच्च की खोज भी सार्थक नहीं है। जहाँ अनेक नहीं है, एक ही है, वहाँ तुलना के लिए और तौलने के लिए न अवकाश ही है, न आवश्यकता। पर राजा विश्वजित् को इस तत्त्वज्ञान से क्या प्रयोजन? वह तो राजहठ के वशीभूत थे। उन्हें खोज तो थी सर्वोच्च धर्म की, किन्तु जीवन यात्रा गतिमान थी निष्कृष्ठतम अधर्म में। जब सत्य-धर्म उन्हें मिल ही नहीं रहा था, तो धर्म की दिशा में अपने जीवन को ले जाने का प्रश्न ही नहीं था। अंधेरे और अज्ञात में भला कहीं कोई जाता है? अधर्म के सम्बन्ध में कभी कोई सवाल नहीं करता। लेकिन धर्म के विषय में शायद ही कोई ऐसा हो जो पूछताछ न करे, तर्क और बहस में शामिल न होना चाहे। मानव जीवन की बड़ी ही निष्ठुर विडम्बना है कि अधर्म के बारे में कभी कोई विचार या खोज नहीं की जाती, उसे तो बस जिया जाता है। जबकि धर्म पूछताछ, तर्क जाल एवं बहस की कोठरी में कैद रहता है। शायद यह अधर्म में जीने और धर्म में जीने से बचने की कारगर विधि है।

महाराज विश्वजित् से यह सत्य कभी कोई कहता न था। उल्टे इस सच के उलट अलग-अलग धर्मों के पण्डित, मौलवी, पादरी, ग्रन्थी एवं दार्शनिक आते और उनकी खोज को प्रोत्साहन देते। वे एक दूसरे से लड़ते थे। एक-दूसरे के दोष दिखलाते थे। वे दूसरों के गुणों को भी दोष सिद्ध करते और अपने दोषों को गुण बताने का प्रयास करते। परस्पर भ्रान्ति एवं अज्ञान को सिद्ध करने में वे सबके सब भ्रान्ति एवं अज्ञान में घिर गए थे। उनके इस तरह के झगड़ों से राजा को भारी प्रसन्नता होती। इस भाँति उन्हें सहज ही आश्वासन की सुखद प्रतीति होती कि जब सारे ही धर्म दोषपूर्ण हैं, तो फिर अधर्म में जीते रहने में क्या बुराई है। विभिन्न धर्मों के नुमाइन्दे उसके सामने आपस में लड़ते रहते और उसे अधर्म में जीते रहने के नए-नए सहारे मिलते जाते।

अब राजा विश्वजित् को धर्म के के पक्ष में जीतना कठिन हो गया था। क्योंकि धार्मिकों के जितने भी पक्ष थे, उनमें से कोई स्वयं ही धर्म के पक्ष में नहीं था। सच भी यही है पंथ, पक्ष, सम्प्रदाय सिर्फ अपने अहंपूर्ण मतवाद के पक्ष में होते हैं, धर्म एवं सच्ची धार्मिकता से उनका कोई प्रयोजन नहीं होता। और हो भी नहीं सकता, क्योंकि जो सारे पक्ष छोड़ता है, वही धर्म का हो सकता है। निष्पक्ष हुए बिना धार्मिक होना सम्भव नहीं है। साम्प्रदायिकता अन्ततः धर्म की शत्रु और अधर्म की मित्र सिद्ध होती है।

लेकिन महाराज विश्वजित् को तो जैसे उनकी खोज एक खेल बन गयी थी। लेकिन जिस अधर्म में वे जी रहे थे, वह भी दुःख-चिन्ता एवं पीड़ा बढ़ाने लगा। यह हो भी क्यों नहीं, अधर्म के शाश्वत परिणाम है ये सब। अब तो उन्हें अपनी मृत्यु भी करीब दिखने लगी थी। जीवन की फसल काटने के दिन जब करीब आ गए, तो वह बहुत उद्विग्न व परेशान हो उठे। लेकिन अपने विचित्र आग्रह के कारण वह सर्वोच्च एवं आत्यंतिक निर्दोष व पूर्ण धर्म के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। साल दर साल बीतते गए और वह अपने ही हाथों स्वयं को गहरे कीचड़ में फंसाते चले गए। और अन्ततः उन्हें स्वयं मृत्यु की दस्तक साफ-साफ सुनायी देने लगी।

एक दिन अपढ़ सा लगने वाला एक युवा साधु उसके द्वार भीख माँगने आया। राजा को बेहद चिंतित, उदास व खिन्न मन देखकर उसने कारण पूछा। राजा ने उसकी ओर एक नजर देखा फिर निराशा जनक स्वर में कहा, जानकर भी तुम क्या करोगे? बड़े-बड़े पण्डित और आलिम भी मेरी समस्या नहीं सुलझा सके हैं। वह भिक्षुक साधु बोला- यह भी तो सकता है कि उनका बड़ा होना ही उनके लिए बाधा बन गया हो? फिर पण्डित और आलिम तो कभी कुछ नहीं कर सके हैं। एक पल रुककर उसने अपनी बात पूरी करते हुए कहा- कपड़ों से भी क्या साधु और सन्तों की पहचान होती है।

अब विश्वजित् ने उसे गौर से देखा। उसकी आँखों में कुछ था जो सम्राटों की आँखों में भी नहीं होता। भिक्षा माँगने वाले इस युवा साधु को उसने मात्र भिखारी समझ लिया था। परन्तु उसके तेजोदीप्त निर्दोष नयन उसे कुछ विशेष बता रहे थे। राजा को असमंजस में पड़ा हुआ देख वह युवा कहने लगा- महाराज मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता हूँ। असल मैं हूँ ही नहीं। लेकिन जो है, वह सचमुच ही कुछ कर सकता है, बहुत कुछ कर सकता है। उसकी बातें अद्भुत थीं। अब तक आए हुए विद्वानों, मठाधीशों से वह एकदम भिन्न था। राजा सोचने लगा, ऐसे दीन-हीन वेश में यह कौन है?

फिर भी प्रकट रूप में उसके मुख से यही स्वर मुखर हुए, मैं सर्वोच्च धर्म की खोज कर अपने जीवन को धर्ममय बनाना चाहता था, लेकिन यह नहीं हो सका और अब अन्त समय में मैं बेहद संतप्त हूँ। मैं अब तक समझ नहीं पाया कि कौन सा धर्म सर्वोच्च है, किसे स्वीकारा जाय। राजा की इन बातों पर भिक्षु सा दिखने वाला वह साधु खूब जोर से ठहाका लगाकर हंसा, फिर बोला- राजन! आप गाड़ी के पीछे बैल बाँधकर गाड़ी चलाना चाहते हैं, इसलिए दुःखी हैं। धर्म की खोज करने से जीवन धर्म नहीं बनता, जीवन के धर्म बनने से धर्म की खोज पूरी होती है। और यह किस तरह का पागलपन है कि आप सर्वोच्च धर्म खोजना चाहते हैं? अरे धर्म की खोज ही काफी है। सर्वोच्च धर्म? ये तो शब्द ही अनसुने और असंगत है। धर्म सिर्फ धर्म होता है, इसमें जोड़ने-घटाने जैसा कुछ भी नहीं है।

उस युवा साधु की बातें बड़ी ही प्रभावकारी थीं। वह कह रहा था- महाराज, जो पूर्णवृत्त नहीं है, वह वृत्त ही नहीं है। वृत्त का होना ही उसकी पूर्णता है। धर्म का होना ही उसकी निर्दोष, निरपेक्ष सत्यता है। सर्वोच्च धर्म को सिद्ध करने के लिए जो भी तथाकथित ज्ञानी आपके पास आए, वे किसी भी तरह से ज्ञानी नहीं, पागल या पाखंडी थे। क्योंकि जो ज्ञानी हैं, वह धर्मों को नहीं केवल धर्म को ही जानता है।

भाव विह्वल महाराज विश्वजित् उस युवा भिक्षु साधु के पाँव पकड़ लिए। उसने कहा, अरे यह क्या, मेरे पाँवों को छोड़े, इन्हें अपने हाथों से न बाँधे। मैं तो आपके पाँवों को भी बन्धन मुक्त करने के लिए आया हूँ। राजधानी के बाहर नदी के पार चलें। वहीं मैं धर्म के तत्त्व को बताऊँगा। राजा उस युवा साधु के साथ नदी-तट पर पहुँचे। नदी पार करने के लिए राजधानी की श्रेष्ठतम नावें मंगायी गयीं। लेकिन वह साधु हर नाव में कोई न कोई दोष बता देता। काफी देर तक इसे देखने और सहने के बाद विश्वजित् परेशान हो उठे। उन्होंने कहा- महात्मन्! हमें तो सिर्फ छोटी सी नदी पार करनी है। इसे तो मुझ जैसा वृद्ध व्यक्ति भी तैर कर पार लेगा। मैं तो कहता हूँ, छोड़ें इन नावों को, तैर कर ही इसे पार कर लें। बेकार में विलम्ब क्यों किया जाय?

साधु को जैसे राजा की इसी बात की प्रतीक्षा थी। उसने जवाब में कहा, यही तो मैं कहना चाहता हूँ महाराज। धर्म पंथों की नावों में क्यों अटकें हैं? क्या यह उचित नहीं है कि परमेश्वर की ओर स्वयं ही तैर चलें। सच तो यह है कि धर्म की कोई नाव नहीं है। नावों के नाम पर सब मल्लाहों का व्यापार है। एक मात्र मार्ग तो स्वयं ही तैरना है। सत्य स्वयं ही पाना पड़ता है, उसे कोई दूसरा नहीं दे सकता। सत्-चित-आनन्द रूपी सत्य-सागर में खुद ही तैरना होता है। यहाँ कोई दूसरा सहारा नहीं है, सहारा हो भी नहीं सकता। जो सहारे खोजते हैं वे किनारे ही डूब जाते हैं। और जो स्वयं तैरने का साहस करते हैं, वे डूबकर भी पार हो जाते हैं, अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं। साधु की इन बातों से राजा विश्वजित् को तत्त्व बोध हो गया। जो सत्य वर्षों-वर्ष विद्वानों की बहस में न मिला,वह एक पल में उजागर हो गया। जीवन की भटकन थम गयी। वह आत्म निमग्न होने लगे। उन्हें अपनी ही गहराइयों में कहीं अस्पष्ट, किन्तु मधुर गूंज सुनायी देने लगी- ‘तत्त्वमसि’। उन्हें अहसास हो गया कि यही सत्य तो धर्म का सतस्य सत्य एवं सर्वोच्च सार है।


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