एक संत मरने के बाद परलोक में पहुँचे। चित्रगुप्त ने उनसे कर्मों का लेख-जोखा पूछा। संत ने बताया, तीन-चौथाई जीवन तो घर-गृहस्थी के काम-धामों में बीता और एक-चौथाई एकाँत जीवन के भजन-पूजन में लगा।
जितना समय परिश्रम और पुण्य-प्रयोजनों में लगा, उसी को परमार्थ माना गया और उस अनुपात से पुण्य मिला। भजन-पूजन वाले दिन तो अपने निज के लाभ भर के लिए माने गए और उतने दिन परमार्थरहित होने के कारण सामान्य ही माने गए।
संत की मान्यता से चित्रगुप्त का निष्कर्ष ठीक उलटा निकला। जिस श्रम-साधना के समय को वे प्रपंच मानते रहे, वही अनेकों को सुविधा पहुँचाने और ऋण चुकाने के कारण परमार्थ गिना गया।