निर्वाण परम सुख

April 2002

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भगवान् बुद्ध ने उसकी ओर देखा। बड़ी पारदर्शी और करुणापूर्ण थी वह दृष्टि। उनके अलौकिक जीवन की ही भाँति उनकी दृष्टि भी अनोखी थी। यह ऐसी दृष्टि थी जो बाहर ही नहीं भीतर भी देखती थी। रूप और आकार को ही नहीं, स्वभाव एवं संस्कारों को भी निहारती थी। बड़े ही सौभाग्यशाली होते वे, जिन्हें प्रभु भर नजर देख लेते। आज उसके जीवन में सौभाग्य-सूर्य की किरणें झिलमिलायी थी। प्रभु की करुणा उसे छू रही थी और वह धन्य हो रहा था।

बड़ी ही मुश्किल से मिले थे ये पल उसे। इन दिनों भगवान् आलवी नगर आए थे। उनके साथ पाँच सौ भिक्षु भी थे। प्रभु के साथ भिक्षुओं की उपस्थिति ऐसी थी, जैसे सूर्य के साथ किरणें होती हैं। ये किरणें चारों ओर सूर्य की प्रभा-प्रकाश बिखेरती हैं। इन्हें देखकर बरबस ही सूर्य की उपस्थिति का अहसास हो जाता है। प्रभु का भिक्षु संघ भी कुछ ऐसा ही था। भिक्षु संघ के सदस्यों से भगवान् की अलौकिक चेतना झरती, बहती और बिखरती थी। आलवी नगर में इस समय यही हो रहा था। भगवान् की उपस्थिति की सुगन्ध सब ओर फैल रही थी।

उसकी चेतना भी इसके स्पर्श से अछूती न रही। भगवान् आए हैं, उसने भी सुना, जाना और अनुभव किया। और तब- मैं भी भगवान् के दर्शन करूंगा। ऐसा निश्चय उसके मन में उभरा। इस निश्चय ने उसे भारी खुशी दी। उसकी अन्तर्चेतना खुशी की तरंगों से तरंगित होती रही। सुबह-सुबह उठकर भगवान् के वास-स्थान की ओर जाने के लिए उसने पहला-पग बढ़ाया ही था। तभी उसे दिखाई दिया कि उसका एक बैल कहीं गायब है। अब क्या करे? पहले से ही वह गरीबी के दंश का दर्द झेल रहा था। उसकी तरह गरीबी की मार सहने वाला, शायद पूरे आलवी नगर में और कोई न था। बैल के भाग जाने से गरीबी का दर्द अनायास ही असह्य एवं सघन हो गया।

व्यथित-पीड़ित वह बैल को खोजने के लिए चल पड़ा। गली, खेत, वन की भटकन से उसके पाँव दुःख आए। बैल को खोजते हुए बीच-बीच में वह सोचने लगता, क्या मेरे ही मन में कोई खोट है, जो प्रभु से नहीं मिल पा रहा हूँ। उसकी भटकन अब थकान बन गयी थी। अब उससे रहा न गया, वह व्यथित मन से पुकार उठा- अंगुलीमाल का उद्धार करने वाले हैं तथागत! प्रभु, मुझे भी अपनी शरण में लो। उसकी पुकार इतनी गहरी और सघन थी, कि उससे सूक्ष्म स्पन्दित हो उठा। इसका सुखद परिणाम भी उसे कुछ ही पलों में दिखाई दिया। उसका बैल वन में एक ओर खड़ा घास चर रहा था। उसने भागकर उसकी रस्सी पकड़ी और घर की ओर लौट पड़ा।

अब तक दोपहर हो आयी थी। उसने अभी तक कुछ खाया भी न था। पर भगवान् के दर्शन की खुशी ने उसकी भूख एवं थकान दोनों को ही हर लिया था। उसके हृदय में कृतज्ञता के अहोभाव थे। अन्तर्यामी प्रभु सब कुछ सुनते हैं, सभी कुछ जानते हैं। भक्ति के उद्रेक से उसकी गति तीव्र हो गयी। पल-क्षण पता नहीं चले, इनकी गणना भी कौन करे? वह तो बस भगवान् के समीप पहुँच गया। भीड़ से घिरे परम करुणावान भगवान् बुद्ध ने उसके पहुँचते ही उसे अपने पास बुला लिया। बड़ी ही प्रीतिपूर्ण नजरों से उसकी ओर देखा। फिर अपने एक शिष्य महाकाश्यप की ओर इशारा करके कहा- भन्ते! इनके लिए यहीं भोजन ले आओ।

भगवान् के इन वचनों से सभी को भारी अचरज हुआ। न कोई बात, न चीत, बस सीधे भोजन। वह भी भोजनालय में नहीं, ठीक अपने सामने। सबके सब कौतुहल एवं आश्चर्य में थे। लेकिन प्रभु-अनुगत महाकाश्यप ने शीघ्र ही आज्ञा पालन किया। उन्हें ज्ञात था कि भगवान् अकारण कुछ नहीं कहते, कुछ नहीं करते। भोजन की थाली से एक कौर तोड़कर प्रभु जब स्वयं उसको खिलाने लगे तो भिक्षु संघ का आश्चर्य शतगुणित हो गया। उसकी आँखों में तो आँसू आ गए। आँसू की इन गोल बूँदों में भक्ति का भूगोल उभर एवं छलक रहा था। उसे यह भी नहीं समझ में आया, कि जिन प्रभु की सेवा उसे स्वयं करनी चाहिए, वह स्वयं उनकी सेवा कैसे स्वीकार करे?

असमंजस में उसने काफी न-नुकुर की। भगवान् उसके संकोच को जान गए। वह बोले संकोच त्याग दो वत्स कौशल्यायन। इसे मेरी आज्ञा मानो या अनुरोध प्रीतिपूर्वक भोजन करो। भगवान् ने हठपूर्वक उसे भोजन कराया। उसका समूचा अस्तित्त्व रोमाँचित हो आया। जब से वह आया, तभी से चुप था। अभी भी वह कुछ न बोला। बस आनंदपूर्वक प्रभु के हाथों से कौर खाए। भोजन के उपरान्त भगवान् ने कहा, अब तुम उस पास के पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करो। बुद्ध की इस बात को सुनकर वह चुपचाप उठा और जाकर पेड़ के नीचे बैठ गया। बैठते ही वह गहरी समाधि में खो गया। उसकी यह भावदशा भिक्षुओं से छुपी न रही। उन्हें परम आश्चर्य हो रहा था कि ध्यान का परम फल भोजन से किस तरह मिल गया? अन्ततः सबने भगवान् से जिज्ञासा की।

तब भगवान् ने यह गाथा कही-

जिघच्छा परमा रोगा संखारा परमा दुखा। एतं ञत्वा यथाभूतं निब्बानं परमं सुखं॥

भिक्षुओं, भूख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।

भगवान् की इस गाथा को भिक्षु संघ बड़े ही मनोयोग से सुन रहा था। भगवान् बता रहे थे, कौशल्यायन की भूख गहरी थी। उसका शरीर ही नहीं, उसकी जीवन चेतना भूखी थी। उसे अपने संस्कारों के गहरे दुःख का बोध था। मुझ तक पहुँचने तक उसकी वेदना ही वेद बन गयी थी। और यही कारण है कि जब मैंने उसे अपने हाथों से भोजन कराया, तो उसे परम तृप्ति मिली। अकेली देह नहीं, समूचा अस्तित्त्व तृप्त हो गया। वेदना वेद में रूपांतरित हो गयी। दुःख का घना अंधेरा ज्ञान के उजाले में बदल गया। और उसे पल में ही स्रोतापत्ति का फल मिल गया।

यह स्रोतापत्ति क्या है भगवन्? महाकाश्यप पहली बार बोले।

भदन्त स्रोतापत्ति का अर्थ है स्रोत में पड़ जाना। और स्रोतापत्ति के फल का मतलब है- स्रोत में पड़ जाना ही नहीं स्रोत में विलीन हो जाना। बुद्धत्व ही जीवन का परम स्रोत है। भन्ते कौशल्यायन की जीवन चेतना पहले तो तृप्ति की छुअन के साथ बुद्धत्त्व के परम स्रोत में पड़ी और अब तुम सब देखो वह गहरी समाधि में लीन है। यानि की वह बुद्ध के परम स्रोत में विलीन हो गए हैं। उन्होंने अब जान लिया है- ‘निब्बानं परमं सुखं’ अर्थात् निर्वाण परम सुख है।

भगवान् के इन वचनों के साथ ही सभी ने कौशल्यायन के मुख की ओर देखा। सचमुच ही उनके मुख पर निर्वाण का परमतेज छा गया था। चेहरे पर एक अनोखी अलौकिक आभा फैल रही थी। एक अनूठा संगीत उनके अस्तित्त्व में गूँज रहा था। जिसकी मधुर धुन उत्तरोत्तर गहरी होती जा रही थी। अब तो भिक्षु संघ के प्राण भी इससे झंकृत होने लगे। सभी जान गए कि कौशल्यायन के अस्तित्त्व में आज पात्रता और कृपा का मिलन हुआ है।

बुद्ध कह रहे थे- भिक्षुओं, पात्रता हो तभी कृपा असरकारक होती है। जो यह जान लेता है कि भूख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं, वही यह जानने में समर्थ होता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।

इस धम्मपद को सुनाकर भगवान् मौन में डूब गए। भिक्षु उनके वचनों को सुनकर गुनने लगे। उनमें से कई तो स्रोतापत्ति की ओर अंतर्गमन भी करने लगे। भगवान् तथागत की कृपादृष्टि एवं कृपावृष्टि का अहसास अनुभव में बदलने लगा।


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