एक कला जिसके सुनियोजन पर राष्ट्र की रक्षा संभव है।

April 2002

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गुप्तचर्या का आदिम रूप पूर्णतः बुद्धि-चातुर्य पर अवलंबित था, तब बौद्धिक निपुणता ही इसकी सफलता-विफलता का मूलभूत आधार हुआ करती थी। जो जितने मेधावी और प्रत्युत्पन्नमति संपन्न होते थे, उनकी इस विद्या में उतनी ही अधिक पैठ होती और वे इसे उतनी ही दक्षतापूर्ण संपादित करते थे, पर आज स्थिति दूसरी है। विज्ञान के पदार्पण ने इस कला को पूर्णरूपेण याँत्रिक बना दिया है। अब साधारण बुद्धि भी वैज्ञानिक यंत्र-उपकरणों के माध्यम से यह कार्य उतनी ही कुशलतापूर्वक कर गुजरती है, जितनी कि पहले प्रखर मेधा कर सकने में समर्थ थी। इसके लिए इन दिनों छोटे-बड़े नानाप्रकार के जासूसी उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है और इस विधा को एक नया आयाम दिया जा रहा है।

18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब विज्ञान ने मानवी जीवन को अनुगृहीत करना प्रारंभ किया, तो उसने समाज की कई धाराओं को भी प्रभावित किया और उन्हें सशक्त बनाया। इन्हीं में से एक गुप्तचर तंत्र भी ही। विज्ञान के निरंतर के अनुदानों से यह प्रणाली इतनी समृद्ध हुई कि देखते-देखते किसी की भी जासूसी कर लेना एकदम सरल हो गया। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह विद्या विकास की उन ऊंचाइयों को स्पर्श करने लगी है, जिसकी कि शायद ही कभी कल्पना की गई हो।

विज्ञान जब किसी विध के साथ संयुक्त होता है तो उसकी क्षमता और दक्षता ही नहीं बढ़ती, अपितु उसका ऐसा कायाकल्प होता है कि वर्तमान रूप को देखकर उसके पूर्ण स्वरूप का अंदाज लगाना तक कठिन हो। आज की गुप्तचर पद्धति विज्ञान के अनुग्रह का ऐसा ही जीवंत प्रमाण हैं इसमें मुश्किल से दिखाई पड़ने वाले अत्यंत छोटे यंत्रों से लेकर आकाश में मंडराने वाले विशालकाय उपग्रह तक प्रयुक्त होते हैं। यह सभी अपने सहयोगी मनुष्यों को प्रतिपक्ष की महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध कराते एवं उनकी वास्तविक शक्ति और प्रगति का अनुमान लगाने में मदद करते है। इससे दूसरे पक्ष को उन-उन क्षेत्रों में अपनी उन्नति और उत्कर्ष की रूपरेखा तैयार करने और तदनुरूप ताना-बाना बुनने में सहायता मिलती है।

उदाहरण के लिए उस कलाई घड़ी को लिया जा सकता है, जो पिछले दिनों अमेरिका की एक कंपनी ने विशेष रूप से तैयार की हैं यह घड़ी देखने में बिलकुल सामान्य प्रतीत होता है, लेकिन जरूरत पड़ने पर इसे गुप्तचर्या के एक असाधारण औजार के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसके भीतर एक शक्तिशाली माइक्रोफोन फिट होता है, जो घड़ी धारण करने वाले के वस्त्र के अंदर एक छोटे टेपरिकॉर्डर से संबद्ध रहता हैं आवश्यकता पड़ने पर दोनों को आन कर किन्हीं की भी बातचीत कहीं और कभी भी टेप की जा सकती है। इसी तरह एक डिजिटल कलाई घड़ी भी विकसित की गई है। इसमें एक अति लघु कैमरा लगा है। यह कैमरा एक बार में सौ के करीब तस्वीरें खींच और स्टोर कर सकता है।

इसी प्रकार का एक अन्य छोटा कैमरा ‘मिनोक्स’ है। इसका आकार इतना लघु है कि उसे मुट्ठी में आसानी से घुमाया जा सकता हैं दस्तावेजों के चित्र उतारने के लिए वह आदर्श माना जाता है, किन्तु इसके साथ कठिनाई यह है कि दस्तावेजों को पठनीय बनाने के लिए निगेटिव को 25 से 30 गुना बड़ा करना पड़ता है। पूर्व सोवियत संघ ने ऐसे कार्यों के लिए चाबी के छल्ले जैसे दिखाई पड़ने वाले कैमरे तैयार करवाए थे। इसमें लैंस की जगह ‘पिनहोल’ का इस्तेमाल किया गया था। वस्तु या व्यक्ति दूर हो या पास, इससे खींची गई तस्वीर एकदम साफ होती थी। अब लोगों पर दृष्टि रखने के उद्देश्य से भी कैमरे बनाए जा रहे है। इन कैमरों का लेंस माचिस की तीली के सिर के बराबर होता है। इन्हें प्रायः दीवार घड़ी के भीतर फिट किया जाता है और इनका लेंस घड़ी की दोनों सुइयों को कसने वाले पेंच के स्थान पर होता है। जब से ऐसे कैमरों का प्रचलन शुरू हुआ, तभी से जासूसी में इनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर आरंभ हो गया। ऐसे वीडियो कैमरे द्वारा की गई जासूसी का पहला मामला सन् 1979 में अमेरिका में तब प्रकाश में आया, जब ‘एबेस्कैम’ नाम से चलाए गए इस अभियान में सात अमेरिकी साँसद घूस लेते हुए पकड़े गये। उक्त वीडियो फिल्म द्वारा उपलब्ध कराए गए प्रमाण के कारण ही उन्हें जेल जाना पड़ा। पिछले दिनों भारतीय राजनीति में काफी समय तक छाए रहने वाले तहलका प्रकरण में भी ऐसे कैमरों का प्रयोग किया गया था।

आजकल सामान्य प्रयोग की वस्तुओं में ही ऐसे उपकरण लगा दिए जाते हैं कि सामने वाले को पता तक नहीं चलता कि वह साधारण-सी दीखने वाली वस्तु एक असाधारण जासूसी यंत्र है। ऐसी ही एक लिखने वाली कलम (पेन) गुप्तचर्या जगत् में विद्यमान हैं। यह दीखती और लिखती तो सामान्य कलम की तरह है, पर कार्य रेडियो ट्राँसमीटर जैसा करती है। इसमें एक अत्यंत शक्तिशाली नन्हा माइक्रोफोन फिट होता है। इसी के साथ एक सूक्ष्म ट्राँसमीटर ली लगा रहता है, जो कुशलतापूर्वक सिगनल भेजने का कार्य करता है। 5 मीटर की परिधि में बैठा कोई भी व्यक्ति रिसीवर के माध्यम से इन संदेशों को आसानी से सुन और रिकॉर्ड कर सकता है। पेन की बॉडी में एक छोटी बैटरी छिपी होती है, जिससे उसे लगातार ऊर्जा मिलती रहती है। यदि इस यंत्र से अनवरत रूप से काम लिया जाए, तो छह घंटे तक निरंतर उसे ऊर्जा मिलती रहती हैं

दिन के उजाले में तो किसी पर भी दृष्टि रखी जा सकती है, पर रात के अंधेरे में यह कार्य असंभव हैं मनुष्य की आंखें रोशनी में ही देखने की अभ्यस्त होती है, गहन निशा में तो उसे अपने शरीर के अंग भी दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसी स्थिति में शत्रु अपने कार्य आसानी से कर गुजरते है। इस दशा से बचने के लिए रात के अंधेरे में देखने वाले चश्मे विकसित किए गए है। इनसे इन्फ्रारेड किरणों की बौछार होती है, जो द्रष्टा को किसी भी वस्तु को साफ-साफ देखने में मदद करती है। इस चश्मे में टी.वी. कैमरे की तरह एक लेंस और ट्यूब लगी होती है, जो दृश्य बनाने का कार्य करती है। ट्यूबों की उपस्थिति में अंधकारपूर्ण दृश्य प्रकाशवान हो उठते है और जो आँख रात्रि में आमतौर पर कुछ भी नहीं देख पाती, उसे सब कुछ स्पष्ट दीखने लगता है। इस करिश्मे के पीछे चश्मे में लगी दो बैटरियों का महत्वपूर्ण हाथ है। यह बैटरियाँ चश्मे को ऊर्जा प्रदान करती है। ऊर्जा के अजस्र प्रवाह के कारण ही अवरक्त किरणों की निरंतर बौछार होती रहती है, जिसे सामने का शत्रु भलीभाँति दृश्यमान हो उठता है, जबकि उसे अपने प्रतिपक्षी का भान तक नहीं मिल पाता। ऐसा इसलिए कि अवरक्त किरणें अदृश्य स्तर की होती है। अतएव इन किरणों की मदद से देखने वाला सामने वाले को तो सुस्पष्ट देख लेता है पर स्वयं अगोचर बना रहता है।

इसी प्रकार रात के अंधेरे में तस्वीरें खींच सकने वाला एक कैमरा भी विकसित किया गया हैं। ऐसे कैमरे आमतौर पर जासूसी कार्य हेतु ही प्रयुक्त होता है। इन कैमरों की विशेषता यह है कि जलती सिगरेट से ही ये पर्याप्त प्रकाश ग्रहण कर बिलकुल साफ चित्र खींच सकते है। इसलिए इन कैमरों की आँखों से बचे रहने के लिए शत्रु पक्ष को सदा यह बात ध्यान में रखनी पड़ती है कि उसका कोई सदस्य ऐसी मुहिम में निकलने पर धूम्रपान से सदैव परहेज करे।

जासूसी प्रकरणों में यदि ‘बगिंग‘ और टेपिंग‘ जैसी प्रक्रियाओं का उल्लेख न हो, तो चर्चा अधूरी मानी जाएगी। यह दो ऐसी तकनीकें है, जिनका गुप्तचरी के कार्य में बढ़-चढ़कर उपयोग किया जाता है। शत्रुपक्ष क्या सोच रहा है और कैसी योजनाएं बना रहा है? यह उनके वार्तालापों से आसानी से जाना जा सकता है। उन्हें यदि सुन और टेप कर लिया जाए, तो उनके मनसूबों पर पानी फेरा जा सकना संभव हैं बगिंग और टेपिंग ऐसी ही दो प्रणालियाँ है, जिनमें प्रतिपक्ष की बातचीत को सुना और रिकॉर्ड किया जाता है। ‘बग‘ प्रायः उस मिनी और शक्तिशाली माइक्रोफोन को कहते है, जिन्हें जासूसी की जगह किसी उपयुक्त सामान में छिपा दिया जाता हैं। यह समान टेबल लैंप, गुलदस्ते, मेज, दीवार घड़ी, दरवाजे, पलंग, खिड़कियाँ आदि हो सकते है। इसके उपराँत जासूस किसी अन्य कमरे, भवन या पास खड़े वाहन में बैठकर अंदर की सारी बातचीत सुनते और रिकॉर्ड करते है। बगिंग की सबसे चर्चित घटना रूसियों द्वारा अमेरिकी दूतावास की जासूसी से संबद्ध हैं अमेरिका ने मास्को में जब पहली बार अपना दूतावास खोला, तो सोवियत संघ के दरवाजों पर लगाने वाले अमेरिकी प्रतीक चिन्ह उसके अधिकारियों को भेंट स्वरूप प्रदान किए। बाहर से देखने में तो यह सामान्य प्रतीक चिन्ह जैसे ही लगते थे, पर वास्तव में ये शक्तिशाली ‘बग‘ थे। इनके भीतर बड़ी कुशलतापूर्वक एक संवेदनशील स्प्रिंग लगाई गई थी। यह स्प्रिंग कमरे में होने वाली फुसफुसाहट जितनी धीमी बातचीत को भी पकड़ लेती थी और उन ध्वनि तरंगों के कारण काँपने लगती थी। रूसी जासूस इन कंपनों को राडार से पकड़कर उनकी बातचीत को जान लेते थे।

‘टेपिंग‘ प्रतिपक्ष की बातचीत को सुनकर रिकॉर्ड कर लेने की तकनीक को कहते है। इसका प्रयोग सामान्यतः टेलीफोन पर होने वाली बातचीत को सुनने और रिकॉर्ड करने में होता है। इसके लिए एक नन्हा ‘बग‘ टेलीफोन यंत्र लगा दिया जाता है। इससे संपूर्ण वार्तालाप टेप हो जाती हैं इस संदर्भ में ‘इनफिनिटी रिसीवर’ एक महत्वपूर्ण आविष्कार है। इस उपकरण को टेलीफोन लाइन के साथ संबद्ध कर दिया जाता हैं। उसके बाद जब उक्त कमरे का टेलीफोन नंबर डायल किया जाता है और साथ ही एक विशेष बटन दबाया जाता है, तो वह टेलीफोन अपना सामान्य काम करना बंद कर देता है और एक शक्तिशाली माइक्रोफोन में परिवर्तित हो जाता है। इस मध्य कमरे में हो रही किसी भी प्रकार की बातचीत को सुना ओर रिकॉर्ड किया जा सकता हैं। यह इतना शक्तिशाली यंत्र है कि विश्व के किसी भी स्थान में स्थित कमरे में हो रही वार्तालाप को सुना और टेप किया जा सकता हैं।

यह धरती पर धरती से होने वाली गुप्तचर्या की चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त आकाश में उड़ने वाले टोही विमानों और निरंतर परिक्रमारत उपग्रहों से भी यह कार्य संपन्न होते है। जासूसी विमानों में अमेरिका का ‘ईपीफ्’ विमान सबसे आधुनिकतम हैं। इसे आमतौर पर ‘फ्लाइंग पिग‘ के नाम से जाना जाता है। अरबों डालर की लागत से बना यह विमान अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफल साबित हुआ है। इससे आसमान में उड़ रहे दूसरे विमानों के बीच की बातचीत और उनके तथा कंट्रोल टावर के बीच की वार्तालाप को सुना और रिकार्ड किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इसमें टेलीफोन वार्तालाप को भी सुनने और टेप करने की व्यवस्था है। पिछले दिनों इसी विमान को लेकर अमेरिका और चीन में विवाद शुरू हुआ था। चीन का आरोप था कि वह उसके क्षेत्र में उड़कर जासूसी कर रहा था। इसी आधार पर उसने उसे अपने यहाँ उतार लिया। बाद में भारी जद्दोजहद के उपराँत उसे वहाँ से जाने की अनुमति दी गई।

ऐसे ही चौबीसों घंटे चक्कर लगाने वाले अमेरिकी जासूसी उपग्रहों की आँखों से कुछ भी छुपा नहीं रहता। हजारों किलोमीटर ऊपर परिक्रमा कर रहे इन उपग्रहों की आंखें इतनी पैनी होती है कि मकान की छत पर दाढ़ी बना रहे व्यक्ति की दाढ़ी के बाल बाँस की बल्लियों की तरह मोटे दिखाई पड़ते है। इतने पर भी इस क्षेत्र के प्रवीण पारंगत लोग उन्हें भी धोखा देने में सफल हो जाते है। पिछले दिनों भारत ने जो अति गोपनीय ढंग से सफल परमाणु विस्फोट किए, वह इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। महीनों पूर्व से हो रही इस तैयारी की भनक भी इन उपग्रहों को नहीं लग पाई, किंतु ऐसे प्रसंग यदा-कदा ही देखने में आते और अपवाद की श्रेणी में गिने जाते है। अधिकाँश अवसरों पर ‘ब्लैकवर्ड’, डार्क स्टार, ‘ईपीफ्’ जैसे टोही विमानों और चक्कर काटते उपग्रहों से बच पाना असंभव होता है।

अमेरिका जासूसी उपग्रहों की तर्ज पर अब योरोपीय समुदाय के देश ‘औरवेल’ प्रणाली की एक ऐसी परियोजना पर कार्य कर रहे हैं, जिसके द्वारा विश्व के किसी भी हिस्से को हर दो घंटे बाद अपने कंप्यूटर के परदे पर देखा जा सकेगा। 12 उपग्रहों और राडार से संयुक्त यह प्रणाली कंप्यूटर और इंटरनेट से संबद्ध होगी। इस परियोजना के अध्यक्ष स्टीफेन हाँब्स का कथन है कि यदि इस प्रणाली का उपयोग कर कोई व्यक्ति अपने शत्रु की निगरानी करना चाहेगा, तो सिर्फ अपना कंप्यूटर चालू करना पड़ेगा। उसके बाद शत्रु की गतिविधियाँ उसके समक्ष साकार हो उठेंगी। उसके घर, आँगन, छत, उपवन एवं इर्द-गिर्द के लोग और दृश्य कम्प्यूटर के परदे पर ऐसे उभर आएंगे, मानों वह उन्हें कंप्यूटर पर नहीं साक्षात देख रहा हो। इसमें राडार की मदद इसलिए ली गई कि रात का अंधेरा या मेघाच्छन्न आसमान इसमें कोई अड़चन पैदा न कर सके और किसी भी मौसम में कभी भी व्यक्ति अपने इच्छित स्थान का पर्यवेक्षण क्षण मात्र में कर ले। ऐसी उम्मीद है कि यह परियोजना सन 25 तक पूरी हो जाएगी और कार्य करना आरंभ कर देगी। तब इससे एक ही समय में दोहरे कार्य लिए जा सकेंगे। घर बैठे स्थान विशेष के भ्रमण-दर्शन भी हो जाएंगे और साथ ही वहाँ की टोह भी ली जा सकेगी।

विज्ञान के विकास ने गुप्तचर तंत्र को काफी संपन्न बनाया हैं जिस कार्य को करने में पहले लंबा समय लग जाता था, वह जासूसी उपकरणों के माध्यम से अब स्वल्प समय में संपादित हो जाते है। इससे समय, श्रम और शक्ति की तो बचत होती ही है, इसके अतिरिक्त अवाँछनीय कार्यों में जुटे लोगों की संलिप्तता के प्रत्यक्ष प्रमाण जुटा पाना भी अत्यंत सरल हो गया है। इससे पूर्व यह प्रमाण परोक्ष ही हुआ करते थे, जिसमें हेर-फेर की काफी गुंजाइश थी, पर वैज्ञानिक यंत्रों ने इस आशंका को बिलकुल नहीं तो काफी क्षीण अवश्य कर दिया है। अतएव इसका लाभ उठाया जाना चाहिए। जिस दिन इस विधा का पूर्णरूपेण सदुपयोग आरंभ हो जाएगा और विनाश की तुलना में उसे विकास में पूरी तरह नियोजित कर दिया जाएगा, समझा जाना चाहिए कि मानवी चिंतन ने विज्ञान के वरदान को अभिशाप में बदलने की मूर्खता छोड़ दी। यह उसके सुखद भविष्य का शुभ लक्षण होगा और मानवी उत्कर्ष का ब्रह्ममुहूर्त भी।

गुप्तचर्या एक कला है। वैज्ञानिक आविष्कारों से उसमें निखार आया है। यह निखार निष्कलंक तभी बना रह सकता है, जब उसमें हर एक के लिए मंगलकामना निहित हो। विद्वेषजन्य भावना उसके आत्मा की हत्या करती हैं तब वह प्रेरणा, प्रशिक्षण, शाँति और सुव्यवस्था की माध्यम न बनकर अराजकता की प्रेरक बन जाती हैं। यह खतरनाक स्थिति है। विश्व-मनीषा को इस ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।


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