ज्ञान के युग सत्य का बोध कैसे हो

April 2002

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विज्ञान को व्यवस्था पूर्ण ज्ञान कहे जाने की रीति है। लेकिन सच तो यह है कि व्यवस्था कहीं भी और कैसी भी हो, कभी पूर्ण नहीं हुआ करती। फिर विज्ञान ने ज्ञान को जो व्यवस्था देने की कोशिश की है, वह भी उसकी प्रकृति के अनुरूप जड़ और सीमित है। जबकि ज्ञान न तो कभी जड़ हो सकता है और न ही सीमित। यह चैतन्यता का असीम प्रवाह है, जो प्रकृति, सृष्टि और ब्रह्मांड में सतत और अविराम प्रवाहित होता रहता है। मानव चेतना के स्पर्श से इसकी चैतन्यता को अभिव्यक्ति मिलती है। परन्तु यह अभिव्यक्ति मानव चेतना के विकास के अनुरूप थोड़े-बहुत अंशों में होती है। हमेशा ही बहुतेरा ज्ञान ऐसा बचा रहता है, जिसे देखा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सका, जाना नहीं जा सका।

ज्ञान के इसी सत्य को अपनी समाधि में अनुभव करके ऋषियों ने इसे ‘सत्यम् ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म’ कहा। उन तत्त्वदर्शी महर्षियों के अनुरूप ज्ञान सत्य है, अनन्त है और ब्रह्म है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता ज्ञान के तत्त्व की इस समग्रता से अनजान हैं। वे केवल इतना जान पाए हैं कि ज्ञान सत्य है, इसकी अनन्तता एवं पूर्णता के ब्रह्मस्वरूप की उन्हें कोई खोज खबर नहीं। ज्ञान के जिस सत्य को वह व्यवस्था देने की कोशिश करते हैं, वह भी सामयिक होता है, शाश्वत नहीं। यही वजह है कि वैज्ञानिक सत्य हमेशा ही बदलते रहते हैं। जबकि आध्यात्मिक सत्य सदा ही अपरिवर्तनीय, शाश्वत एवं पूर्ण होते हैं। यही कारण है कि ऋषियों द्वारा कहा गया ज्ञान बदलते काल प्रवाह में भी समीचीन बना रहता है, अपनी उपयोगिता, उपादेयता नहीं खोता।

ज्ञान को व्यवस्था देने के फेर में वैज्ञानिक समुदाय ने अपने को बुद्धि के गलियारों में कैद कर लिया है। स्वयं को अनेकों जटिल नियमों-उपनियमों की रस्सियों से जकड़ लिया है। अपने को वस्तुनिष्ठ, स्पष्ट एवं तर्कपूर्ण सिद्ध करने के चक्कर में वे बहुत कुछ गंवा देते हैं और गंवाते चले जाते हैं। अपनी वैज्ञानिकता की उलझनों में भूल जाते हैं कि ज्ञान के बीज मनुष्य की बुद्धि में नहीं, उसकी अन्तःसंवेदना में अंकुरित होते हैं। बुद्धि तो सिर्फ इन अंकुरित बीजों की फसल काटती है। उस पर अपना झूठा अधिकार जताती है। यदि हृदय की अन्तःसंवेदना में जिज्ञासाएँ न जन्मती, परिकल्पनाएँ न पनपती तो बुद्धि किस ज्ञान को व्यवस्था देती और किस पर अपना अधिकार सिद्ध करती।

वैज्ञानिक प्रकृति को जानने और उसे नियमों में बाँधने का दावा करते हैं। परन्तु प्रकृति के किस सत्य को उन्होंने जाना और नियमों में बाँध हैं? उसके तत्त्व को या फिर तरंगों को। ध्यान रहे अमिट तो प्रकृति का तत्त्व है, तरंग का क्या अभी है और अभी मिट गयी। तत्त्व से अनजान तरंगों को बाँधने और जानने की कोशिश में जुटे वैज्ञानिकों का ज्ञान भी इन्हीं तरंगों की तरह बनता-मिटता रहता है। एक के प्रामाणिक निष्कर्षों को दूसरा अप्रामाणिक एवं झूठा करार कर देता है। एक के खोजे गए नियम, दूसरे का समय आते तक अपना औचित्य एवं अस्तित्त्व खो देते हैं। न्यूटन जिसे सार्वभौम और सर्वव्यापी बताते हैं, आइंस्टीन उसे हंसते हुए झुठला देते हैं। वह कहते हैं, अरे भाई, थोड़ा सुधार करो अपने में। गुरुत्वाकर्षण धरती का सच है, समूचे ब्रह्मांड का नहीं। धरती वाला गुरुत्वाकर्षण तो बच्चों के प्यारे चन्दा मामा भी नहीं मानते।

आज के बदलते जमाने में वैज्ञानिक अपनी खोजों को रेत के टीले की तरह ढहते, ताश के पत्तों की तरह बिखरते देख हैरान-परेशान हो रहे हैं। उन्हें यह चिन्ता खाए जा रही है कि अपने को ज्ञान का खोजी कैसे साबित करें। उनके द्वारा पाया और खोजा गया ज्ञान बात की बात में गायब हो जाता है। यह सच है कि वैज्ञानिकों ने दुनिया और समाज को बहुत सी नयी-नयी साधन-सुविधाएँ दी हैं। उसका सर्वनाश करने के लिए, संसार को नेस्तनाबूद करने के लिए भी ढेरों सरंजाम जुटाएँ हैं। उनका यह महापुरुषार्थ देख एक ओर तो लालच की लार टपकती है, दूसरी ओर भय की सिहरन छूटती है। यहाँ सब कुछ है, पर सत्य की शान्ति नहीं। कठोर व्यवस्था की अनचाही विवशता है, पर व्यापकता का परम विस्तार नहीं। तरंगों को पकड़ने की ख्वाहिश में यह हो भी नहीं सकता।

अपने ज्ञान के धराशायी होने से परेशान वैज्ञानिक समुदाय को यह कौन समझाए कि जो धराशायी हो रहा है, वह उनका ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान का आधार है। वह जमीन काल के भूकम्प से मिट रही है, जिस पर उनका ज्ञान खड़ा था। उन्होंने जिसे जाना था वह तत्त्व नहीं था, तरंग थी। जिसे देखकर वह मोहित हुए थे, वे तो तरंग की क्षणिकाएँ थीं, तत्त्व की शाश्वतता नहीं। और तरंग तो मिटेगी ही, उसे तो मिटना ही है। वह तो बनी ही मिटने के लिए थी। जब स्वभाव से मिटने वाली तरंग ही मिट रही है, तब फिर उस पर टिकने का सहारा ढूंढ़ने वाला ज्ञान कैसे बना रहेगा। हाँ यदि बात तत्त्व के महासागर की होती, तो जरूर उसमें ज्ञान के महा जलयान अनन्तकाल तक तैरते रह सकते थे।

पर इसके लिए जड़ता से पार चैतन्यता के विस्तार में जाना पड़ेगा। यह बात कुछ को समझ में भी आने लगी है। इस संदर्भ में ब्रूनर और पोस्टमैन जैसे वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने सुझाव भी दिए हैं कि सत्य की अनुभूति करनी है तो खोज का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने मनोवैज्ञानिक सत्यों को प्रयोग में लाने की सलाह दी है। उनका कहना है कि परिस्थितियों का आँकलन मनःस्थिति ही करती है। इसलिए अन्वेषण-अनुसन्धान की प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सच्चाइयों का समावेश भी होना चाहिए। इस बारे में वैज्ञानिक चिन्तक जे.के. फाइबलमेन ने एक अनूठी पुस्तक लिखी है- ‘द साइंटिफिक फिलॉसफी’। इसमें उन्होंने कहा है कि वैज्ञानिक अनुसन्धान व्यवस्था को थोड़ा विस्तार देने की जरूरत है। इसमें दार्शनिक अन्तःसंवेदना का संस्पर्श, संयोग होना चाहिए।

आज की जो वैज्ञानिक विधियाँ हैं, उनसे वस्तु को तो जाना-जाँचा जा सकता है, पर विचार को नहीं। विज्ञान और वैज्ञानिकता के इस परिदृश्य में स्वयं वैज्ञानिक प्रत्यय जगह-जगह जाँच-पड़ताल की ठोकरों से चोटिल होते रहते हैं, परन्तु उनके बारे में कोई समीचीन और सार्थक निर्णय नहीं हो पाता। यही कारण है कि वैज्ञानिक जड़ता के इन अंधेरों में नवीनता की उज्ज्वल किरण बड़ी मुश्किल से ही आ पाती है। ‘परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व दें’- इस ऋषि सत्य को वैज्ञानिक पूरे मन से स्वीकार कर पाए होते तो अरस्तू की फिज़िका, टालमी की अल्मागेस्ट, लैवोजिए की केमिस्ट्री, न्यूटन की प्रिंसिपिया और लायल की जियोलॉजी आदि वैज्ञानिक ग्रन्थों की अस्तित्व में आने से लेकर प्रसिद्धि प्राप्त करने तक इतनी ज्यादा मुश्किलें न उठानी पड़तीं।

तारों और ग्रह-नक्षत्रों की बदली हुई परिस्थितियों से सम्बन्धित विश्लेषण करने वाले टालमीय सिद्धान्त को भारी सफलता मिली। परन्तु कोपरनिकस की घोषणा से पहले इसे बड़ी सन्देह भरी नजरों से देखा जाता था। कारण एक ही था- प्रचलित ज्ञान की व्यवस्था के खांचे में इसकी सही-सही फिट न बैठ पाना। न्यूटन के प्रकाश एवं वर्ण के सिद्धान्त को भी व्यवस्था की जड़ता की मार सहनी पड़ी। आधुनिक विज्ञान में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाले क्वाँटम याँत्रिकी को भी अनेकों आक्षेप-विक्षेप सहने पड़े।

इसी कारण अपने जमाने में मैक्सवेल का विद्युत् चुम्बकीय सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं हो सका। क्योंकि कैथोड किरणों की प्रकृति के विषय में भौतिक विज्ञानियों में गहरा मतभेद था। एक्स-रे की खोज के साथ भी कुछ यही स्थिति बनी। जड़ता और सीमाबद्धता की वैज्ञानिक कूपमण्डूकता ने इसे काफी समय तक उपेक्षित किया। इसे लेकर वैज्ञानिक व्यवस्था को भारी ऊहापोह एवं उलझन बनी रही। विज्ञानवेत्ता लार्ड केल्विन ने तो यहाँ तक कह दिया कि रुण्टजेन का यह प्रयोग खूबसूरत-धोखाधड़ी के अलावा कुछ नहीं है। जबकि एक्स-रे की महिमा-महत्ता से आज कोई अनजान नहीं है।

विज्ञान जगत् में यूरेनियम के विखण्डन की प्रक्रिया को सही ढंग से स्वीकारने में पर्याप्त समय लगा। क्योंकि तब तक वैज्ञानिक ज्ञान की विधियाँ नाभिकीय अभिक्रिया के तहत उत्पन्न होने वाले अन्य कणों एवं ऊर्जा की जटिल प्रक्रियाओं से अनजान थीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मेण्डलीफ की आवर्त सारणी के खाली स्थानों को भरने के लिए रासायनिक तत्त्व ढूंढ़े जाते थे। उनकी तलाश-खोज में सफलता भी मिलती थी। परन्तु किसी नए तत्त्व की खोज के बाद उसकी स्वीकारोक्ति सहज न थी। पूर्वाग्रहों की जड़ता एवं हठधर्मिता यहाँ भी आड़े आ जाती।

वैज्ञानिकों का युग सत्य कहे जाने वाले सापेक्षिता के सिद्धान्त को भी काफी तिरस्कार झेलना पड़ा। इसके पीछे लम्बी प्रक्रिया और अनेक कारण हो सकते हैं, परन्तु तथ्य एक ही समझ में आता है, तत्कालिक वैज्ञानिक विधि-व्यवस्था एवं मान्यताओं का आड़े आना। वैज्ञानिक विधियाँ, विज्ञान की व्यवस्थाएँ अपने समय का कितना ही बड़ा सच क्यों न हो, पर इनकी याँत्रिक प्रतिबद्धताओं के कारण इनका नजरिया एवं दायरा संकुचित व संकीर्ण हो जाता है। जिसकी ज्ञान की सत्यता का कोई नया उजाला, ज्ञान की अनन्तता की कोई नयी बयार नहीं आ पाती।

कमी कहाँ है, कठिनाइयाँ किधर है, इसकी पड़ताल एक युग प्रश्न है। वैज्ञानिक विधियों, अनुसन्धान प्रविधि की कमजोरी की वैज्ञानिक जाँच की जानी चाहिए। यह सत्य सर्वमान्य एवं सर्वस्वीकृत होना चाहिए कि महत्त्वपूर्ण ज्ञान है, न कि उसकी अनुसन्धान विधि। अनुसन्धान विधियों को ज्ञान के उन्नत आयामों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए, न कि ज्ञान के तल को अनुसन्धान विधि के दायरे में फिट बिठाने के लिए गिरा दिया जाय। ज्ञान की सत्यता, अनन्तता एवं पूर्णता सबकी सब विज्ञान की प्रयोगशाला एवं वैज्ञानिक विधियों की सीमाओं में समा नहीं सकती। प्रयोगशालाओं में जो जाना जाता है, वैज्ञानिक विधियाँ जिसे खोज पाती हैं, वह तो अंश मात्र है, केवल अणु जैसा लघु है। ज्ञान की व्यापकता तो विराट है, जो बुद्धि से उपजी जड़ व्यवस्थाओं और उसकी वैज्ञानिकता से परे है।

आध्यात्मिक अभिवृत्ति एवं साधना से उपजी संवेदना इस विराट् ज्ञान को छूने, जानने एवं पहचानने की सार्थक रीति है। इस रीति से जो जाना जाता है, उसे जानकर सब कुछ जान लिया जाता है। तभी तो उपनिषद् कहते हैं- ‘तस्मिन् विज्ञाते सर्वं विजानात्’ अर्थात् उसको जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। महर्षि अरविन्द ने ‘ द ह्युमन साइकिल’ में भी इसी सत्य को दुहराया है। उन्होंने कहा है कि अतिभौतिक प्रकृति के नियम और सम्भावनाओं को जाने बिना न तो भौतिक प्रकृति और न सम्भावनाएँ ही जानी जाती हैं।

इस सत्य ज्ञान के लिए वैज्ञानिक विधियों के साथ आध्यात्मिक साधनाओं से उपजी संवेदनाओं का भी सुयोग जुटाना होगा। तभी तत्त्व को भी जाना जा सकेगा और तरंग को भी। शाश्वत की अनुभूति और सामयिक का सदुपयोग- यह वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का ही सुफल हो सकता है। इसे तथ्य के रूप में स्वीकारते हुए पश्चिम के मेधा सम्पन्न दार्शनिक बट्रेण्ड रसेल का कहना है कि वैज्ञानिक ज्ञान के साथ विवेक का समीचीन प्रयोग होना चाहिए। वैज्ञानिक आध्यात्मवाद की इस रीति से ही ‘सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म’ की अनगिन चेतन धाराओं की अनुभूति पायी जा सकती है। ज्ञान के युग सत्य का बोध हो सकता है।


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