आतंकवाद से उपजी जनपीड़ा एवं राष्ट्रीय वेदना के लिए प्रभु श्री राम समाधान की संजीवनी हैं। और यह संजीवनी औषधि आज भी उतनी ही असरकारक है, जितनी कि कभी उनके युग में थी। श्री राम जिस युग में जन्मे वह आसुरी आतंक का युग था। पड़ोसी देश के शक्तिशाली अधिपति रावण ने समूचे भारत देश में अपने आतंकी ठिकाने बना रखे थे। वह अकेला प्रायोजक था विभिन्न आतंकवादी संगठनों का। उन दिनों आतंकवादी असुरता के अनेक नाम, अनेक रूप, सब उसी से उपजे और पनपे थे। मिथिला अंचल में इसके मुखिया मारीच, सुबाहु एवं ताड़का थे। जबकि दक्षिण भारत के आतंकी सरगना सूर्पणखा सहित खर, दूषण एवं त्रिशिरा थे। देश का कोना-कोना इसके दहशत भरे कारनामों से थर्राया हुआ था। शासक, विचारक एवं जनता तीनों ही अलग-थलग घायल पड़े थे।
ऐसे में आए श्री राम। उन्होंने सबसे पहले अपने पराक्रम एवं सौजन्य से विचारशीलों को अभयदान दिया। आतंकवाद के चक्रव्यूह को ध्वस्त करने के लिए उनकी नीति का पहला बिन्दु यही था। उन्हें मालूम था कि समाज का विचारक वर्ग संस्कृति-संवेदना का स्रोत है। यही जनमानस को जीवन देता है। अपने विचारों से उसमें चैतन्यता एवं उत्साह का संचार करता है। और साथ ही शासकों को सही नीति सुझाता है, सही राह बताता है। यदि ऋषि जीवित है तो समाज जीवित रहेगा, मनुष्य जीवित रहेगा। ऋषि नहीं रहे, ऋषि नहीं बचे तो कुछ भी बाकी न बचेगा, न देश, न समाज और न ही संस्कृति। राजकुल में जन्में श्री राम इस संस्कृति सत्य से भली भाँति परिचित थे। यही कारण था कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में उन्होंने किसी बड़े देश से गुहार नहीं लगाई। किसी समर्थ समझे जाने वाले अधिपति को चिट्ठी नहीं लिखी, उसकी चिरौरी नहीं की। उन्होंने देश के ऋषियों से मार्गदर्शन लिया।
महर्षि विश्वामित्र के मार्गदर्शन में उन्होंने आसुरी आतंक के ठिकानों को नष्ट करना शुरू किया। मारीच, सुबाहु एवं ताड़का मारे गए। परन्तु यह केवल शुभारम्भ था, आतंकवाद से युद्ध का प्रथम चरण। इसको और अधिक गति देने के लिए श्री राम वनवासी बने। उन्होंने सत्ता का मोह त्यागा, सिंहासन का लोभ छोड़ा। साधन और सुविधाओं से भरे जीवन का त्याग किया। सत्ता के गलियारों में कैद रहकर अधिपति होने का अहंकार तो सुरक्षित रखा जा सकता है, पर व्यापक समस्या के सटीक समाधान तो जनता के बीच ही मिलते हैं। प्रभु श्री राम की नीति का दूसरा बिन्दु था, जनता के होकर जनता में रहना। इसी कारण वह वनवासी हुए। आग्रहपूर्वक राज्य लौटाने के लिए आए भाई भरत को उन्होंने अपना उद्देश्य समझाकर वापस लौटा दिया। भाई भरत को भी श्री राम के उद्देश्य की महानता और पवित्रता समझ में आयी। उन्होंने भी संकल्प लिया कि आतंकवाद का समूल नाश होने तक वह शासन सूत्र तो सम्भालेंगे, पर शासक बनकर नहीं, श्री राम के प्रतिनिधि होकर, तपस्वी के रूप में।
महातपस्वी भरत ने शासन सूत्र सम्भाले और श्री राम जन-जन के बीच गए, वन-वन भटके। अरण्यवासी ऋषियों की, आतंक से घिरे विचारशीलों की दशा ने उन्हें द्रवित कर दिया। उन्होंने देखा कि आतंकवाद का असुर मानव समाज के ज्यादातर विचारशीलों को खा गया है। गोस्वामी जी महाराज ने इस स्थिति को दर्शाते हुए अपनी रामचरित मानस में कहा है-
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
अर्थात्- आतंकवादी असुरता ज्यादातर मुनियों को खा गई, यह देखकर-सुनकर श्री राम की आँखें डबडबा आयीं। लेकिन उनके ये आँसू किसी कवि के आँसू नहीं थे। जो स्थिति से विकल तो होता है, आतंकवादी हमले जिसे पीड़ित तो करते हैं, पर बेचारा कुछ कर गुजरने का साहस नहीं जुटा पाता। वह केवल कहता है, करने की कायर कल्पना करता है। शत्रु के गढ़ में घुसकर आतंकवादी ठिकाने ध्वस्त करने का साहसी संकल्प करना शायद उस कल्पनाशील कवि के बूते का नहीं होता। लेकिन प्रभु श्री राम न केवल जनपीड़ा से द्रवित हुए, बल्कि उन्होंने महासंकल्प किया। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में-
निसिचर हीन करौ महि, भुज उठाई पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाई-जाई सुख दीन्ह॥
अर्थात्- आतंकवादी असुरता को दुनिया से मिटा दूँगा, उन्होंने हाथ उठाकर प्रण किया। और सारे ऋषियों के स्थानों पर वह जा-जाकर मिले।
पर उनके लिए इतना ही काफी न था। उनकी आतंकवाद विरोधी नीति का तीसरा बिन्दु था विचारशीलों एवं जनता के सघन संपर्क से एक व्यापक जन अभियान को जन्म देना। इस महाभियान को जन्म देने वाले श्रीराम शासक नहीं जननायक थे। उन्हें शासन की नहीं जन भावनाओं की शक्ति पर विश्वास था। प्रखर और तेजस्वी विचारक महर्षि अगस्त्य जहाँ एक ओर उनके इस व्यापक अभियान की प्राण-चेतना थे, वहीं सामान्य वनवासियों, कोल-किरातों, वानरों तक का उन्हें सहयोग प्राप्त था। आतंकवाद से संघर्ष यह किसी प्रान्त या क्षेत्र के शासक का नहीं जनता का नारा बन गया।
विचारशीलों ने, ऋषियों ने जन चेतना जगायी। एक व्यापक जन अभियान ने जन्म लिया। और जननायक श्री राम ने एक के बाद एक आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया। दण्डकारण्य में अपना ठिकाना बनाए हुए खर-दूषण-त्रिशिरा के साथ उसके चौदह हजार साथी मारे गए। अपने द्वारा प्रायोजित आतंकवाद की इस लगातार की हार से पड़ोसी देश बौखला उठा। उसके अधिपति ने छद्म रूप धारण किया। वह राक्षस से साधु बना। हालाँकि इस बदले हुए भेष में उसने काम वही पुराना किया। साधु बनकर उसने सीता अपहरण किया। वह अकेले श्री राम की नहीं देश की जनता की भावनाओं पर चोट थी। भारत की संस्कृति के अपहरण की घटना थी। उद्वेलित जनभावनाएँ श्री राम के नेतृत्व में एक जुट हो उठी। जननायक श्री राम ने आतंकवाद प्रायोजित करने वाले देश के अधिपति को समझाने के कई प्रयास किए। परन्तु ये सब असफल रहे।
समाधान का अन्तिम बिन्दु और श्री राम की नीति का अन्तिम पग आक्रमण ही था। क्योंकि परिस्थितियों ने यह साबित कर दिया था कि आतंकवाद की जड़ को समाप्त किए बिना इसकी असुरता को मिटाया नहीं जा सकता। युद्ध सिर्फ युद्ध होता है। फिर यह तो मानव इतिहास का सबसे भीषण युद्ध था- राम-रावण युद्ध। भारत की देव संस्कृति के पक्षधरों का आतंकवादी असुरता से युद्ध। यह सभ्यता एवं बर्बरता के बीच युद्ध था। इस युद्ध में जनता अपने सर्वस्व की आहुति देने के लिए तत्पर थी। और यह इतिहास सत्य है- कि जनभावनाएँ कभी असफल नहीं होती, क्योंकि जनता ही तो जनार्दन है। यहाँ भी यही हुआ- आतंकवाद को मरना पड़ा। यदि उसे केवल हराया जाता तो शायद वह फिर से उठकर खड़ा हो जाते। पर श्री राम ने उसे जड़ मूल से मिटा दिया।
अपने इसी साहसी संकल्प और उससे उपजे पुरुषार्थ के कारण श्रीराम, प्रभु श्री राम कहलाए। उनके इस पुरुषार्थ के पीछे उनका यह जीवन मंत्र था- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। यदि भारत देश के नागरिक, शासक एवं विचारक ही नहीं देश की जनता भी श्री राम के इस जीवन मंत्र को अपना सके तो आज भी आतंकवाद मर सकता है। श्री राम की नीतियाँ ही आतंकवाद की समस्या का समाधान है। और इन्हीं नीतियों की चरम परिणति है- राम राज्य, जिसका एक ही अर्थ है- सबके लिए सुख और सबके लिए सौभाग्य।