सतगुरु की परम पावन पाती

April 2002

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सन् 2002 ई. के इस अप्रैल महीने में ‘अखण्ड ज्योति’ का 748 वाँ अंक आपके हाथों में है। पूरे 62 वर्ष और चार महीनों से यह अपने प्रकाश और प्रभा से लोकमानस में उजाला फैला रही है। देश-विदेश में बसे अपने देव-परिवार के असंख्य सदस्यों की गहरी भावनाएँ इससे जुड़ी हैं। इन सबके लिए ‘अखण्ड ज्योति’ मात्र एक पत्रिका नहीं, उनके परिवार की ज्येष्ठतम सदस्य है, उनकी अभिभावक है। जिसे वे बड़ी ही श्रद्धा एवं सम्मान से देखते हैं, पढ़ते हैं और उसके परामर्शों को भक्तिपूर्ण हृदय से स्वीकारते हैं। अखण्ड ज्योति के पठन-पाठन में उन्हें अपने सद्गुरु की चेतना के स्पर्श की अनुभूति होती है। इसके किसी भी अंक को माथा नवाकर उन्हें गुरु चरणों में माथा नवाने का सुख मिलता है।

देवमाता गायत्री की शक्ति से जन्में, पनपे और बढ़े और माता के नाम से जाने जाने वाले इस गायत्री परिवार में कई परिवार ऐसे हैं, जिन्हें अखण्ड ज्योति पीढ़ियों से अपना प्यार दे रही है। उनके लिए अखण्ड ज्योति गुरुदेव एवं गायत्री की जीवन्त प्रतिमा है। उनके आराध्य का साकार रूप है। मन को शान्ति, समाधान एवं प्रकाश देने वाला कल्पतरु है। गुरुदेव के विचारों को संजोने वाला अमृत कलश है। उनकी विचार चेतना का ऐसा अद्भुत पारस है, जिसकी छुअन से असंख्यों की लोहे जैसी काली-कुरूप अन्तर्चेतना में सोने की सी चमक पैदा हो जाती है। ये पंक्तियाँ कल्पनाएँ नहीं अनुभूतियाँ हैं, जिनसे कई परिवार पीढ़ियों से धन्य हो रहे हैं।

ऐसा ही एक परिवार श्री राजेन्द्र कुमार द्विवेदी का है। इस द्विवेदी परिवार की तीन पीढ़ियाँ अखण्ड ज्योति का प्रकाश पीकर ही पली-बढ़ी हैं। और अब तो उनके परिवार में चौथी पीढ़ी भी जन्म ले चुकी है, जिसे अपनी दादी-नानी के मुख से लोरी के साथ अखण्ड ज्योति में प्रकाशित होने वाली लघुकथाएँ और कहानियाँ सुनने को मिल रही है। श्री द्विवेदी के माता-पिता श्रीमती रामरती द्विवेदी एवं श्री चन्द्रसेन द्विवेदी परम पूज्य गुरुदेव से तब मिले और जुड़े, जब अखण्ड ज्योति का शुरुआती दौर था। इसे प्रकाशित होते हुए अभी कुछ ही वर्ष बीते थे।उन्होंने परम पूज्य गुरुदेव एवं अखण्ड ज्योति दोनों को एक साथ गहन श्रद्धा से अपना लिया। अपने चारों पुत्रों एवं एक सुपुत्री यानि की पाँचों सन्तानों को उन्होंने उच्चशिक्षा एवं संस्कारों के साथ गुरुदेव की कृपा छाया एवं अखण्ड ज्योति का प्रकाश विरासत में दिया।

पहले कानपुर देहात के गोपालपुर गाँव, फिर ग्राम-बैरीपुर और अब लखनऊ शहर के राजाजीपुरम् में रह रहे इस द्विवेदी परिवार ने अपने निवास तो कई बदले पर उनकी अखण्ड ज्योति के प्रति आस्था नहीं बदली। अपने पिता की ही भाँति श्री राजेन्द्रकुमार द्विवेद्वी ने अपने तीनों बच्चों को अखण्ड ज्योति का अनुराग दिया। उनके सभी भाइयों और छोटी बहन ने भी अपने बड़े भाई का अनुगमन करते हुए अपनी सभी सन्तानों और रिश्तेदारों के जीवन में अखण्ड ज्योति की प्रकाश किरणें उड़ेंली। और आज श्री राजेन्द्र कुमार द्विवेदी के बच्चे अपने बच्चों को अखण्ड ज्योति के प्रति श्रद्धा एवं अनुराग का पाठ पढ़ा रहे हैं। इस तरह इस परिवार की चौथी पीढ़ी भी अपने पूर्व पुरुषों का अनुगमन कर रही है।

इस द्विवेदी परिवार में अखण्ड ज्योति में श्रद्धा यूँ नहीं पनपी। इन सभी लोगों ने अखण्ड ज्योति एवं उसके संस्थापक की कृपा की अनेकों अनुभूतियों को जिया है। अपने समूचे परिवार और इसकी पीढ़ियों को अखण्ड ज्योति से जोड़ने वाले श्री चन्द्रसेन द्विवेदी उत्तर रेलवे में स्टेशन-मास्टर थे। छुट्टियों में जब-तब वह अपने गाँव बैरीपुर आया करते थे। वहाँ गाँव वालों को, अपने परिवार के अन्य सदस्यों को गुरुदेव एवं अखण्ड ज्योति की पुरानी लेकिन प्रामाणिक बातें सुनाते। ऐसे ही उन्होंने अपनी भतीजी गिरजा के बेटे को सुनाते हुए कहा- राजा! जानते हो सन् 1942-45 के दिनों में अखण्ड ज्योति में छोटी-छोटी किन्तु बड़ी ही असरकारक साधनाएँ छपा करती थीं। ये साधनाएँ छपती तो अभी भी हैं, पर तब खास बात यह थी कि जिज्ञासा करने पर पत्र लिखने पर उन दिनों गुरुदेव अपने पास बुला लिया करते थे। और जिज्ञासु को इन साधनाओं को अपने सामने बिठाकर सिखा देते।

साधनात्मक शिक्षण के अलावा उन्होंने मुझे सूर्य चिकित्सा एवं प्राण चिकित्सा की विद्याएँ भी सिखायीं। मेरी ही तरह बहुतों ने उनसे इन सब चीजों को सीखा। लौकिक काम मुकदमा, बीमारी और घर-परिवार की ढेरों समस्याएँ तो गुरुदेव चुटकियों में हल कर दिया करते थे। सारी समस्याओं को सुनकर वह कहते तुम लोग चिन्ता क्यों करते हो, समस्याएँ हैं तो क्या हुआ, हम हैं, अखण्ड ज्योति है। जिज्ञासुओं की जिज्ञासा होती- गुरुदेव आप हैं यह तो समझ में आता है। आप अपने तप से हमें त्राण दिलाते हैं, परन्तु अखण्ड ज्योति इसमें क्या करेगी। गुरुदेव कहते- अखण्ड ज्योति को मुझसे अलग मत समझो। जो श्रद्धावान है, उन्हें सदा ही इसमें अपनी समस्याओं के समाधान मिलते रहेंगे। यह मेरी ही चेतना की अभिव्यक्ति है, मेरा अपना ही प्राकट्य है।

आज से तीन दशक से भी पूर्व स्वर्गीय श्री चन्द्रसेन द्विवेदी कहा करते थे- कि परम पूज्य गुरुदेव ने मुझसे कहा है कि मेरे न मिलने पर, मेरे न रहने पर अखण्ड ज्योति मिशन में गुरु की भूमिका निभाएगी। उनके अनुसार गुरुदेव कहते- ‘आज सिक्खों का गुरु कौन है, ग्रन्थ साहिब ही न। सिक्खों के लिए यह ग्रन्थ साहिब ही उनके गुरुओं के, सत्पुरुषों के सद्विचारों का प्रेरक प्रकाश पुञ्ज है। अखण्ड ज्योति का भी यही स्वरूप है। इसमें मेरी चेतना की धारा सतत प्रवाहित होती रहेगी। समय बीतता रहेगा, महीने बीतेंगे, वर्ष बीतेंगे, दशक बीतेंगे, शतक बीतेंगे, पर पुरातन होने पर भी अखण्ड ज्योति सनातन और नित्य नूतन बनी रहेगी।’ गुरुदेव के इन वचनों को श्री द्विवेदी ने अपने परिवार और पीढ़ियों को विरासत में दिया।

उनके परिवार एवं पीढ़ियों के साथ अपने देव परिवार में और भी परिवार एवं पीढ़ियाँ हैं, जो अखण्ड ज्योति को अपने परिवार एवं परम्परा की आदि माता मानती है। इनके लिए यह पत्रिका छपे हुए कागज की पुलिन्दा नहीं, सद्गुरु की पाती है। वे जानते हैं कि इसमें शब्दों को गूँथ कर पंक्तियाँ बनाने वाले हाथ भले ही लौकिक हों, पर पाती अलौकिक है। इसके माध्यम से आने वाला ऋषियों का सन्देश उन्हीं की भाँति दैवी एवं दिव्य है। श्रद्धा इसमें जीवन के समाधान पाती है। अखण्ड ज्योति श्रद्धावानों को अहसास ही नहीं होने देती कि परम पूज्य गुरुदेव आज नहीं हैं। श्रद्धालु मानते हैं कि वे हैं, और हैं ही नहीं अखण्ड ज्योति के रूप में हर महीने अपने परिवार के सदस्यों से मिलने, अपने परिजनों को परामर्श देने उनके घर पहुँचते हैं।

असंख्य जनों की श्रद्धा, प्रेम एवं आतुर भावनाएँ बड़ी ही आकुलता से हर महीने अखण्ड ज्योति का इन्तजार करती हैं। दादा और दादी के साथ, नाना और नानी के साथ, पोते-पोतियों, नाती-नातियों और इनके माता-पिता इसकी प्रतीक्षा करते हैं। 62 वर्षों से यह क्रम चल रहा है, अब तो 63 वाँ साल भी लग चुका है। आगे भी अनगिन वर्ष बीतेंगे, कलम थामने वाली अंगुलियाँ बदलेंगी, पर सद्गुरु के विचार उसी तरह से प्रवाहित होते रहेंगे। न काल की गति रुकेगी, न अखण्ड ज्योति का प्रकाश मन्द पड़ेगा। इसकी प्रखर ज्योति में असंख्य परिवारों एवं इनकी अनगिन पीढ़ियों की भावनाएँ इसी तरह झिलमिलाती रहेंगी, जैसे कि आज और अभी जगमग ज्योतित हो रही हैं।


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