वातव्याधियां- निवारण की यज्ञोपचार प्रक्रिया

April 2002

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वातव्याधियों में गठिया वात या जोड़ों का दर्द सबसे अधिक पीड़ादायक होता है। इस रोग में शरीर के विविध जोड़ जैसे-उंगलियों के जोड़, कलाई, कोहनी, कंधे, टखने, पंजे, घुटने, पिंडलियों, कूल्हे, कमर, गरदन आदि प्रभावित होते है। मेडिकल साइंस में इसे ‘आर्थाइटिस’ कहते है। आर्थ्राइटिस का अर्थ है, जोड़ों की सूजन या क्षति। यह किन कारणों से उत्पन्न होता है, इसकी पूर्ण जानकारी मेडिकल साइंस के पास नहीं है। माना जाता है कि यह एक वायरस जन्य रोग है, ये वायरस जोड़ों की किन्हीं विशेष कोशिकाओं को संक्रमित कर उनमें विकृतियाँ उत्पन्न कर देते है। इसे कालाँतर में हड्डियों एवं उपस्थि मुड़ने व घिसने लगती है। जोड़ों की बाह्य सुरक्षा कवच- साइनोवियल झिल्ली में सूजन आ जाती है और वह अधिक मात्रा में साइनोवियल द्रव्य का स्राव करने लगती हैं इससे शोध बढ़ जाता है और जोड़ क्षतिग्रस्त होने लगते है। इससे रोगी को चलने-फिरने में कठिनाई होती है। खान-पान, रहन-सहन एवं आनुवंशिकता भी इसके लिए उत्तरदायी माने गए है।

आर्थ्राइटिस रोग कई प्रकार का होता है। इनमें से प्रमुख है, (1) रियूमेटाँइड आर्थाइटिस अर्थात संधिवाल, (2) आँस्टियों आर्थ्राइटिस या संधिशोथ, (3) गाउट या गाँठदार गठिया (4) जुवेनाइल रियूमेटाँठड आर्थ्राइटिस, (5) एंकाइलोजिंग स्पाँन्डिलाइटिस, (6) सोरियाटिक आर्थ्राइटिस आदि।

रियूमेटाँइड आर्थ्राइटिस अर्थात् संधिवात को आमवातीय जोड़ों का दर्द भी कहते है। यह ‘आटोइम्यून’ रोग माना जाता है, जिसमें शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता (इम्यून सिस्टम) गड़बड़ा जाने के कारण जोड़ों में विकृति उत्पन्न हो जाती है और वे सूज जाते है। यह सूजन जोड़ों की झिल्ली जिसे ‘साइनोवियल मेम्ब्रन’ कहते है, से आरंभ होती है, जिसके कारण साइनोवियल फ्लूइड अधिक मात्रा में बनने लगता है और जोड़ों के रिक्त स्थानों में भर जाता है। आगे चलकर इसे कोमल अस्थियों-’कार्टिलेज’ को भारी क्षति पहुँचती हैं कभी-कभी ये गल तक जाती है, जिससे जोड़ों में जकड़न व दर्द बढ़ जाता है।

रियूमेटॉइड आर्थ्राइटिस का आरंभ हाथ-पैर के छोटे जोड़ों में दर्द व सूजन से आरंभ होता है। सर्वप्रथम यह हाथ-पैर के बीच की दोनों उंगलियों के जोड़ों से शुरू होता है और धीरे-धीरे पूरे हाथ, पंजे, कलाई, कोहनी, कंधे, टखने, घुटने और कभी-कभी गरदन की हड्डियों के जोड़ तक फैल जाता है। समय पर उपचार न होने से यह रोग धीरे-धीरे असाध्य बन जाता है। जोड़ों की संधियाँ संकुचित होने लगती है और हाथ-पैर टेढ़े होने लगते है। जोड़ों में दर्द के साथ-साथ शोथ भी रहता है। यह रोग किसी भी आयु के नर-नारी को हो सकता है, पर अधिकतर चालीस वर्ष के बाद इसका प्रकोप अधिक होता है। पुरुषों की तुलना में महिलाएं इसकी चपेट में अधिक आती है। जोड़ों का दर्द सर्दियों में तथा सुबह के समय अधिक होता है। शरीर में जकड़न, थकान, बुखार, वजन में कमी, रक्ताल्पता, आँखों में सूजन, फेफड़ों में सूजन आदि के लक्षण भी आगे चलकर प्रकट होने लगते है, जो इस बीमारी की गंभीरता को दर्शाते है। इन्हें रियूमेटिक बीमारियाँ भी कहते हैं

आँस्टियों आर्थाइटिस अर्थात् अस्थि संधिशोथ, इसे बढ़ती आयु अथवा बुढ़ापे का रोग भी कहते है। पुरुषों में यह पैंतालीस वर्ष से पूर्व एवं महिलाओं में पचास-पचपन वर्ष के बाद होता है उन जोड़ों पर इसका आक्रमण अधिक होता है जिन पर शरीर का भार अधिक होता है अथवा जिनका प्रयोग अधिक होता है, जैसे घुटना, कूल्हा, गरदन, कमर का निचला हिस्सा तथा हाथों के जोड़। प्रायः देखा जाता है कि मोटापे से ग्रस्त व्यक्तियों को आँस्टियों आर्थ्राइटिस अधिक होता है, विशेषकर घुटने के एवं कूल्हे के जोड़ों का। इसका प्रमुख कारण यह है कि शरीर का वजन अधिक होने के कारण पूरे वजन का सीधा असर घुटनों एवं कूल्हे पर पड़ता है, जिससे ये अंग रोगग्रस्त हो जाते है। आँस्टियो आर्थ्राइटिस जहाँ शरीर के बड़े जोड़ों जैसे घुटने, कूल्हे आदि प्रभाव डालता है, वही रियूमेटाँइड आर्थ्राइटिस छोटे जोड़ों यथा उंगलियों, हाथ, पंजे, कलाई, कोहनी आदि पर असर करता हैं अधिक देर तक घुटने मोड़कर बैठना, पालथी मारकर बैठना, व्यायाम न करना, शरीर का वजन बढ़ना, मोटापा आदि कई कारण ऐसे हैं, जो इस महाव्याधि को पैदा करते है। इसके अतिरिक्त पुरानी गंभीर चोट या ऑपरेशन के कारण भी कई बार यह रोग पनप जाता है। उम्र बढ़ने के साथ जोड़ वाले हिस्से की माँसपेशियाँ, तंतु, लिगामेन्ट आदि कमजोर होने लगते है, जिसे उनमें आई विकृति भी संधिशोथ का कारण बनती है।

उक्त सभी प्रकार के जोड़ों के दर्द व सूजन की समय पर चिकित्सा उपचार न करने व रोग पुराना होने पर वे कठोर पड़ने लगते हैं और जोड़ों पर लाकिंग-सी हो जाती है, जिससे उठना-बैठना, चलना-फिरना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में कई बार शल्यक्रिया और जोड़ प्रत्यारोपण का सहारा लेना पड़ता है। सभी प्रकार के आर्थ्राइटिस राग जीवनी शक्ति की कमी, रोग प्रतिरोधी क्षमता का ह्रास व उपापचय प्रक्रिया में गड़बड़ी के कारण उत्पन्न होते है। इससे बचने के लिए आवश्यक है कि संतुलित आहार लें, घी, चीनी, चिकनाई कम खाएं, भोजन में कैल्शियम की मात्रा पर्याप्त लें, दूध, हरी शाक-सब्जी, गरम मसाले, मेथी, राई, फलियों वाली सब्जी खूब खाएं, व्यायाम करें, मेहनत करें और मोटापे से बचे। देर तक व लेटकर टी.वी. न देखें। कार्बाइड से पके फल, ठंडी चीजें, जूस, खट्टी व वातवर्द्धक चीजें, टमाटर, नीबू, दही, अचार, इमली, साइट्रिक व टारट्रिक एसिड मिश्रित चीजें, ठंडी हवा आदि से सेवन से बचना चाहिए।

सभी प्रकार के जोड़ों के दर्द, गठिया आदि से छुटकारा दिलाने में सबसे अधिक प्रभावी, सुरक्षित एवं निरापद चिकित्सा यज्ञोपचार सिद्ध हुई है। इसे प्रत्येक आयु-वर्ग का हर कोई व्यक्ति अपना सकता है और इस कष्टकारी महाव्याधि से मुक्त हो सकता है। इसकी विशेष हवन सामग्री इस प्रकार तैयार की जाती है।

गठियावात या जोड़ों के दर्द की विशिष्ट हवन सामग्री- 1-महारास्नादि क्वाथ (26 औषधियाँ), 2- दशमूल (दस औषधियाँ), 3- निर्गुन्डी, 4- नागरमोथा, 5- पाढ़ा, 6- भारंगी, 7-मूर्वा, 8-एरंड मूल, 9-गिलोय, 10-हरड़, 11-वायविडंग, 12-कुटकी, 13-गुग्गुल, 14-सर्पगंधा, 15-पिप्पलीमूल, 16-मुलहठी, क्स्त्र-अश्वगंधा, 17-त्रिकुट, 18−हींग, 19-अजमोद, 20-बच, 21-चित्रक, 22-इंद्रायण, 23-अकरकरा, 24-सलई गोंद, 25-ज्योतिष्मती, 26-वासा। इनमें से क्रमाँक 1 से 10 तक की औषधियाँ बराबर मात्रा में, क्रमाँक 11 से 18 तक उसकी आधी मात्रा में, क्रमाँक 19 से 26 तक की औषधियाँ चौथाई मात्रा में (1/4 भाग) एवं 27 की वासा को दो गुनी मात्रा में लिया जाता हैं।

उपर्युक्त सभी 26 चीजों को जौकुट करके ‘हवन सामग्री नंबर (2) के रूप में अलग डिब्बे में रख लेते है। इसी सम्मिश्रित पाउडर की कुछ मात्रा को बारीक पीसकर कपड़छन करके खाने के लिए रख लेते है और हवन के पश्चात् सुबह-शाम एक-एक चम्मच शहद के साथ नित्य नियमित रूप से खाते है।

हवन करते समय पहले से तैयार की गई, ‘काँमन हवन सामग्री नंबर (1) को बराबर मात्रा में लेकर उपर्युक्त नंबर (2) हवन सामग्री में मिलाकर तब हवन करते है। काँमन हवन सामग्री नं. (1) में अगर, तगर, देवदार, लाल चंदन, श्वेत चंदन, अश्वगंधा, गुग्गल, लौंग, जायफल आदि चीजें बराबर मात्रा में मिली होती है। हवन सूर्य गायत्री मंत्र से किया जाता है। कम-से-कम 24 बार मंत्रोच्चार करते हुए आहुति अवश्य डालनी चाहिए।

जोड़ों के दर्द में गठिया पीड़ित अंगों पर वातनाशक तैल की मालिश अवश्य करनी चाहिए। वातनाशक तैल में प्रयुक्त होने वाली सामग्री इस प्रकार है, (1) सरसों तेल-500 ग्राम, (2) काली हल्दी-8 ग्राम, (3) मेथी बीज-8 ग्राम, (4) धतूरा बीज-8 ग्राम, (5) पीले कनेर की जड़-8 ग्राम, (6) कुचला-8 ग्राम, (7) आकमूल-8 ग्राम, (8) शतावर-8 ग्राम, (9) विधारा-8 ग्राम, (10) चोपचीनी-8 ग्राम, (11) निर्गुन्डी-8 ग्राम, (12) केवाकंद-8 ग्राम, (13) हरसिंगार के पत्ते-8 ग्राम, (14) भाँग पत्ती-4 ग्राम, (15) लहसुन-4 ग्राम, (16) पिप्पली-4 ग्राम, (17) मिर्च बीज-3 ग्राम, (18) अजवायन-2 ग्राम, (19) भिलावा-2 ग्राम, (20) कंटकारी (भटकटैया) मूल-2 ग्राम, (21) कलिहारी मूल-1 ग्राम, (22) प्रियंगुबीज-5 ग्राम, (23) तंबाकू-1/4 ग्राम, (24) शंखिया-2 ग्राम, (25) अफीम-2 ग्राम , (26) पिपरमेंट सत-4 ग्राम, (27) अजवायन सत-4 ग्राम, (28) कपूर सत (भीमसेनी)-8 ग्राम, (29) मिथाइल सेलिसेलेट-3 मि.ली।

तैल बनाने की विधि इस प्रकार है-क्रमाँक 20 से 26 तक की सभी औषधियों को गेहूँ के दाने के बराबर टुकड़े-टुकड़े (जौकुट) करके उसे सरसों के तेल में डालकर धीमी आँच में पकाएं। बीच-बीच में बड़े चम्मच से चलाते रहें, ताकि जलने न पाए। जब सभी औषधियां पककर काली होने लगें और तेल जलने की सुगंध आने लगे, तब उतार लें। ठंडा होने पर कपड़े से छान लें। तत्पश्चात् क्रमाँक 26 से 28 तक की वस्तुओं को स्टील या काँच के बरतन में मिला लें, जिससे यह मिश्रण पानी बन जाएगा। फिर इस घोल में 3 मि.ली. मेथाइल सेलिसेलेट मिला दें। फिर इस मिले हुए घोल को छने हुए तेल में मिला दें। वातनाशक तैल तैयार है।

सभी प्रकार के आर्थ्राइटिस, जोड़ों का दर्द, गठियापन, साइटिका, माँसपेशियों का दर्द, चोट, मोच आदि सभी में यह तैल अत्यंत लाभकारी है। इसे हर कोई आसानी से बना सकता है।


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