गायत्री महाशक्ति का प्रताप

April 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गाँव से दूर एकान्त अरण्य में माँ गायत्री का प्राचीन मन्दिर था। काफी पुराना होने के कारण मन्दिर की भव्यता अब पहले जैसी न रही थी। परन्तु ग्रामीण जनों की सघन श्रद्धा इसकी दिव्यता को उत्तरोत्तर बढ़ा रही थी। गाँव वालों की आस्था थी कि माँ गायत्री अपने इस मन्दिर में एक अंश से नहीं बल्कि सम्पूर्ण रूप से निवास करती हैं। और सचमुच ही ऐसा था भी। मन्दिर के परिसर में एक अलौकिक शान्ति पसरी रहती, जिसका तनिक सा भी स्पर्श किसी के भी उद्विग्न मन को शान्त बना देता। गायत्री महामंत्र यहाँ के सूक्ष्म वातावरण में सदा ही स्पन्दित होता था। नवरात्रि के दिनों में तो जैसे यहाँ कोई अलौकिक लोक उतर आता। प्रातः-सन्ध्या गाँव के लोग यहाँ अपना अनुष्ठान सम्पन्न करते, तो रात्रि में यहाँ माँ की महिमा का गायन होता।

गायन का दायित्व कीर्तनलाल पर था। कीर्तन जाति से अन्त्यज था, परन्तु अपनी श्रद्धा एवं साधना के प्रताप से वह संगीत कुशल था। पं. गायत्री शरण ने आस-पास के गाँवों में रहने वाले रूढ़िवादी ब्राह्मणों के विरोध के बावजूद उसे गायत्री महामंत्र की दीक्षा दी थी। तब से नियमित गायत्री जप, नवरात्रि के नौ दिनों में 24,000 गायत्री महामंत्र के जप का लघु अनुष्ठान उसका नियम बन गया था। वर्ष की दोनों नवरात्रि के दिन उसके विशेष तप के दिन होते थे। वह एक समय आस्वाद भोजन करके दिन में अपना जप करता और रात्रि में माँ की महिमा का गायन करता। स्वयं के और परिवारजनों के भरण-पोषण के लिए उसके पास थोड़ी खेती थी, जिससे औसत भारतीय स्तर का जीवन निर्वाह हो जाता था।

माँ गायत्री की महिमा सम्बन्धी अनेक गीत उसकी स्वर लहरी में गाँधार, षड़ज, धैवत स्वर में गूँजते थे। नवरात्रि में रात्रि जागरण उसका नियम बन गया था। इन दिनों थोड़ी नींद उसके लिए पर्याप्त होती। तरह-तरह के भक्ति गीतों के गायन में उसे इतना आनन्द मिलता, कि तन और मन दोनों ही थकान से कोसों दूर रहते। बस इसी तरह उसकी जीवन यात्रा लम्बे समय से चल रही थी।

उस दिन चैत्र शुक्ल नवमी थी। आज रात्रि उसे माँ की महिमा के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम राम के भी भक्ति गीत गाने थे। एक साथ दुहरी खुशी थी। समस्त चराचर को जन्म देने वाली आदिशक्ति माँ गायत्री एवं उसके जैसे शूद्रों केवट एवं शबरी को अपनाने वाले प्रभु श्री राम। कल्पनाओं में ही उसका मन भाव विह्वल हो गया। भक्ति भाव से प्रणत वह संगीत मर्मज्ञ वन्य पुष्प चयन करने के लिए गाँव से दूर महावन में पहुँच गया। रात्रि का धुँधलका घिरने लगा था। इसी अंधेरे में एक महाराक्षस उसका पथ रोककर खड़ा हो गया। और उसे देखकर खाने को आतुर हो उठा।

आज मेरा आहार तू ही बनेगा। अट्टहास करते हुए राक्षस ने उसे पकड़ ही लिया। वह एक बारगी काँप गया। काँपते अन्तर से उसने राक्षस से कहा- ‘भगवन् आज तुम मुझे मत खाओ, कल प्रातः मुझे खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर लेना। कीर्तनलाल ने सोचा, इससे छुटकारा पाना तो सहज नहीं है, किन्तु अनुष्ठान पूरा होने के बाद प्राण जाएं, यही ठीक होगा। इसी चिन्ता में लीन उसने एक बार फिर ब्रह्मराक्षस से कहा-

तुम मुझ पर विश्वास करो। मैं माता गायत्री का भक्त हूँ। प्रभु श्रीराम के प्रति मेरी श्रद्धा है। मैं सत्य कहता हूँ, यह समूचा अस्तित्व सत्य मूलक है। उसी सत्य को लेकर मैं पुनः आने की शपथ लेता हूँ। मेरा अनुष्ठान विफल हो, यदि मैं तुम्हारे पास न आऊँ। सूर्य, चन्द्रमा, पंचतत्त्व, दिन-रात, यम तथा दोनों सन्ध्याएँ अनुक्षण मनुष्यों की क्रियाओं को जानते हैं। हे ब्रह्मराक्षस, मैं अधिक शपथ क्या करूं? मेरी साधना की अन्तिम रात्रि में तुम विघ्न न डालो। माँ की महिमा का गायन करके मैं मन्दिर में ही हवन करूंगा और फिर घर न जाकर तुम्हारे ही पास आहार बनने आ जाऊँगा।’

उसकी बातों से ब्रह्म राक्षस को भारी विस्मय हुआ। उस गायत्री भक्त के आग्रहपूर्ण विश्वस्त वचनों को सुनकर द्रवित हो गया।

जाओ, सत्य की शपथ का ध्यान रखना। मैं रात भर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।

ब्रह्म राक्षस के शिकंजे से छूटते ही वह मन्दिर की ओर भाग चला और पुजारी को पुष्प दिए। पुजारी द्वारा पूजन के पश्चात् कीर्तनलाल उस रात्रि एक बार फिर संगीत भरे संसार में लौट आया। माँ की महिमा और श्रीराम भक्ति के मधुर गीतों का गायन करते हुए उसने सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत की। भक्ति संगीत की स्वर लहरियों से सारा वन प्रदेश अतीन्द्रिय लोक में जा पहुँचा। ब्रह्म मुहूर्त का स्पर्श होते ही उसने माँ गायत्री को साष्टांग प्रणिपात किया। नित्य क्रियाओं से निबटकर अपने अनुष्ठान की पूर्णाहुति हवन किया। और फिर अपने वचनों के पालनार्थ उसी दिशा में चल पड़ा, जहाँ बहेड़े के पेड़ में ब्रह्म राक्षस छिपा बैठा था।

रात्रि जागरण की भक्तिमयी स्मृतियों को समेटे वह मन्द स्वरों में अब भी गायत्री महामंत्र ही गुनगुनाता हुआ बढ़ रहा था। बीच-बीच में वह रामधुन भी गुनगुना लेता। एकान्त संगीत की मधुर लहरें वायु मण्डल में अब भी छायी थी तभी-

भद्र, तुम गाँव के पथ से दूर इस भयावह अरण्य में किसके समीप जा रहे हो? मार्ग रोककर किसी अपरिचित व्यक्ति ने उससे पूछा।

मैं सत्य की शपथ पूर्ण करके ब्रह्मराक्षस के समीप अपनी देह दान करने जा रहा हूँ।

कैसा मूर्खतापूर्ण कृत्य करने जा रहे हो, उस अपरिचित ने समझाने की कोशिश की।

क्या तुम्हें इतना भी नहीं ज्ञात है कि प्राण संकट और सर्वस्व अपहरण में मिथ्या बोलने से पाप नहीं लगता? तुम क्यों अपने प्राणों को गंवाना चाहते हो। अरे जब यह शरीर ही नहीं रहेगा, तो अपने जीवन की शेष धर्म साधना कैसे पूरी करोगे? पथ में मिले उस व्यक्ति ने उससे फिर कहा।

ऐसे परामर्श से तुम्हारा कल्याण हो। किन्तु, तुम्हें यह न भूलना चाहिए कि तीनों लोकों में सत्य की सदा जय होती है। सृष्टि में जो भी सुख है, वह सत्य से ही प्राप्त होता है। सत्य से ही सूर्य प्रकाशवान है, सत्य से ही जल, रस रूप होता है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष सभी की प्राप्ति होती है। माता गायत्री सत्य स्वरूप हैं, जिनके भक्ति गीतों का मैंने रात्रि में कीर्तन किया है, वे प्रभु श्रीराम सत्य प्रतिज्ञ हैं। सभी लोकों में सत्य ही परब्रह्म है। अतः किसी भी तरह सत्य का त्याग उचित नहीं है। यह कहते हुए कीर्तनलाल उस दिशा में चल पड़ा, जहाँ ब्रह्मराक्षस का निवास था।

अरे, तुम स्वयं चलकर मृत्यु के द्वार पर आ पहुँचे। ब्रह्मराक्षस विस्मय से काँप उठा। रुंधे गले से अस्फुट स्वरों में जिस किसी तरह वह अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा था। महाभाग! सत्य वचन को पूर्ण करने में समर्थ, तुम इतने महान् सत्यात्मा हो, मुझे विश्वास नहीं होता। ब्रह्मतेज से प्रदीप्त व्यक्ति के अलावा अन्य किसी में इतना साहस नहीं हो सकता। कल्याणमय, तुम मुझे कृपाकर यह तो बताओ कि तुम कौन हो और रात्रि में मन्दिर में जाकर तुमने क्या किया? किसलिए तुम रात्रि में नहीं रुक सके थे।

सुनो बन्धु, जाति से मैं शूद्र हूँ, शूद्रों में भी अत्यन्त निम्न कोटि का अन्त्यज। परन्तु गायत्री महामंत्र के जप-अनुष्ठान के प्रभाव से मेरी अन्तर्चेतना ब्रह्मतेज से प्रदीप्त हो सकी है। पिछली रात्रि मन्दिर में मैं माता गायत्री की महिमा को गाता रहा हूँ। कल श्री रामनवमी भी थी, इसलिए प्रभु के भक्ति गीत मैंने गाए। तत्त्व की दृष्टि से मुझे यह बोध है कि आदिशक्ति माता गायत्री ही अपने अंश से श्रीराम प्रभु में अवतरित हुई। और उन्होंने अपनी अवतार लीला पूर्ण की।

उसके इन वचनों से ब्रह्मराक्षस सोच में पड़ गया। उसने सोचा, अवश्य इसकी साधना में कोई रहस्यपूर्ण चमत्कार है। अपने मन में ऐसा विचार करते हुए उसने उस गायत्री भक्त से कहा- कल्याणमय! तुम अपनी नवरात्रि साधना के मात्र एक दिन और रात्रि का पुण्य मुझे दे दो, तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, अन्यथा मैं तुम्हारा भक्षण करके ही चैन लूँगा।

अरे राक्षस! कैसी मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हो। मैं तो स्वयं ही अब तुम्हारे लिए भोज्य पदार्थ बनकर आ गया हूँ। तुम मुझे स्वेच्छा से खाते क्यों नहीं?

ब्रह्मराक्षस का विस्मय और बढ़ गया। वह सोचने लगा, कि यह निश्चय ही पुण्यात्मा है। इसे जीवन देने में मुझे भी पुण्य मिलेगा। यह सोचकर वह बोला, कैसी बात करते हो भद्र, कौन मूर्ख दुष्टबुद्धि तुम्हें पीड़ा देने के लिए तुम्हारी ओर दृष्टिपात भी कर सकता है, तुम तो अपनी साधना के द्वारा स्वयं सुरक्षित हो। हे महाभाग, यदि तुम अपनी साधना के एक दिन और एक रात का पुण्य नहीं देना चाहते तो कोई बात नहीं। रात्रि के अन्तिम प्रहर में माँ गायत्री की महिमा में जो अन्तिम गीत तुमने गाया है केवल उसी का पुण्य देकर, मुझे पाप से बचाओ। ब्रह्मराक्षस पुनः गिड़गिड़ाते स्वर में बोला।

कौन से पाप? कैसे दुष्कर्म? किस कारण तुम ब्रह्मराक्षस बने हो। गायत्री भक्त कीर्तनलाल ने पूछा।

मैं पूर्वजन्म में ब्राह्मण था, पर केवल जाति से। कर्म तो मेरे कदापि ब्राह्मण के न थे। सिर्फ ब्राह्मण जाति के दम्भ से मैं फूला, ऐंठा, इतराया फिरता था। मेरी स्वयं की गायत्री साधना में कोई रुचि न थी। पर अपनी जाति के अहं में मैं दूसरे गायत्री साधकों की निन्दा करता फिरता था। मेरे ही गाँव में एक अन्य तपस्वी रहते थे, जो जाति और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण थे। उनमें न तो अपने कुलीन होने का अहं था और न ही जाति-भेद की पक्षपात पूर्ण भावना। वह बराबर कहा करते थे कि माँ गायत्री तो आदि जननी है, समस्त सृष्टि उनकी सन्तान है। गायत्री महामंत्र पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। यह सत्य उनके कथन ही नहीं आचरण पर भी लागू होता था। उन्होंने शूद्रों-अंत्यजों को भी गायत्री दीक्षा दी।

उनके तप के प्रभाव से वे शूद्र और अन्त्यज भी गायत्री साधक और तपस्वी बन गए। पर मैं अपने अहंकार के वशीभूत होकर सदा उनकी निन्दा किया करता था। उन्हें अपमानित करने का कोई भी अवसर न चूकता। जिस किसी से भी उनके बारे में निन्दा पूर्ण अपशब्द कहता। उनका तिरस्कार करना ही मेरे अपने जीवन का लक्ष्य बन गया। हालाँकि वे तपस्वी बड़े दयालु थे। उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर क्रोध न किया। सदा ही अपना प्रेम मुझ पर बनाए रखा। परन्तु विधाता तो न्यायकारी है। सृष्टि तो नियन्ता के कर्मफल विधान से संचालित है। मुझे अपने कर्म का फल तो मिलना था। अपने ही कर्म दोष से मुझे ब्रह्मराक्षस बनना पड़ा। इस योनि में मैं बड़ी पीड़ा पा रहा हूँ। ब्रह्मराक्षस की पीड़ा सचमुच ही उसके समूचे अस्तित्त्व में छलक उठी।

कीर्तनलाल इससे द्रवित हुए बिना न रहा। उसने विगलित हृदय से कहा, मैं तुम्हें भक्ति गीत का पुण्य दे सकता हूँ। किन्तु तुम्हें भी मेरे सत्य वचन का पालन करना होगा। कहो शीघ्र कहो, ब्रह्मराक्षस को उतावली थी। ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे पूर्ण कर मैं इस योनि से मुक्ति पा सकूँगा। व्याकुल ब्रह्मराक्षस भक्त कीर्तनलाल के समीप प्रणत भाव से खड़ा था।

यदि तुम प्राणियों को इस प्रकार मारकर खाना बन्द कर दो, तो मैं तुम्हें अपने गायत्री गान का पुण्य दे सकता हूँ, कीर्तनलाल ने कहा।

मेरे नेत्र को तुम्हारे आचरण ने, तुम्हारी सत्यनिष्ठ ने खोल दिए हैं। इस संसार में मनुष्य दुष्ट प्रवृत्ति का त्यागकर ही मनुष्य जीवन का श्रेष्ठतम स्वरूप प्राप्त कर सकता है। अब मैं प्राणी हिंसा कदापि नहीं करूंगा।

तथास्तु कहते हुए उस परमभक्त ने अपने रात्रिभजन के अन्तिम भक्ति संगीत का पुण्य उसे देने का संकल्प किया। और आदि शक्ति माता गायत्री से उसके कल्याण के लिए प्रार्थना की।

चरणों में झुक गया वह हिंसक ब्रह्मराक्षस। भक्ति गीत का पुण्य ग्रहण कर वह माता गायत्री के मन्दिर में जा पहुँचा। यह मन्दिर तो जाग्रत् तीर्थ था। उसने इस मन्दिर में माँ के सामने ही अनशन करते हुए देह त्याग दी। भक्ति गीत एवं माँ गायत्री की महिमा से वह राक्षस योनि से मुक्ति पा गया। माँ गायत्री के प्रभाव से ब्रह्मलोक में स्थान पाया उसने।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118