महाराज बिंदुजात ने निश्चय किया कि राज्य में जो निराश्रय साधु हैं, उन्हें राज्यवृत्ति प्रदान की जाए। यह कार्य नीति-निपुण मंत्री गृत्समद् को सौंपा गया। गृत्समद् कई दिन तक धन की थैली लेकर घूमे, किन्तु एक भी स्वर्ण मुद्रा का वितरण न हो सका। हारकर उन्होंने अब तक का सारा ‘कोष’ सम्राट बिंदुजात को लोटा दिया।
महाराज ने पूछा-महामंत्री! धनराशि का वितरण नहीं हो पाया क्या? क्या इतने बड़े राज्य में एक भी साधु-संत ऐसा नहीं हो पाया। महामंत्री बोले, आर्य! कठिनाई यह है कि कोष उन साधु-संतों के लिए नियुक्त है, जो लोकमंगल का कार्य करते हों, ऐसे संत राज्य में कम नहीं, पर वे धन स्वीकार नहीं करते? उनकी सामान्य-सी आवश्यकताएँ हैं, उसके लिए सहयोग नहीं लेना चाहते। इस शर्त पर वे धन को स्वीकार कर सकते हैं कि लोकमंगल के कार्यों में खरच करेंगे। हे राजन! आप यदि देना ही चाहते हैं तो उन्हें व्यक्तिगत प्रयोग के नाम पर नहीं, लोककल्याण के लिए सहर्ष दे सकते है। उसके लिए वे तैयार हो जाएँगे, क्योंकि संसार की सेवा उन्हें अभीष्ट है। सेवा के लिए साधन भी आवश्यक है।