श्रीरामलीलामृतम-4 - चेतना की शिखर यात्रा

April 2002

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(परमपूज्य गुरुदेव एक असमाप्त जीवन गाथा-4)

मातृत्व की विलक्षण अनुभूति

आँवलखेड़ा में एक पुरानी हवेली थी। भाई-भतीजे, चाचा-ताऊ सब उसी में रहते थे। संयुक्त परिवार था। यजमानों, जिज्ञासुओं और स्वजन-संबंधियों का आना-जाना भी बना रहता था। खासी चहल-पहल रहती। पंडित रूपकिशोर जी तब पचपन वर्ष के थे। उनकी पत्नी दानकुँवरि को घर में सब लोग ताई जी कहते थे। पंडित रूपकिशोर सब भाई-बहनों में बड़े थे। घर में जितने भी बच्चे थे, उनका पंडित जी को ताऊ जी और उनकी जीवन-संगिनी को ताई कहना स्वाभाविक ही था। वे परिवार के सभी सदस्यों का ध्यान रखतीं। देवरानियों और बहुओं के लिए वे जेठानी या रिश्ते में सास नहीं, वात्सल्य और क्षमा से भरी बड़ी बहन या माँ से भी बड़ी ताई ही लगती थीं। रात के चौथे पहर उठतीं और देर रात तम जागते हुए स्वजन संबंधियों का और मेहमानों का ध्यान रखने में व्यस्त रहा करतीं।

सन् 1911 में उन्हें मातृत्व का आभास हुआ। पहली संतान गर्भ में आई। ताई जी को कुछ विलक्षण अनुभव होने लगे। बहुत सहजता से वे बताती थीं कि इन अनुभवों से उन्हें डर नहीं लगता, अटपटा भी महसूस नहीं हुआ। पास-पड़ोस की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि कुल देवता प्रसन्न हो रहे हैं। ये प्रतीतियाँ वही करवा रहे हैं। बहुत बाद में स्पष्ट हुआ कि ये अनुभव पूर्वजों या कुल देवताओं के अनुग्रह-आशीर्वाद स्वरूप ही नहीं हैं। वे बताया करती थीं कि एक सुबह घर में दूध औटाया जा रहा था। चूल्हे पर बरतन चढ़ा हुआ था। स्नान-पूजा से निवृत्त होकर वे और दिनों की तरह बाद में किए जाने वाले कार्यों के बारे में सोच रही थी। शरीर में इतनी स्फूर्ति और सक्रियता थी कि देर रात तक काम करना पड़ा, तो भी कभी सुस्ती नहीं आई। कठोर परिश्रम करने पर भी थकान अनुभव नहीं हुई। उस सुबह न जाने क्या हुआ कि झपकी लग गई। वे बैठी हुई थीं और पलकें मुँद गईं। लगा जैसे नींद आ गई है और कोई सपना देख रही है।

सपना किसी अज्ञात प्रदेश के वन में था। वे उस निर्जन प्रदेश में अकेली हैं। चारों और सूर्य की स्वर्णित आभा बिखरी है। पूर्व दिशा में तप्त अग्नि पिंड की तरह सिंदूरी लाल रंग का गोला उदित हो रहा है। उसी उदित सूर्य का प्रकाश चारों और फैल रहा है।

वातावरण में व्याप्त सुगंध ने ताई जी को अभिभूत कर दिया। स्वप्न दृश्य में ही वे अपनी सुध-बुध खो बैठीं। फिर पूर्व दिशा में उदयाचल के पीछे से उभरता सूर्य पिंड धीरे-धीरे प्रखर होता जा रहा है। पिंड के मध्य में एक नारी आकृति की झलक दिखाई दे रही हैं। स्वर्णिम काँति से युक्त वह आकृति हंस पर बैठी है। दायें हाथ में कमंडल और बायें हाथ में पत्राकार पोथी। ताई जी उस समय स्पष्ट नहीं देख पाईं कि कौन-सा ग्रंथ है। वे समझी कि भागवत है, क्योंकि पतिदेव इसी शास्त्र का पाठ-कथा और अनुष्ठान संपन्न कराते थे। वह आकृति कुछ क्षण तक दिखाई दी, फिर लुप्त हो गई। देखा तो दूध उफन आया है। पतीले से उफनकर कुछ चूल्हे में भी गिर गया। जलती हुई लकड़ियों पर गिरने से छनन-छिन की आवाज आ रही थी। उस आवाज से ही तंद्रा टूटी।

पतिदेव को यह दृश्य सुनाया। ताई जी ने यह भी कहा कि उस देवी के हाथ में भागवत की पोथी थी। पंडित जी ने स्पष्ट किया कि वह पोथी श्रीमद्भागवत् की नहीं, वेद की है। भागवत् शास्त्र उस पोथी के एक मंत्र की व्याख्या-विस्तार ही है। भागवत् रामायण आदि ग्रंथों का गायत्री मंत्र की विवेचना में लिखे जाने या उनकी प्रेरणाओं को स्पष्ट करने वाला शास्त्र कहा जाता है। ताई जी को यह दृश्य बाद में भी दिखाई दिया। एक बार दोपहर के समय, तब वे भोजन आदि से निपट चुके स्वजनों का कुशलक्षेम पूछने के बाद कुछ देर के लिए बैठी थी। उस समय वे शाम को किए जाने वाले कार्यों की तैयारी करती हुई रसोई में ही थीं।

ताई जी ने एक बार भाव समाधि की दशा में देखा कि वे एक सरोवर के किनारे खड़ी हुई हैं। उसमें कमल खिले हुए हैं। एक बड़े कमल पर वही आकृति विराजमान दिखाई दी, जो पहले कभी सविता मंडल में विराजी हुई थी। एक स्वप्न में पूर्व दिशा से देवताओं के विमान उड़ते हुए दिखाई दिए। उनमें बैठी देवसत्ताएं फूल बरसा रहीं थी। पंडित जी के अनुसार ये दृश्य अंतर्जगत में हो रही हलचल के संकेत थे। संकेतों को चेतना में होने वाले परिवर्तन भी कह सकते हैं। जब भी किसी पुण्य आत्मा को शरीर धारण करना होता है और वह गर्भ में आ चुकी होती है, तो इस तरह के स्वप्न दिखाई देते हैं।

घर-आँगन में भी उन दिनों कुछ विचित्र घटनाएँ होने लगीं। ताई जी बताया करती थीं कि अचानक घर में सुगंध फैल जाती, जैसे अगरबत्तियां जलाई हों या हवन किया जा रहा हो। सुगंध भीनी-भीनी होती थीं। कुछ समय यह सुगंध कायम रहती और धीरे-धीरे कम हो जाती। हवेली में अचानक गायें बहुत आने लगीं। गाँव का घर था, पास ही गायों को बाँधने के लिए गोठ भी थी। घर की गाये तो होती हीं, बाहर से भी आ जातीं। कभी-कभार आठ-दस गायें रात भर रुक जातीं। वे आंवलखेड़ा के दूसरे ग्रामीणों की गोठ से ही आतीं। लोग उन्हें ढूँढ़ने निकल पढ़ते और पंडित जी के यहाँ पाकर आश्चर्य करते। सामान्य दशा में पराये पशुओं को भगा दिया जाता है, लेकिन ताई जी के मन में उन दिनों विलक्षण परिवर्तन आया कि गायों को भगाने की बजाय वे उनकी सेवा करने लगतीं, उन्हें चारा-पानी देतीं।

ताई जी उस समय जरूर थोड़ी असहज हुई जब हवेली में मधुमक्खियाँ आकर भिनभिनाने लगीं। जिस तेजी से वे उड़ती हुई आईं, सप्ताह भर में उन्होंने हवेली में चार-पाँच छत्ते बना लिए। परिवार के सभी लोगों को असुविधा हुई। मधुमक्खियाँ किसी को काट नहीं रही थीं। फिर भी घर का वातावरण तो उनके कारण बिगड़ ही रहा था। वहाँ के लोगों ने मधुमक्खियों को भगाने के उपाय सोचे। गाँवों में एक ही उपाय होता है कि आग जलाकर धुआँ किया जाए।

ताई जी को पता चला कि मधुमक्खियों को भगाने के उपाय किए जा रहे हैं, तो वे बिगड़ गईं। हालाँकि घर में वही सबसे ज्यादा चलती-फिरती थीं, उन्हीं असुविधा भी होती थीं, लेकिन उन्हें अच्छा नहीं लगा कि कोई उनके छत्ते उजाड़े। वे किसी को काट-पीट नहीं रहीं। वे अपने घर में रह रही हैं। उन्हें नुकसान क्यों पहुँचा रहे हो। वे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ रहीं तो हम ही क्यों उनका घर उजाड़ें? ताई जी के डपटने पर सब शाँत हो गए।

पंडित रूपकिशोर जी उस समय कथा कहने के लिए बाहर गए हुए थे। आठ-दस दिन बाद लौटे। घटनाक्रम पता चला तो उन्होंने भी ताई जी का समर्थन किया। यह आध्यात्मिक तथ्य समझाया कि मधुमक्खियों का आना और घर में छत्ते बनाना शिव संकेत है। परिवार में जब कोई दिव्य आत्मा आने वाली हो तब तो यह शिव का वरदान है। उनके भेजे हुए प्राणी फूलों की सुवास और मधु संचित कर ला रहे हैं। यह शिव का अनुग्रह और आने वाली आत्मा के लिए आश्वासन भी है।

गाँव-घर में बजी बधाई

संवत् 1968 में आश्विन कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि (20 सितंबर सन् 1911) को आगरा-जलेसर मार्ग पर स्थित उस गाँव की हवेली में सुबह नौ बजे श्रीराम का जन्म हुआ। पितृपक्ष चल रहा था। सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार इन दिनों शरीर छोड़ना और जन्म लेना दोनों ही विलक्षण हैं। कहते हैं कि जो लोग देह छोड़ते हैं, वे परलोक में ज्यादा नहीं भटकते। उनकी ऐसी कोई भोगवासना शेष नहीं रह जाती कि उसकी तृप्ति के लिए अशरीरी अवस्था में रहना पड़े। वे आत्माएँ या तो सीधे पितृलोक चली जाती हैं अथवा नया शरीर धारण कर लेती हैं। इस अवधि में जन्म लेने वाली आत्माएँ भी मुक्तप्राय होती हैं। उनकी एकाध सूक्ष्म वासना शेष रहती है, जिसे पूरा करने के लिए वे शरीर में आती हैं।

यह भी कि पितृपक्ष में जन्म लेने वाले लोग उसी वंशपरंपरा के कोई मेधावी पूर्वज होते हैं। वे अपनी परंपरा को आगे बढ़ाने, उसे समृद्ध करने, गौरव बढ़ाने या पिछले जन्मों में जिन लोगों का अनुग्रह-उपकार रह गया हो, उसे चुकाने के लिए आते हैं। पितृपक्ष और जन्म से पहले होने वाली घटनाओं के आधार पर आंवलखेड़ा के पंडितों ने भी कहा कि रूपकिशोर जी के यहाँ योगी, यति आत्मा प्रकट हुई है। पचपन वर्ष की उम्र में उनका सौभाग्य उदित हुआ है।

शिशु का जन्म घर में ही नहीं, गाँव में भी उल्लास का विषय बन गया। तीस-चालीस घर थे। गायों के आने, मधुमक्खियों के छत्ते बनाने, ताई जी की कही हुई बातें आश्चर्यजनक रूप से चरितार्थ होने की चर्चा आसपास के घरों में ही नहीं गाँवों में भी फैल गई थी। धर्म-धारणा और लोकोत्तर ज्ञान के सहज बोध के चलते बुजुर्ग ग्रामीण उन घटनाओं के समय ही कह चुके थे कि पंडित जी के घर में योगी-यति-आत्मा जन्म लेने वाली है। जन्म हो गया तो आस-पास के गाँवों के जिन श्रीमंतों और कुलीन परिवारों में पंडित जी कथा कहने जाते थे, वहाँ से भी लोग आए।

गाँव के लोगों को उन सबका आना सहज लगा। विशेष लगा तो यह कि गाँव में साधु-संन्यासियों का आना-जाना बढ़ गया। पहले कभी इक्का-दुक्का साधु ही भूले-भटके आता था। शिशु का जन्म होने के बाद चार-पाँच संन्यासी प्रतिदिन आने लगे। जिस दिन जन्म हुआ उस दिन दस बजे एक ऊँचा, पूरा और तेजस्वी संन्यासी हवेली के बाहर आकर खड़ा हो गया। रुदन सुनकर उसने बच्चे को देखने की इच्छा व्यक्त की। ताई जी को संकोच हुआ, लेकिन पंडित जी के समझाने पर मान गई। बच्चे को देखकर संन्यासी ने दोनों हाथ उठाए और दीर्घायु-यशस्वी होने का आशीर्वाद देकर वापसी का रुख कर लिया।

ताई जी बताया करती थीं कि श्रीराम का जन्म होने के बाद कोठरी में मधुर संगीत गूँजने लगा। अगले दिन सुबह तक मंत्रों के पाठ और रामायण की धुन सुनाई देती रहीं। ताई जी की आँतरिक स्थिति के कारण भी यह अनुभव हो सकता है, लेकिन संन्यासियों के आने-जाने से उन्हें परेशान होते हुए कई लोगों ने देखा। साधु-महात्माओं को घर के दरवाजे पर आकर ठिठक जाने और बिना कुछ बोले चुपचाप खड़े रहने से वे भी थोड़े परेशान हुए। उन्हें भेंट-पूजा दी जाती, तो मना कर देते। सौरिगृह की और टकटकी लगाकर देखते रहते। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर वे चले जाते। साधुओं के आने से पंडित जी को अजीब तो लगता था, लेकिन वे परेशान नहीं होते। ताई जी परेशान होतीं तो उन्हें समझाबुझा देते।

बालक सोलह-सत्रह दिन का हुआ होगा। सूतक निवारण के बाद नामकरण संस्कार की व्यवस्था की गई। उस दिन एक विलक्षण घटना घटी, जिससे ताई जी के साथ पंडित जी भी थोड़े विचलित हुए। संस्कार के लिए विजयादशमी का दिन चुना गया। गाँव में रामलीला या रावण-दहन जैसे कार्यक्रम नहीं होते थे। घरों में नवाहृ पारायण बिठा लिया जाता था। सप्तदशी पाठ का प्रचलन भी था, लेकिन ज्यादा लोग रामचरितमानस का ही पाठ करते। बच्चे का जन्म होने के कारण घर में सूतक मनाया गया। संध्यावंदन और पूजा-पाठ के नियम कर्म तो यथावत् जारी रहे, लेकिन नवरात्रि की विशेष पूजा नहीं हुईं। नवमी के दिन सूतक निवारण हुआ। उसी दिन रामचरित्रमानस का अखण्ड पाठ रख लिया गया। अगले दिन पूर्णाहुति, यज्ञ और यज्ञ के साथ नामकरण संस्कार।

मानस पूर्णाहुति, या और संस्कार आयोजन में गाँव के लगभग सभी लोग आए। विजयादशमी के दिन लोगों का आना शुरू हुआ। जो भी आया उसने देखा कि हवेली के द्वार पर एक संन्यासी खड़ा हुआ है। कुछ देर बाद वहाँ एक साध्वी भी आ गई। दोनों में कोई संवाद नहीं हुआ, लेकिन नामकरण आरंभ होने तक वे एक ही जगह अविचल खड़े रहे। संस्कार आरंभ हुआ तो दोनों अंदर आ गए। ताई जी की गोद में लेटे शिशु को दोनों अपलक देखते रहें। संस्कार आरंभ हुआ तो ताई जी की निगाह उन दोनों पर पड़ गई। पहली बार देखकर वे सहमीं और शिशु को पल्ले से ढकने लगीं। साधु ने कहा, “रहने दे माई, हमें भी लाल को देख लेने दे। जी भर कर देख लें, फिर पता नहीं हम देख पाएँ या नहीं।” साधु ने अपनी ओर इंगित किया था कि पता नहीं हम लोग बाद में में रहें या न रहें। लेकिन ताई जी को लगा कि वह बच्चे के बारे में कुछ कह रहे हैं। उन्हें गुस्सा आ गया। वे वेदी से उठीं और साधु को डपटने लगीं। साध्वी को भी आड़े हाथों लिया। दोनों अपनी सफाई देते रहे, लेकिन ताई जी का गुस्सा सिमटने में ही नहीं आ रहा था। पंडित जी उठे और उनके मुँह से अनायास निकल आया, “रहने दो श्रीराम की माँ। तुम्हारे बच्चे का कोई अनिष्ट नहीं होगा। वह कुशलमंगल ही रहेगा।”

संन्यासियों में भी जगी ललक

पंडित जी का कहना था कि साधु ने कहा, हम जाते हैं माई, लेकिन हमारी थोड़ी-सी बात मानना। बच्चे का नाम श्रीराम ही रखना, जो उसके पिता के मुँह से अपने आप निकला है। यह प्रभु की इच्छा है। पंडित जी ने भी साधु के मत से अपना मत मिला दिया। संन्यासी और योगिनी को फिर ताई जी ने कुछ नहीं कहा। वे संस्कार संपन्न होने तक अपने स्थान पर खड़े रहे। शिशु के नामकरण में पिता और अनाहूत संन्यासी की अनियोजित सहमति थी।

किसी और दिन एक वृद्ध संन्यासी के डेढ़ घंटे तक हवेली के सामने खड़े रहने की एक और घटना है। ताई जी उस संन्यासी से भी बहुत घबराई थीं और बड़बड़ाती हुई घर से बाहर निकली थी। संन्यासी का व्यक्तित्व देखकर वे ठिठक-सी गई। कातर भाव से उन्होंने कहा, मेरे बच्चे पर क्यों नजर गड़ाते हो? क्या बिगाड़ा है उसने आपका? संन्यासी ने आश्वस्त किया कि हम बच्चे का अमंगल करने नहीं उसका दर्शन आए हैं। ऐसी भावना आई थी कि हिमालय की एक सिद्ध आत्मा आपकी गोद में आई है। हम लोगों को किसी तरह पता चला तो देखने आए हैं। एक झलक देखकर चले जाएंगे। माँ ने संन्यासी का मन रख लिया और झलक दिखाकर मुड़ते ही बोलीं, नहीं मैं किसी को भी अपने लाड़ले की झलक नहीं दिखाऊँगी। साधु बाबा यहाँ नहीं आया करें।

अपने कमरे में जाकर अपने इष्ट द्वारिकाधीश के आगे बैठ गईं और देर तक रोती रहीं। हिमालय की आत्मा, संन्यासी, सिद्ध पुरुष, दर्शन और इसी तरह के संबोधनों ने माँ को व्यथित कर दिया था कि उनका बेटा आगे चलकर बिछुड़ न जाए। वह भी कहीं बाबा-जोगी न बन जाए। माँ ने अपने इष्ट से यही माँगा होगा कि उसका शिशु हमेशा उसके पास रहे। कभी दूर नहीं हो। भक्त ने अपने भगवान से क्या माँगा, यह दोनों का निजी संवाद है। बहरहाल उस घटना के बाद परिवार में साधु-संन्यासियों का आना और सुखद, किंतु विलक्षण स्थितियाँ बनना बंद हो गया।

शुरू के तीन-चार साल बाल-लीलाओं और अपने शिशु के हाथ-पाँव चलाने से लेकर तोतली जबान में बोलते देख माता-पिता के प्रसन्न होने में ही बीत गए। श्रीराम के जन्म के बाद ढाई-तीन साल बाद परिवार में एक कन्या और आई। नाम रखा गया किरण देवी। कालाँतर में दूसरी बहन आई थी। उसका नामकरण अग्रज के नाम से ही लिया गया, रामदेवी। बहन के जन्म लेने के बाद माता का ध्यान थोड़ा बँटना ही था। अभी तक भोजन बनाने से लेकर पूजा-पाठ करने और आगंतुकों की देखभाल करने तक माँ की निगाहें बेटे पर ही रहती। माँ अपने पुत्र को पिता और परिवार के दूसरे सदस्यों के भरोसे कम ही छोड़ती। जन्म के समय संन्यासियों के आने और उनके द्वारा कही गई चित्र-विचित्र बातें ताई जी के मन-मस्तिष्क में गूँजती रहती। यह अज्ञात भय सताता रहता कि कोई संन्यासी श्रीराम पर अपनी छाया न डाल जाए। किरण देवी का जन्म हुआ तो ताई जी को दूसरे लोगों का भरोसा करना पड़ा। इस मामले में भी उन्होंने पुत्र को सिर्फ पिता के हवाले ही छोड़ा। बेटी की देखभाल के साथ वे श्रीराम का भी पूरा ध्यान रखती। पंडित जी घर पर नहीं होते, तो पुत्र को नवजात कन्या के साथ ही सुलातीं। पिता बाहर से आते तब उनकी छत्रछाया में कुछ ढील दे देतीं। क्रमशः


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