युगगीता-32 - ज्ञान की नौका से भवसागर को पार करें

April 2002

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या चौदहवीं कड़ी)

‘यज्ञों में श्रेष्ठतम ज्ञानयज्ञ’ शीर्षक से विगत अंक में अति महत्वपूर्ण इस चौथे अध्याय में तैंतीसवें एवं चौंतीसवें श्लोक के माध्यम से ज्ञानयज्ञ की महिमा का प्रतिपादन किया गया था। योगेश्वर श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत है कि मनुष्य के सारे कर्म इस ज्ञानयज्ञ में समाप्त हो जाते हैं एवं अज्ञान से मुक्ति ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। इसी प्रक्रिया में परमपूज्य गुरुदेव के विचार चक्र परिवर्तन की चर्चा की गई थी। उन्होंने ज्ञानयज्ञ को पतन निवारण की सेवा नाम दिया है। इसी क्रम में युगधर्म के रूप में समयदान की बात कही गई थी। ज्ञान की विस्तृत व्याख्या के अंतर्गत श्री अरविंद द्वारा प्रतिपादन एवं उपनिषदों का चिंतन भी पिछली कड़ी में दिया गया था। यह ज्ञान प्राप्त कैसे किया जाए, उसके लिए भगवान अर्जुन को राय देते है, वह इसके लिए उन तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाए जिनने इस सत्य को प्रत्यक्ष देखा है (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः)। वे कहते हैं कि बिना किसी छल के भाव से सरलतापूर्वक जिज्ञासा व्यक्ति करने से वह ब्रह्मज्ञान हर किसी को ज्ञानी महात्माओं से, उनकी सेवा करने से प्राप्त हो सकता है। शिष्य पात्रता विकसित करने के लिए अपना सब कुछ यदि गुरु को अर्पित कर दे, तो वह उनसे ब्रह्मज्ञान पा सकता है। इसी ज्ञान के बारे में चर्चा और विस्तार से इस अंक में-

जिस ज्ञान के लिए भगवान अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को तत्वदर्शियों-गुरुजनों के पास जाकर समझने को कह रहे हैं, उसके विषय में आगे कहते हैं-

यज्ञात्वा न पुनर्मेहमेवं यास्यसि पाँडव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ 4/35

“जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को (समस्त प्राणियों को) पहले अपने में और तदनंतर मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा में देख सकेगा।”

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृश्रमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥ 4/36

“यदि समस्त पापियों से भी तू अधिक पापी आपने को मानता है तो ज्ञानरूपी बेड़े (नौका) में सवार होकर निस्संदेह तू इस पाप समुद्र से पार हो सकेगा।”

एक महती आश्वासन

कितना बड़ा आश्वासन है परमसत्ता का इन दो श्लोकों में। वे कहते हैं कि इस ज्ञान को जानकर मनुष्य पुनः मोह के दलदल में नहीं फँसता। सब जगह परमात्मा की चेतना को संव्याप्त देख वह आसक्ति के बंधन में नहीं फँसता। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि एक बार तुम्हें परमात्मा की झलक मिल गई तो स्वर्ग की रंभा, तिलोत्तमा जैसी सुँदर अप्सराएँ भी चिता की भस्म की तरह प्रतीत होंगी। फिर उनका आकर्षण किसी के ऊपर व्यापेगा नहीं। स्वर्गीय सौंदर्य भी अनाकर्षक लगने लगेगा। ईश्वरीय बोध हो जाने पर तीनों लोकों की संपदा भी उसके सामने तुच्छ हो जाती है। जब मनुष्य संपूर्ण संसार में संव्याप्त परमात्मा के प्रति अपने मन में प्रेमभाव उत्पन्न कर लेता है, तो वह सारे संसार के साथ ही अपने तादात्म्य का अनुभव करने लगता है, तब वह संपूर्ण जीवन को आत्मा के दिव्य प्रकाश का परिधान पहने हुए अर्थात् सब में एक ही अंत आत्मा अथवा प्रभु के मनमोहक आवाहदमय आलिंगन में स्वयं को बंधा हुआ साक्षी भाव से देखने लगता है। (येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यस्यगत्मन्यथो मयि)।

यह ज्ञान-दिव्य ज्ञान मनुष्य के अंदर प्राणी-प्राणी में भेद बुद्धि के कारण जो मोहग्रस्त छाई पड़ती है, उसे ज्ञान चक्षु खुलने के बाद समाप्त कर देता है। ऐसा ज्ञान मिलते ही सारे पाप कर्म भस्म हो जाते है। यदि व्यक्ति पापियों में भी पापी (यहाँ भगवान ने अर्जुन के लिए पापिष्ट शब्द नहीं प्रयुक्त किया है- वे जानते हैं कि वे स्वयं भगवान हैं व अर्जुन उनके ही अंश हैं, नर-नारायण हैं, अतः पापकृत्तम (अधिक पापी) शब्द उन पर लागू नहीं होता, तो भी ज्ञानरूपी नौका में बैठकर वह पार हो जाता है, इतनी महिमा है ज्ञान की। पापसमुद्र से जो तार दे वह ब्रह्मज्ञान कितना पवित्र है, कितनी अनिर्वचनीय महिमा है उसकी, पराकाष्ठा की ओर ले जाने वाला श्लोक है यह। यहाँ तो ज्ञान की महिमा के परिप्रेक्ष्य में यह श्लोक आया है किन्तु भगवान की दृष्टि कितनी उदारता से भरी है-पापी से भी पापी व्यक्ति को शरण देने को आतुर हैं, उसका आभास वे एक और श्लोक में नवें अध्याय में भी देते हैं जब वे कहते हैं-

अपि चेत्सुदुराचारों भजाते मामनन्यभाक्। साधुरेव व मनतवयः सम्यग्यवसितों हि सः॥9/3

“यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।”

चौथे अध्याय के इस छत्तीसवें श्लोक की ही व्याख्या का अगला चरण है यह। भगवान कृपासिंधु है, करुण के सागर हैं, वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अंबपाली, सदन कसाई, अजामिल भी उनकी शरण में जाते ही तर जाते हैं। भगवान को जान लेना, उनको भजने लगना ज्ञान के माध्यम से उनकी छाया में आ जाना यही वह राजमार्ग है जिस पर चलकर पापी व्यक्ति भी तर जाता है, बंधनमुक्त हो जाता है।

अपरंपार है ज्ञान की महिमा

गीता की यही विशेषता है कि कर्म-ज्ञान-भक्ति की त्रिवेणी इसके श्लोकों में कूट-कूटकर भरी है। यदि कर्म समर्पण भाव से भगवान को ही चारों ओर संव्याप्त मानकर हर क्षण उनको श्वास में जीते हुए इस ज्ञान को आचरण में उतारते हुए किए जाएँगे, तो निश्चित मानिए कि यदि कहीं व्यक्ति का पूर्व का जीवन गलतियों से, पापकर्मों से भरा पड़ा है तो भी वह तर जाएगा, बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होगा।

परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं, “ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय हैं इसी प्रकार ज्ञानविहीन व्यक्ति के लिए संसार में जो भी कुछ उत्कृष्ट है, उसे देख पाना असंभव है। ज्ञान के आधार पर ही धर्म का, कर्त्तव्य का, शुभ-अशुभ का, उचित-अनुचित का विवेक होता है और पाप-प्रलोभनों के पार यह देख सकना संभव होता है कि अंततः दूरवर्ती हित किसमें है। ज्ञान के दीपक का प्रकाश ही इंद्रियों की वासना और प्रलोभनों की तृष्णा से होने वाली दुर्दशा से बच सकता है।” (वाङ्मय खंड 48/1.7 पृष्ठ)

भगवान राम ने जब सद्गुरु वशिष्ठ से साँसारिक क्लेशों के भवबंधनों से छुटकारा पाने का उपाय पूछा तो उन्होंने यही कहा, “हे राम! यदि भवसागर से पार होने की इच्छा है तो सबसे प्रथम ज्ञान संचय का प्रयत्न करे। ज्ञान से ही दुःख दूर होते है। ज्ञान से ही अज्ञान का निवारण होता हैं, ज्ञान से ही सिद्धि प्राप्त होती है और किसी उपाय से नहीं” (योगवशिष्ठ 5/88/12)

छांदोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है। एक बाद इंद्र और विरोचन में एक जिज्ञासा पैदा हुई, “मैं क्या हूँ।” वे बार-बार सोचते-विचारते रहे, लेकिन उन्हें मैं का अता-पता नहीं लगा। आखिर दोनों मिलकर आदरपूर्वक शिष्य भाव से हाथ में समिधाएँ लेकर आचार्य प्रजापति के पास गए और नम्रतापूर्वक उनसे अपनी जिज्ञासा प्रकट की। प्रश्न का जवाब देने के पूर्व ही प्रजापति ने उनकी योग्यता, पात्रता को जानने के लिए एक युक्ति निकाली। उन्होंने कहा, “एक थाली में पानी भरकर अपना-अपना मुँह देखो, उसमें तुम्हें अपना स्वरूप दिखाई देगा।” दोनों ने तुरंत सज-धजकर पानी से भरी थाली में अपने को देखने का प्रयास किया। विरोचन को अपना सजा-सँवरा रूप देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपने साथियों में जाकर अभिमान के साथ कहने लगे, भाई! मैंने तो ‘मैं’ का पता लगा लिया है, लेकिन उधर इंद्र का कोई समाधान नहीं हुआ। वह कुछ बुद्धिमान था। वह पुनः आचार्य के पास पहुँचा व बोला कि भगवन्! इस असंस्कृत शरीर की प्रतिच्छाया ही प्रतिबिंब में दिखाई देती है। यदि यह शरीर काना-लूला, लँगड़ा होता तो प्रतिच्छाया भी वैसी ही दिखाई देती। वस्त्रालंकारों को उतार देने पर प्रतिबिंब का सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह भी नहीं रहता। इसीलिए इसे मैं कैसे अपना स्वरूप मानूँ? मुझे इसमें शाँति नहीं मिलती। प्रजापति ने इंद्र को सच्चा जिज्ञासु माना व ज्ञान का उपदेश दिया। विरोचन देहात्मवादी कहलाए व आसुरी संस्कृति के पोषक बने।” (अध्याय 8, खंड सप्तम से पंचदश)

विज्ञान नहीं ज्ञान

उपर्युक्त कथा आज के उपभोक्तावादी युग में बड़ी सटीक है व सभी को प्रेरणा देती है कि जो प्रत्यक्ष है, भोगने योग्य है, उसी को सब कुछ न मानें, जो अगोचर है, ज्ञान का मर्म है, उसे जानने का प्रयास करें। विज्ञान ने आज सभी के चिंतन को बहिर्मुखी बना दिया हैं भोग ही सब कुछ बनकर रह गया है, इसीलिए चारों और आसुरी चिंतन दिखाई देता है। यदि कलियुग की स्थिति सुधरती है, सतयुगी समाज वापस लाना है, पापियों की संख्या में कमी करनी है तो एक ही रास्ता है ज्ञान की आराधना का। वह ज्ञान जो पाप समुद्र से भलीभाँति सभी को तार देता है।

भगवान अर्जुन को उपदेश देने के समय बार-बार ज्ञान के महात्म्य एवं परमात्मसत्ता के प्रति समर्पण की चर्चा करते है। अर्जुन हम सबके अंदर है एवं यदि हम उस उपदेश को अपने लिए मान सकें तो हमारा कल्याण सुनिश्चित है। पापों से तारने का आश्वासन भगवान ने अठारहवें अध्याय में गीता के शिक्षण की पराकाष्ठा पर पहुँचने के बाद भी दिया है, जब वे कहते हैं, “तू सभी कर्त्तव्य-कर्मों को त्यागकर मुझ सर्वशक्तिमान परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।” (अहं त्वा सर्वपापेभ्यों मोक्षयिष्यामि मा शुचः) हम कल्पना कर सकते हैं कि भगवान कितने करुणानिधान हैं। वे बार-बार अपने शिष्य को साधक को, किसी भी जिज्ञासु पाठक को पापों से मुक्त करने का आश्वासन दे रहे हैं, शर्त एक ही है, हम तत्व से परमात्मा को जानें। चारों और उसे संव्याप्त मानें एवं फिर एकनिष्ठ भाव से उसके प्रति समर्पित हो जाएँ।

एक सामान्य व्यक्ति के लिए जो भौतिकवादी जीवन जी रहा है एवं आध्यात्मिक मार्ग की ओर आने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट अनुभव करता है, भगवान की स्पष्ट घोषणा है कि वे ज्ञानरूपी नौका में निश्चित ही तर जाएंगे। भगवान हर उस व्यक्ति को इस वाक्य के द्वारा उत्साहित करते हैं कि यदि तुम पापियों में से भी सबसे बड़े पापी भी क्यों न हों तब भी तुम्हारे लिए आशा है। तुम जाग्रति की स्थिति में आओ, व्यापक दिव्य चैतन्य का अनुभव करो। जागों और अहंभाव से ऊपर उठ जाओ। ज्ञान की नौका तुम्हें तार देगी।

इस नौका पर बैठकर तो देखें

अब मनुष्य यह समझे कि वह निरंतर पापकर्म करता रहे तथा ज्ञानप्राप्ति का कर्मकाँड किसी तरह करते रहे, तो उसकी मुक्ति नहीं है। ‘ज्ञान’ तो वह साबुन है जो कषाय कल्मषों को आत्मसत्ता पर से साफ कर देता है, फिर वह मनुष्य की वृत्ति भी बदल देता है। यह वह ज्ञान है जिसे प्राप्त कर मनुष्य कभी मोह को प्राप्त नहीं होता एवं वह दृष्टि मिल जाती है कि वह सब प्राणियों के साथ एकात्मभूत हो जाता है। एक प्रकार की दार्शनिक समता की प्राप्ति हो जाती है। इस सर्वव्यापी आध्यात्मिक एकता में सबका ‘अशेषेण’ (येन भूतानि अशेषेण-4/35) बिना अपवाद के समावेश होता है। जो कुछ अच्छा है, सुँदर है, वहीं नहीं बल्कि जो नीच-पतित, पापी या घृणित हो, वह भी उसके अंदर आ जाता है। फिर सबके भीतर से साधु-महात्मा ही नहीं, चोर वेश्या एवं चाँडाल के भीतर से भी वे ही प्रियतम ताकते हैं और पुकार कर कहते हैं कि मुझे देख मैं यहाँ हूँ। “सब भूतों में जो मुझको प्यार करता है” ऐसी दिव्य प्रेम की शक्तिशाली घोषणा एवं पापों से विमुक्ति का आश्वासन संसार के किसी भी दर्शन शास्त्र या धर्म में, किसी भी ग्रंथ में नहीं हुआ है, जैसा कि गीता में वर्णित हुआ है।

फिर भी पूर्वकाल में मूर्खतावश जो कुछ भी हम कर बैठे हैं, उसके परिणाम तो भोगने ही होंगे। ईश्वरीय न्याय तो अपना कार्य करेगा ही। संचित और क्रियमाण कर्म तो नष्ट हो जाएंगे, पर प्रारब्ध नष्ट नहीं होगा। प्रारब्ध तो एक बँधी हुई फाइल की तरह साथ-साथ चलता है। कभी-कभी कोई समर्थ गुरु आता है, उस गुरु की कृपा होती है, तो वह प्रारब्ध भी उसकी कृपा से घटता चला जाता है, परिष्कृत होता चला जाता है। फिर मनुष्य साक्षी भाव में जीने लगता है। शरीर का कष्ट, कष्ट नहीं लगता। सदा आनंदभाव से जीने की मन में इच्छा होती है। कष्ट आते हैं तो साधक उन्हें तप बना लेता है। कर्म-विधान की भी अवहेलना नहीं होती। इसीलिए भगवान अगले श्लोक में किसी भी साधक की शंका का पूर्वानुमान कर कहते हैं-

यथैघाँसि समिद्धोऽग्निर्भस्म सात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते यथा ॥4/36

“हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण कार्यों को भस्म कर देती है।”

कर्म वासनाएँ एवं पाप-पुण्य

यहाँ ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग भगवान ने किया है। भूतकाल के हमारे जीवन में स्वार्थपूर्ण जीवन, कामना प्रेरित कार्यों के कारण जो वासनाएँ जन्मीं, उन्हीं की और यह संकेत हैं किसी भी कर्म की प्रेरक ये ‘वासनाएँ’ ही होती हैं और इनके शुभ व अशुभ प्रकारों से ही व्यक्ति को सुख या दुःख की प्राप्ति होती है। अशुभ वासनाएँ ही पाप कर्म को जन्म देती है। भगवान कहते है कि जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञान की अग्नि संपूर्ण कर्मों-वासनाओं को भस्मीभूत कर देती है। चूँकि साधक ज्ञानी है, उसके अहंकार भस्मसात् हो चुका है, वह समर्पण भाव से कर्म करता हुआ जी रहा है, उसके पाप दुग्ध हो जाते है। इसी तरह अहंकेंद्रित जीवन में इकट्ठे किए पापों की चूँकि शुद्ध आत्मा तक पहुँच नहीं, वे बने रहते है, त्रास देते रहते हैं तब तक, जब तक कि मनुष्य ज्ञानरूपी अग्नि में उन्हें जलाए नहीं, स्वयं को उस परमपिता सच्चिदानंदघन परमात्मा की शरण में सौंपे नहीं। ज्ञान के माध्यम से जो उपचार श्रीकृष्ण ने दिया है, वह बड़ा अद्वितीय है, क्योंकि अत्यंत पतितों-पापी से भी पापी व्यक्तियों के लिए यहाँ आशा की किरण नजर आती है।

प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य पाप क्यों करता है, क्यों वह पापकर्म में लिप्त होता है? कर्म कब पाप बनता है, कब पुण्य, यह गुत्थी भी युगों-युगों से चली आ रही है। आखिर आदमी ‘सुरदुर्लभ मानव तन’ पाकर पापकर्म में लिप्त होता ही क्यों है? यह भी समझ में नहीं आता। परमपूज्य गुरुदेव इसका समाधान अपनी लेखनी से देते है। वे लिखते हैं, “सामान्य मानव में कर्म के प्रेरक तत्व उसकी अभिरुचि, आदतें व जन्माँतरों की प्रवृत्तियां होती है। इन्हीं सबके अनुसार वह जीवन ऊर्जा को नष्ट करता बिखेरता रहता है, जबकि साधनारत दिव्य-कर्मी विधाता द्वारा दी गई ‘कर्म की स्वतंत्रता’ का ठीक-ठीक उपयोग करने में समर्थ होता है। वह स्वयं की अभिरुचियों, आदतों एवं प्रवृत्तियों को नए सिरे से गढ़ता है। उसके अंतराल में नए संस्कार जन्म रकने की लालसा, अहंकार का झंडा ऊँचा करने की चाहत नहीं रह जाती। प्रत्येक काम लोक के प्रति करुणा, आत्मविकास के सोपानों पर चढ़ने के उद्देश्य से होता है। यही कर्म पुण्य बन जाते हैं। इसके लिए सुसंस्कृत साधक पहले बनना होता है।” (अखण्ड ज्योति अगस्त 1942 पृष्ठ 36)। वास्तविकता यही है। गौरव बोध से होने वाला काम, जिसके पीछे स्वार्थ और अहं की प्रेरणा न हो, पुण्य बन जाता है। अंतर्मन में ग्लानि, कुँठा, हीनता की चोट सहनी पड़े, ऐसे काम पाप बन जाते हैं।

‘पाप’ शब्द की धुरी पर ईसाई धर्म की नींव रखी हुई है। पापों का प्रायश्चित (कन्फ्रेशन) यही विधान उनके यहाँ प्रभु के द्वार पर पहुँचने का राजमार्ग बनाता है। भारतीय संस्कृति का चिंतन इससे भी आगे परिष्कृत मार्ग अपनाता है एवं हर श्वास में योग, हर श्वास में जीवन साधना जीने का मंत्र सिखाता है। जब जीवन साधना निखरने लगती है, तो पापकर्म स्वतः नहीं बन पड़ते। रोजमर्रा के कषाय-कल्मषों एवं पापकर्मों के बीजों को भूनकर राख कर देने के लिए उनका स्वरूप बदलने के लिए इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री की ज्ञानगंगा बहाई। कभी जो प्रतिबंधों से घिरी थी, उस साधना को जन-जन के लिए उपलब्ध करा दिया। गायत्री मंत्र का भर्गतश्रव पापनाशक सविता देव का तेज धारण करने की प्रेरणा देता है। यह ज्ञान यदि जीवन का अंग बन जाए तो व्यक्ति भवबंधन में फँसेगा ही क्यों? ज्ञान की और अधिक व्याख्या अगले अंक में क्रमशः


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