किसी स्थान पर विशाल भवन का निर्माण हो रहा था। निर्माण-स्थल के समीप ही लगा हुआ था ईंटों का एक ढेर। ईंटों के ढेर में जमी ईंटों ने कहा- गगनचुंबी अट्टालिकाओं का निर्माण हमारे अस्तित्व पर ही आधारित है। भवन जब बनकर तैयार हो जाएगा, निस्संदेह उसके निर्माण का श्रेय हमें ही मिलेगा।
मिट्टी-गारे ने ईंटों की यह गर्व भरी बातें सुनीं, तो रहा न गया। वह बोली, तुम झूठ बोलती हो। क्या तुम नहीं जानती कि एक सूत्र में पिरोकर, ईंट से ईंट जोड़कर इस भवन को सुदृढ़ बनाने का श्रेय तो हमें ही है। मेरे अभाव में तो तुम्हारे ये ढेर एक ठोकर मारकर ही गिरा दिए जा सकते है।
किवाड़ और खिड़कियों ने इसका प्रतिवाद किया, यह तो सभी जानते हैं कि तुम ईंटों को जोड़-जोड़कर दीवारें खड़ी करती हो, पर यदि उस मकान में खिड़की-दरवाजे न रहेंगे, तो पूछेगा कौन? उसमें रहने के लिए जाएगा कौन? शिल्पी जो इन सबकी बातों को चुपचाप सुन रहा था, अब बोला, आप लोगों में भले ही कितना भी सहयोग क्यों न हो, परंतु जब तक मेरा हाथ न लगे, सब अपने-अपने स्थान पर ही पड़े रहेंगे।
अब भवन की बारी थी। भवन ने जो कुछ कहा, वह एक स्वीकार्य सत्य था। भवन बोला, सबका महत्त्व है, परंतु उससे भी महत्त्वपूर्ण है-सह अस्तित्व। यह अस्तित्व के अभाव में किसी का व्यक्तिगत कोई महत्त्व नहीं है, इसलिए आपको अपना झूठा अभिमान छोड़कर सहयोग का महत्त्व समझना चाहिए।