अपनों से अपनी बात - इस वर्ष का महापुरुषार्थ संगठन-सशक्तीकरण

April 2002

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सन् 1977 की गुरुपूर्णिमा से 1978 की वसंत पंचमी तक की अवधि को परमपूज्य गुरुदेव ने युगनिर्माण परिवार गायत्री परिवार की पुनर्गठन वेला घोषित किया। उसमें उन्होंने जो कुछ महत्वपूर्ण बिंदु दिए, वे इस प्रकार थे-

(1) हमें शरीर के नहीं, चेतना के संबंधी चाहिए, जो मिशन की विचारधारा के प्रति आस्था रखते हों। (2) अधिक से अधिक वे परिजन चाहिए जो कर्मठता से न्यूनतम एक घंटा समय दे सकते हैं और दस पैसा प्रतिदिन ज्ञानयज्ञ के लिए निकालते हों। (3) हम कार्यकर्त्ताओं को तीन स्तरों में विभाजित करना चाहते हैं, (4) सहयोगी, समर्थक, स्नेही, परिचित (5) पत्रिकाओं के सदस्य-नियमित पाठक (6) अंशदान प्रस्तुत कर मिशन की सक्रिय सहायता करने वाले। (7) इनमें से दो अंतिम श्रेणी के कार्यकर्त्ताओं का न्यूनतम दायित्व होना चाहिए कि वे कम से कम पाँच अन्य व्यक्तियों को ‘अखंड ज्योति’ पत्रिका के विचारों को पढ़ाएँ। सुनाएँ। विचारशील व्यक्तियों की सूची तैयार कर लें। ज्ञानघट जिनके यहाँ स्थापित हैं, उनसे राशि लेकर झोला पुस्तकालय द्वारा साहित्य पहुँचाएँ। हो सके तो ज्ञानरथ योजना को गति दें। माह में एक दिन की आय इसके निमित्त देने वाले एवं प्रतिदिन चार घंटा समय देने वाले अधिकाधिक कर्मयोगी निकाले जाएँ।

परमपूज्य गुरुदेव ने जुलाई 77 (पृष्ठ 54-55) की अखण्ड ज्योति के संपादकीय में लिखा, “परिवार शब्द हमारी नस-नस में उत्साह भर देता हैं। उसका निखरा हुआ स्वरूप कहीं भी बनता दिखे तो आँखें चमकने लगती है। गायत्री परिवार, युगनिर्माण परिवार नामकरण हम इसी दृष्टि से करते आए हैं। इस नामकरण के साथ ही हम वह भाव भी पिरो देना चाहते है, जो हमें पुलकित करता रहता है। हम अपने पीछे ऋषि-परंपरा के अनुकूल एक आदर्श परिवार छोड़ जाना चाहते हैं।” इन शब्दों ने लाखों परिजनों के मर्म को स्पर्श किया एवं एवं उन्होंने स्वयं को पुनर्गठित कर विधिवत् कार्य आरंभ भी किया।

पुनर्गठन वर्ष के कार्यक्रम -गुरुसत्ता ने इसके साथ कुछ कार्यक्रम दिए। वे इस प्रकार थे-

(1) जन्मदिन मनाने की परिपाटी विकसित हो।

(2) आदर्श वाक्य लेखन बनाम बोलती दीवारें खड़ी हों।

(3) चल पुस्तकालय अधिकाधिक हों।

(4) तीर्थयात्रा-धर्मप्रचार फेरी का आयोजन नियमित हो।

(5) वसंत पर्व व गुरुपूर्णिमा के दो स्थानीय कार्यक्रम सभी शाखाएँ मनाएँ।

(6) केंद्रीय व्यवस्था के माध्यम से स्थानीय स्तर पर साधना सत्र एवं क्षेत्रीय कार्यकर्त्ताओं के सम्मेलनों के आयोजन हों। प्रतिवर्ष एक-एक यह आयोजन निश्चित रूप से हो।

(7) महिला जागरण शाखाएँ नियमित रूप से चलें।

(8) शाखा स्तर पर लोकरंजन व लोकमंगल के साधन विकसित हों।

(9) सभी गठित शाखाओं का साधना सत्र के रूप में ढाई दिवसीय वार्षिकोत्सव हो, जिसमें केंद्र का एक प्रतिनिधि भी सम्मिलित हो।

पुनर्गठन से 1990 तक-उपर्युक्त कार्यक्रम सारे क्षेत्र में चलें। जागरूकता पैदा हुई एवं जुलाई-अगस्त दो माह के अंदर ही अधिकाँश कार्यकर्त्ता पुनर्गठित टीम के एक अंग बनते चले गए। बीस मार्गदर्शक पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई एवं अधिकाँश प्राणवानों 1 अक्टूबर से 3 जून 78 तक शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ के शिविरों में भागीदारी की। पुराने परिजन सभी जानते हैं कि उन्हीं दिनों केंद्र में देव परिवार बसने, गायत्री नगर का निर्माण होने के साथ-साथ ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की स्थापना का कार्य चल रहा था। इसी बीच क्षेत्रीय स्तर पर जन-जाग्रति केंद्रों के रूप में शक्तिपीठों के निर्माण की घोषणा हो गई। शिलान्यास हेतु व कहीं-कहीं निर्माण होने की स्थिति में प्राणप्रतिष्ठा हेतु 1980-81 में स्वयं परमपूज्य गुरुदेव क्षेत्रीय दौरों पर निकले। सारे राष्ट्र का मंथन हुआ, अति विशाल सभाएँ हुई एवं सारा देश एक प्रकार से गायत्रीमय हो गया। पूज्यवर के प्रवास का क्रम 1982 के पूर्वार्द्ध में रुक गया, क्षेत्रीय दौरे अन्य कार्यकर्त्ता करने लगे, इस बीच पूज्यवर की सूक्ष्मीकरण साधना आरंभ हुई, जिसकी पूर्णाहुति के उपलक्ष्य में 1986-87 में सारे भारत में 108 कुँडी यज्ञों सहित राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों की एक वृहत शृंखला चली। बीच-बीच में शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों, प्रज्ञापीठों की स्थापनाएँ, प्राण प्रतिष्ठाएँ होती रही। 1989-90 की अवधि इस मिशन की अति महत्वपूर्ण अवधि है, जिसमें पूज्यवर ने अपने सारे जीवन भर की साधना का निचोड़ नवयुग की आचार संहिता के रूप में क्राँतिधर्मी साहित्य लिखकर प्रस्तुत कर दिया, साथ ही बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण एवं दीपयज्ञों के माध्यम से उसकी महापूर्णाहुति की घोषणा भी वे कर गए। 2 जून गायत्री जयंती को महाप्रयाण के साथ ही उनका अंतिम संदेश एक आश्वासन दे गया कि संगठन का कार्य और बढ़ेगा एवं परमवंदनीया माता उसे दिशा देंगी।

श्रद्धाँजलि समारोह से हीरक जयंती तक की महायात्रा

1990 की अक्टूबर की शरदपूर्णिमा की वेला में संपन्न श्रद्धाँजलि समारोह, विदेश-मंथन हेतु कार्यकर्ताओं का प्रवास, शपथ समारोह, देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान के अंतर्गत भारत व विदेश में सत्ताईस आश्वमेधिक आयोजन, आँवलखेड़ा की पूर्णाहुति, संस्कार महोत्सवों के साथ-साथ रचनात्मक आँदोलन की शुरुआत और फिर सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ (नवंबर 2001) तथा विराट् विभूति ज्ञानयज्ञ नई दिल्ली (अक्टूबर 2000) ने मिशन का विस्तार सौ गुने से भी अधिक कर दिया। 1994 की मध्यवेला तक सशरीर परमवंदनीया माताजी ने मार्गदर्शन दिया, फिर वे भी गुरुसत्ता से एकाकार हो गईं, किंतु उनका आश्वासन मिशन के सत्स्यावतार की तरह फैलने के रूप में सभी ने प्रत्यक्ष फलीभूत होते देखा।

महापूर्णाहुति के सफल-सुव्यवस्थित आयोजन के तुरंत बाद हीरक जयंती वर्ष आ गया, जिसे त्रिविध रूप में युग चेतना के अभ्युदय (भगवत् सत्ता के धरती पर अवतरण), अखण्ड दीप रूप में प्रखर प्रज्ञा के निरंतर प्रकाशित होते रहने तथा परमवंदनीया माताजी के जन्म के 75 वें वर्ष पूरे होने के साथ सजल श्रद्धा के अनवरत अनुदान बरसने की प्रक्रिया रूप में संपन्न किया गया। सप्तसूत्री आँदोलन घोषित हुए एवं सारे भारत में क्रांतिकारी गतिविधियाँ चल पड़ी। प्रखर साधना वर्ष की शुरुआत के साथ ही इस विराट संगठन को सशक्त बनाने की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी, किंतु अब हीरक जयंती महोत्सव मनाने एवं उसकी पूर्णाहुति के प्रसाद रूप में देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के विधिवत् बन जाने के बाद उसकी क्रियापद्धति शुरू करने के साथ इस बसंत से संगठन-सशक्तीकरण वर्ष की शुरुआत की गई है। पुनर्गठन से सशक्तीकरण की इस महायात्रा का यह विवरण इसीलिए परिजनों के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि वे उस भूमिका को समझ सकें, जो अब उन्हें संगठन को सशक्त बनाने के लिए निभानी है।

पुनर्गठन वर्ष से जो प्रक्रिया आरंभ हुई, उसे चौबीस वर्ष पूरे होकर रजत जयंती वर्ष में भी प्रवेश कर गए है। इस विराट संगठन पर सभी की दृष्टि है। इसका सुव्यवस्थित होना, योजनाबद्ध ढंग से सुसंचालन होना अब अनिवार्य है। यह संगठन-सशक्तीकरण अब केंद्र में भी होना चाहिए एवं जिला स्तर पर पूरे देश के कोने-कोने में।

इस वसंत का चिंतन मंथन

इसी विषय पर इस वर्ष वसंत पंचमी का पूरा मंथन केंद्रित रहा। सभी के मन में एक ही वेदना थी, एक ही दृष्टि थी, एक ही लक्ष्य था कि हम और भी व्यवस्थित होकर अपने आपको सशक्त बना लें, सुसंगठित बनाएँ। इसी उद्देश्य से सभी चर्चाएं हुई, उद्बोधन हुए एवं कार्यकर्ताओं की कार्यशालाएं चलीं। हमारे पास अब इस नवरात्रि से आगामी वसंत पर्व छह फरवरी तक का समय है इस अवधि में हमें सारे राष्ट्र के संगठन को साधना की धुरी पर सुव्यवस्थित-संगठित बना देना है। एक प्रकार से यह पुनर्गठन की महापूर्णाहुति एवं सारे प्रचार-दिग्विजयी पुरुषार्थ से उपजी ऊर्जा के आगामी आठ वर्षों में सुनियोजन का एक प्रकार से श्वेत पत्र होगा।

अब सभी परिजनों को यह कहा जा रहा है कि वे अपनी जिला-समन्वय समिति को सुव्यवस्थित-पुनर्गठित कर लें। पूरे भारत में मिशन तीन तरह से सक्रिय है। एक तो वह जहाँ दशकों से कार्य चल रहे हैं, वह पूर्णतः जाग्रत क्षेत्र है, अधिकाँश लोग गायत्री व यज्ञ को जानते हैं। यह विकसित खेत्र हुआ। देश के प्रायः साढ़े तीन सौ जिले इस परिधि में आते है। दूसरा अर्द्ध विकसित अर्थात् जहाँ अभी मात्र प्रचार-प्रसार ही हो पाया है। राष्ट्र के प्रायः दो सौ जिले इसके अंतर्गत आते है। शेष विस्तार वह है, जहाँ मिशन अभी किन्हीं कारणों से नहीं पहुँच पाया है। उत्तर-पश्चिम, उत्तर-पूर्व, सुदूर दक्षिण के प्रायः डेढ़ सौ जिले इसमें आते है। यह अविकसित क्षेत्र है।

जिला समन्वय समितियों का गठन हो

सरकारी जिले अलग होते है। हमारे संगठन में हम दो या तीन जिलों को मिलाकर प्रवृत्तियों की दृष्टि से एक जिला गठित कर उसकी समन्वय समिति बना सकते है। उसमें उन सभी को स्थान हो, जो यज्ञ-पौरोहित्य से जुड़े हो, प्रबुद्ध वर्ग से संपर्क रखते हों, मिशन की सभी पत्रिकाओं, वीडियो मैगज़ीन आदि के प्रचार-प्रसार में गति रखते हों, स्वयं समयदान देकर साधना व कार्यकर्ता प्रशिक्षण की योग्यता रखते हों, ज्ञानरथ, झोला पुस्तकालय द्वारा ज्ञानयज्ञ में सक्रिय भागीदारी करते हों तथा मीडिया आदि कार्यों से जुड़े हों। इस जिला समन्वय समिति को उस जिले (या जिलों के समुच्चय) की शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों, सक्रिय प्रज्ञामंडलों, महिला मंडलों, स्वाध्याय मंडलों से जाड़ा जाएगा। इस समिति के सदस्यों का निर्धारण क्षेत्रीय स्तर पर सर्वसम्मति से होकर केंद्र द्वारा उसका अनुमोदन होगा। तदुपराँत सभी एक ही बैनर तले विभिन्न प्रकोष्ठों में कार्य करेंगे। चाहे वह उस जिले के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन हो, प्रज्ञा संस्थान/संस्थानों के वार्षिकोत्सव हों, प्रज्ञापुराण या महिला जागरण सम्मेलनों के आयोजन हों अथवा प्रबुद्ध वर्ग के सम्मेलन, वर्कशॉप या भारतीय संस्कृति ज्ञानपरीक्षा संबंधी गोष्ठियाँ-सभी एक ही मंच तले संपन्न होगी। केंद्र द्वारा अनुमोदित इस जिला स्तरीय समन्वय समिति का एक सुनिश्चित कार्यकाल होगा तथा निष्क्रिय सदस्यों को बदला जाता रहेगा। कोई भी अपने नाम का पृथक-पृथक पैड नहीं छपवाएगा। सभी एक ही अभियान की संगठन की धुरी पर कार्य करेंगे।

उस जिले में किसी भी स्तर का छोटा सा बड़ा आयोजन होगा तो जिला समन्वय समिति का अनुमोदन अनिवार्य होगा, तभी केंद्रीय दल वहाँ जाएगा। यह इसलिए सुनिश्चित किया जा रहा है, ताकि व्यवस्थित ढंग से सारे भारत को एक कड़ी में बाँधा जा सके। अपनी मनमर्जी से कोई भी कार्यक्रम की माँग न कर वर्ष के शुभारंभ में ही अपनी नीति बना ले, सभी मिलजुलकर बैठक कर लें एवं फिर उस जिले के सातों आँदोलन के विस्तार, रचनात्मक क्रियाकलापों सहित अनिवार्य यज्ञ-सम्मेलन आयोजनों की व्यवस्था बनाएं। सभी उन कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए अपना पूरा श्रम लगा दें। पत्रिकाओं के पाठक बढ़ाने, संस्कृति ज्ञान परीक्षा में अधिक से अधिक की भागीदारी, साधकों (वैयक्तिक सामूहिक) की संख्या में वृद्धि तथा रचनात्मक आँदोलनों की विविधता से भरी गतिविधियों के क्षेत्र में जिलों में प्रतिस्पर्द्धा हो। यह प्रतिस्पर्द्धा मिशन को शिखर तक पहुँचाने की हो, न कि किसी व्यक्ति विशेष या शक्तिपीठ विशेष को ‘हाई लाइट’ करने की दृष्टि से।

एक आदर्श सुसंगठित तंत्र ही लक्ष्य

यदि यह आदर्श स्थिति बन गई तो देखते-देखते सात सौ जिलों का एक प्रामाणिक-सुव्यवस्थित-सुगठित तंत्र खड़ा दिखाई देगा। सभी को एक-दूसरे की व्यवस्थित जानकारी मिलेगी। अनुभवों से दूसरे सीखेंगे एवं अपने क्षेत्र में उन योजनाओं को लागू करेंगे। युवाओं के महिला जाग्रति के क्षेत्र में विशिष्ट पुरुषार्थ होने लगेंगे। व्यसनमुक्ति, कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण जाग्रति, वृक्षारोपण, स्वदेशी स्वावलंबन जैसे क्षेत्रों में नए-नए आयाम उभरकर आएंगे। इस क्षेत्र में कार्य कर रहे अनेकों संगठनों से सहकार उभर कर आएगा एवं परमपूज्य गुरुदेव का युग के अभिनव निर्माण का लक्ष्य पूरा होता दिखाई देने लगेगा।

जिला समन्वय समिति में एक व्यवस्था-बुद्धि के धनी हों, जो मूलतः कोआर्डीनेशन कर सकें, दूसरे आयोजनों की व्यवस्था बनाने वाले, तीसरे पत्राचार करने वाले, चौथे मीडिया से संपर्क रखने वाले, पाँचवें प्रबुद्ध वर्गों, अधिकारियों से तालमेल रखने वाले, छठे विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों के प्रभारी इस तरह कई फैकल्टी के लोग हो सकते है। ये सभी सदस्य किसी भी संगठन को खा जाने वाली, समाप्त कर देने वाली कुछ वृत्तियों से बचें, पहली आपसी तालमेल की कम्युनिकेशन की कमी, दूसरी वाणी की कटुता एवं अहंता के प्रदर्शन की वृत्ति तथा तीसरी एकाउंट संबंधी पारदर्शिता में कमी। यदि यह तीनों वृत्तियों साधना की धुरी पर संभाल ली गई तो संगठन सभी शक्तिपीठों के ट्रस्टीगणों-प्रज्ञामंडलों, महिला मंडलों के समन्वय से द्रुतगति से जिला स्तर पर चल पड़ेगा एवं एक वर्ष में वह परिणाम देने लगेगा जो वह विगत तीस वर्ष में नहीं दे पाया।

पुनर्गठन के रजत जयंती वर्ष में जिला समन्वय समितियों का सुव्यवस्थित गठन अपने विराट संगठन को सशक्त बनाने के लिए किया जा रहा है, ताकि हम अपनी शक्ति स्वयं आँक सकें। हम कहाँ खड़े है, कितने व्यक्ति भिन्न-भिन्न फील्ड के हमारे पास कितने हैं, यह आँकड़े व्यवस्थित ढंग से हमारे पास न केवल हों, पूछा जाने ही हम उन विभूतियों को सामने प्रस्तुत भी कर सकें। निश्चित ही इस वर्ष का यह महापुरुषार्थ संवेदनशील साधकों के सुसंगठन को गति देगा।


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