‘उग्रश्रवा तुम्हारी तपश्चर्या कठोर एवं साधना उत्कृष्ट है। लेकिन अभी तुमने अध्यात्म ज्ञान के रहस्य को नहीं जाना है। अध्यात्म ज्ञान का यह रहस्य गुरुभक्त अनिमेष के पास है। उसकी दृष्टि क्रान्तिदर्शी एवं अन्तर्चेतना निर्दोष व निर्मल है। गुरुभक्ति के प्रभाव ने उसे सर्वथा अहंशून्य बना दिया है। प्रखर अध्यात्मवेत्ता होने पर भी उसमें कोई गर्व नहीं है। जबकि तुम अध्यात्म ज्ञान से शून्य होने पर भी हमेशा ही अपने तप का गर्वपूर्वक बखान किया करते हो।’
अपनी देह को मृतवत बनाकर सर्वसहिष्णु बनने की कामना से उन्होंने अखण्ड तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी थी। वर्षा से गीली उनकी केशराशि उलझ कर वृक्ष की जटाओं जैसी बन गयी। सालों-साल तक अपनी जगह से तनिक सा भी न हिलने के कारण उनके शरीर पर धूल की मोटी परतें जम गयीं। निर्जल-निराहार तप करते-करते उनकी हृष्ट-पुष्ट देह सूखे काठ की भाँति होकर रह गयी। लेकिन तप के तेज उनके चित्त को सुस्थिर एवं व्यग्रता-विरहित बना दिया था।
काठ की भाँति जरा-जर भरे एक ठूँठ हुए सूखे पेड़ की भाँति दिखने वाले उनके सिर की जटाओं में अवसर पाते ही एक गौरैया ने घोंसला बना लिया। वहीं गौरैया ने अण्डे दिए और उसके नन्हें पक्षी वहीं बसेरा करने लगे। तपस्या में डूबे उग्रश्रवा का हृदय यह अनुभव करके करुणा से भर आया। उन्होंने अपनी जगह से बिना थोड़ा सा हिले-डुले, उन पक्षियों के सुख में सहयोग देकर अपनी साधना की सफलता का सुख अनुभव किया। इसमें एक समय ऐसा भी आया कि बच्चों सहित सभी पक्षी दूर कहीं उड़ गए और फिर नहीं लौटे।
उग्रश्रवा के लिए यह आनन्द एवं गर्व का विषय बन गया। वे यह सोचकर हर्षित हो गए कि पक्षियों का समूचा परिवार उनकी जटाओं में लम्बी अवधि तक रहा और वह तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनकी साधना एक निष्ठ और अडिग बनी रही। अपनी इसी भावना से अभिभूत हो वह गर्व से भर उठे और आत्मालाप करते हुए अपने अंतर्मन की बातें कहने लगे- कि मैंने इस धरती पर अध्यात्म का रहस्य जान लिया है। सूर्य की प्रखरता एवं तेजस्विता से भी कहीं बढ़कर मेरी तपस्या का तेज है। मेरी यह तप साधना की महिमा पूरी दुनिया में प्रसारित होना चाहिए। मैंने कठिन से कठिन एवं विपरीत क्षणों में उग्र तप करके विजय पायी है।
मेरी तप साधना की बराबरी कर सके, ऐसा भला त्रिभुवन में कौन होगा? अतः अब मैं यहाँ से जाकर मनुष्य-समाज में पहुँचूँगा उन्हें इस अध्यात्म-रहस्य और अपने तप-तेज से परिचित करवाऊँगा। और उन सभी को बताऊँगा कि समूचे जगत् में ऐसी महान् साधना करने वाला दूसरा कोई भी नहीं है? आत्मश्लाघा और अहंकार से उनका मन-प्राण ओतप्रोत था, तभी उन्हें आकाशवाणी से ये वचन सुनने को मिले-
तुम अभी अध्यात्म के रहस्य से अनजान हो, उग्रश्रवा। जाओ और शिव नगरी-काशी जाकर गुरुभक्त अनिमेष से अध्यात्म के सच्चे स्वरूप की शिक्षा प्राप्त करो।
उद्विग्न हो उठे उग्रश्रवा। ईर्ष्या और क्रोध से उनके मुख की भंगिमाएँ विकृत हो उठीं। वह सोचने लगे- मेरी इतनी घोर साधना, दिन-रात, धूप-वर्षा, भीषण शीत, उग्रतपन किसी की भी चिन्ता किए बिना अविचलित भाव से बियावान, भीषण, भयानक जंगल में निराहार जीवन बिताया और काशी के साधारण से व्यक्ति अनिमेष के सामने उसकी सारी तपस्या निष्फल हो गयी। अन्तर्द्वन्द्व से उनका मन हाहाकार कर उठा। तप की स्थिरता क्षण भर में ही जल के फेन की भाँति विलीन हो गयी।
जैसे भी हो शीघ्र ही मुझे वाराणसी जाकर उस अनिमेष से भेंट करनी होगी। ऐसा क्या है उसके पास, जो आकाश के देवगण भी उसका यश-गान कर रहे हैं।
दुर्गम वन को पार करते हुए वह वाराणसी की ओर चल पड़े। पथ की बाधाएँ उन्हें विचलित न कर पायीं। विन्ध्याचल की दुर्लघ्य पर्वत श्रेणियाँ भी उनके लिए सुगम बन गयीं। एक बार फिर से वह दृढ़ निश्चयी बने, बिना थके, बिना रुके, उस पथ पर भूखे-प्यासे वह तब तक चलते रहे जब तक वाराणसी न पहुँच गए।वाराणसी में अनिमेष से सभी परिचित थे। गुरु आज्ञा के अनुसार वह अपना जीवन बिता रहे थे। सेवा-साधना एवं लेखनी व वाणी से गुरुज्ञान का प्रकाश, यही उनका जीवन मंत्र था। जो लोग उनके सान्निध्य में आते उन सबसे वह यही कहते- मैं तो अपने सद्गुरु का यंत्र हूँ। मेरे कार्य-विचार और जीवन में जो प्रकाश और सद्गुण है, वे सब के सब मेरे गुरुदेव के हैं। जो कमियाँ है, वे सिर्फ मेरी हैं। सामान्य रहन-सहन, सामान्य जीवन क्रम में हर कहीं उनकी गुरुभक्ति की सजलता छलकती थी। परन्तु द्वन्द्व से विचलित उग्रश्रवा को उनका यह जीवन कतई समझ में न आया। वह चुपचाप वहीं खड़े हो गए और अनिमेष से वार्ता की प्रतीक्षा करने लगे। अनिमेष उस समय पास खड़े किसी व्यक्ति की कोई उलझन सुलझा रहे थे।
मुझे ज्ञात है देव कि अविश्रान्त दुर्गमपथ पार करके आप मेरे समीप आए हैं। पथ में भूखे-प्यासे आपको अनेक कष्ट उठाने पड़े हैं। यह भी मुझे अपने गुरुदेव की कृपा से ज्ञात है कि स्वयं को अकेले मर्मज्ञ मानने के कारण आप जिज्ञासा भाव से आकाशवाणी सुनकर मेरे समीप आए हैं। आदर-भाव से अनिमेष अब तक उग्रश्रवा के समीप आ चुके थे। आप मेरे समीप ही कुछ समय विश्राम करें फिर मैं आपकी जिज्ञासा दूर करूंगा।
अनिमेष की विनम्र शान्तवाणी सुनकर उग्रश्रवा को आश्चर्य हुआ। अनिमेष एक बार फिर अपने कार्य में व्यस्त हो चले थे।
संध्या उतर आयी थी। दैनिक गायत्री तप से निवृत्त हो अनिमेष अब निश्चित भाव से आसन ग्रहण कर चुके थे, उग्रश्रवा की शंकाओं को दूर करने के लिए।
शान्त, संयमित वाणी में अनिमेष ने उन परम तपस्वी से निवेदन किया।
हे देव! मुझे भली भाँति ज्ञात है कि निरन्तर कठोर तप से आपने महती सिद्धि प्राप्त कर ली थी। इतना ही नहीं स्थाणु बनी आपकी देह में पक्षियों ने भी घोंसले बना लिए थे। आप लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए। किन्तु ‘आप सबसे बड़े अध्यात्मवेत्ता हैं’ यही मिथ्या गर्व आपके लिए अनिष्टकर बन गया। साधना रूपी कल्पतरु को छिन्न-भिन्न करने वाला ‘अहंकार-कुठार’ दीर्घ साधना के बाद भी आप में छिपा रहा। यही आपके लिए घोर शत्रु बन गया और इसी कारण आपको आकाशवाणी सुनाई पड़ी। अब आप ही बताइए कि मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूं? जिससे आपका कल्याण हो सके।
अनिमेष की ऐसी वाणी से उग्रश्रवा की आँखें खुल गयी। वह स्तब्ध रह गए। निर्जन अरण्य में उनके साथ जो भी हुआ, उसका रहस्य यहाँ इतनी दूर बैठे इस अनिमेष को कैसे मालूम हुआ? इसी विस्मय से भरे उन्होंने अनिमेष से प्रश्न किया, हे अनिमेष! आप मनीषी हैं, अपने सद्गुरु की आज्ञा के पालन में निरत हैं। परन्तु जितना मैंने आपके बारे में जाना-सुना है, उसके अनुसार आपने कोई कठोर तप नहीं किया। फिर आपने ऐसी अलौकिक सिद्धि कहाँ से, कैसे प्राप्त की। निरन्तर गुरु कार्य में लगे रहकर- गुरु के विचारों का प्रसार करते हुए आपको यह अध्यात्म रहस्य कहाँ से और कैसे प्राप्त हुआ? कृपया आप मुझे इस अध्यात्म ज्ञान को बताने की कृपा करें।
उग्रश्रवा का गर्व छंट चुका था, वाणी में विनम्रता उतर आयी थी।
अनिमेष ने पहले की ही भाँति संयत वाणी में अध्यात्म का रहस्य उग्रश्रवा के सामने रखा, ‘जो समस्त प्राणियों में मैत्री का भाव रखता है, और सबका हित चिन्तन करता है, वही सच्चा अध्यात्मवेत्ता है। किसी प्राणी के साथ द्रोह भाव विहीन जीवनवृत्ति ही श्रेष्ठ धर्म है। गुरुकृपा से मैंने इस सत्य को जाना और समझा है। हे मुनिवर! मेरे गुरुदेव ने अपनी देह का त्याग करने से पूर्व मुझे यह निर्देश दिया था कि समस्त मनुष्यों को बिना किसी भेदभाव के मेरे ज्ञान का प्रकाश बाँटना। अपमान-तिरस्कार, उपेक्षा-अवहेलना को प्रीतिपूर्वक सहन करते हुए अपने कर्त्तव्य कर्म में निरत रहना। गुरुप्रेम एवं गुरुभक्ति ही मेरा सर्वस्व है। यही मेरा वह अभेद्य कवच है- जिससे समस्त विपदाएँ टकराकर चूर-चूर हो जाती हैं। गुरुभक्ति ही मेरा तप है- इसी से धर्म जीवन का रहस्य जाना है।’
उग्रश्रवा विस्मय विमुग्ध भाव से अनिमेष के उपदेशामृत रस में डूबे हुए थे। किसी सिद्ध योगी की भाँति ज्ञान का सन्देश देती अनिमेष की वाणी अविराम स्रोतस्विनी सी बह रही थी।
गुरु श्रद्धा, गुरु निष्ठ, गुरुकार्य एवं गुरु भक्ति ही मेरी साधना है। इसी से मुझे गुरु कृपा का प्रसाद मिला है। मैं तो गुरुगत प्राण हूँ देव। अपने सद्गुरु की कृपा से मुझे इस सत्य की स्पष्ट अनुभूति होती है - कि देह सिर्फ मेरी है, इसमें प्राण गुरुदेव के विराजते हैं। केवल मन मेरा है- परन्तु इसके माध्यम से जो विचार प्रवाह उमड़ता है, वह गुरुदेव का है। केवल हृदय मेरा है, इसमें उफनने वाली भावनाएँ गुरुदेव की हैं। मैं यंत्र हूँ वे यंत्री। यदि कुछ दोष है तो यंत्र का है। यंत्री तो परम समर्थ है। यंत्र की असमर्थता के कारण उस परम समर्थ की समर्थता ठीक ढंग से नहीं अभिव्यक्त हो पाती है।
जब से गुरुकार्य के प्रभाव से, उपजी गुरुकृपा के कारण मेरी अहंता गुरुतत्त्व में विलीन हो गयी, तब से मैं जल गया हूँ- यह समस्त जगत् ब्रह्ममय है, इसमें न तो कुछ ऐसा है जिससे आसक्त हुआ जाय और न ही कुछ ऐसा है- जिससे दूर भागा जाय, विरक्त हुआ जाय। दूसरों की निन्दा-प्रशंसा से परे निश्चित भाव से परे मेरा मन इन्द्रिय विषयों में नहीं लगता। अब तो मेरी समूची अन्तर्चेतना गुरुतत्त्व में लीन रहती है। गुरुकृपा से मुझे यह भी ज्ञात हो गया है कि गुरु तत्त्व, आत्म तत्त्व एवं ईश्वर तत्त्व एक ही है।
अध्यात्म तत्त्व की ऐसी गूढ़ व्याख्या से उग्रश्रवा का अहं खण्ड-खण्ड होने लगा। उनकी जिज्ञासा और बढ़ चली, फिर पूछा, अज्ञानी व्यक्ति किस साधना के द्वारा अध्यात्म ज्ञान को पा सकते हैं।
सच्ची साधना, यथार्थ तप का मूल उद्देश्य अहं का उन्मूलन और उच्छेदन है। लेकिन इस सत्य से अनभिज्ञ अज्ञानी जन अपने जप-तप-व्रत इसलिए करते हैं, संसार उन्हें तपस्वी के रूप में जाने-माने एवं पहचाने। उनके तप से उन्हें कोई ऐसी सिद्धि मिले, जिससे वह लोक विख्यात हो सके। इस तरह उनके सारे प्रयास उलटी दिशा में चलते रहते हैं। वे अपनी साधना के द्वारा अहं के उन्मूलन के स्थान पर उसका पोषण एवं संवर्द्धन करते हैं।
हे तपोधन उग्रश्रवा, सच्ची साधना क्रिया में नहीं विचारों एवं भावनाओं में निहित है। विचार और भावनाओं की दिशा बदल जाय तो सामान्य क्रिया भी अध्यात्म प्रदायिनी हो जाती है। मेरे गुरुदेव कहा करते थे- बेटा जीवन का शीर्षासन ही अध्यात्म है। इसे वे अपनी खास शैली में- उल्टे को उलटकर सीधा करना भी कहते थे। उनके आदेशानुसार- मैंने यही किया है। मैंने अपनी सारी ऊर्जा किसी क्रिया विशेष को करने में नहीं बल्कि विचारों और भावनाओं के परिष्कार में नियोजित की। मैं न तो कोई विशेष तप करता हूँ और न किसी विशेष बीजमंत्र का विशेष ढंग से जप। मेरी आत्म परिष्करण भरी मेरी गुरुभक्ति ही मेरी साधना है। यही मेरी सिद्धि और यही मेरा अध्यात्म तत्त्व है। यही वह रहस्य है, जिसे पाने के लिए आपको दैवी-निर्देश प्राप्त हुआ है।
गुरुभक्त अनिमेष के वचनों से उसके सद्गुरु की चेतना प्रवाहित हो रही थी। इस पुण्य प्रवाह ने उग्रश्रवा के अस्तित्त्व को भी छुआ, वह भी इसमें निमग्न हुए। उनका गर्व-खर्व हो गया। उनका अहं इस पुण्य धारा में बह गया। अहंता के विलीन होते ही उन्हें भी आत्मज्ञान प्राप्त हो गया। अब उन्होंने सच्ची साधना एवं सच्ची सिद्धि के रहस्य को जान लिया।