बदउं गुरुपद कंज

April 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परम पूज्य गुरुदेव से मिलने पर दृष्टि बरबस उनके चरणों में थम जाती। बिन सोचे और बिन कहे हृदय की समस्त भावनाएँ, प्राणों का सारा अनुराग और मन की समूची कोमलता उनके श्री चरणों में समर्पित होने लगती है। यह अनुभूति किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि उन असंख्य हजारों शिष्यों, सन्तानों, अनुरागी एवं श्रद्धालुजनों की है जो उनसे कहीं किसी अवसर पर कभी मिले। इनमें से कई ऐसे भी हैं जो शान्तिकुञ्ज आते और बार-बार मिलते थे। कुछ तो उनके श्री चरणों के ऐसे अनुरागी सिद्ध हुए कि उन्होंने शान्तिकुञ्ज को ही अपना घर बना लिया। सद्गुरु के चरणों को पाने की लालसा में गुरुधाम ही निजधाम बन गया।

अनोखे और अद्भुत थे गुरुवर के चरण। श्रद्धा एवं प्रेम अपने अभिभावकों एवं गुरुजनों के चरणों के प्रति भी उमड़ता है। उनके पावों का स्पर्श भी बड़ी विनम्रता के साथ किया जाता है, पर उन मृण्मय पाँवों में चिन्मय की अनुभूति नहीं होती। जबकि चिन्मय की चैतन्यता तो गुरुचरणों का स्वभाव होता है। पारस तो लोहे का केवल रूप बदलकर उसे सोना बना पाता है, उसकी जड़ता नहीं बदल पाता। गुरुचरणों के पावन परस से शिष्य की जड़ता चैतन्यता में बदलती है। उसकी आकृति तो वही रहती है, पर प्रकृति बदल जाती है। हृदय से भक्ति की गंगा बहती है, मन की संवेदनाओं का उफान उठता है और बुद्धि में विवेक का प्रकाश फैलता है।

प्रभु से प्रथम मिलन में ऐसे रूपांतरण का अंकुरण बड़ा ही सहज था। एक अनुभवी जब उनसे पहली बार मिला, तब वह अपने ऊपर वाले कमरे में सोफे पर बैठे थे। धवल धोती, हल्के बादामी रंग का कुर्ता और ऊपर भूरे रंग का हाथों से बना हुआ ऊन का जैकेट। इस जैकेट की ऊपर एक-दो बटने खुली थी। प्रातः के आठ-नौ बजे थे। सुबह का उजाला बड़े ही आहिस्ते से उनके कमरे में प्रवेश पाने की कोशिश कर रहा था। उजाले की उज्ज्वलता से मिलकर उनका दिव्य स्वरूप अवर्णनीय लग रहा था। उन दिनों वह सूक्ष्मीकरण साधना से अभी हाल में ही निवृत्त हुए थे। शान्तिकुञ्ज के नवागन्तुक कार्यकर्त्ताओं में से कुछ को प्रतिदिन बारी-बारी से बुलाकर अपना सहज प्यार बाँट रहे थे। उस सुबह भी यही क्रम था। लगभग आठ-दस को बुलाया था। वह भी इन्हीं आठ-दस में एक था। सर्वथा नया और सभी से अनजान। यह सुयोग ही था कि उसे आगे की पंक्ति में बैठने का मौका मिल गया। पास ही वरिष्ठ कार्यकर्त्ता श्री गौरीशंकर शर्मा जी भी बैठे थे।

गुरुदेव कह रहे थे, सभी सुन रहे थे। गुरुवाणी सुनते हुए भी उसकी नजर अपने आराध्य के चरणों में टिकी थी। आकार की दृष्टि से सुगढ़, गौरवर्णीय चरण। सोफे के पास रखे हुए लकड़ी की चरण पीठ पर प्रभु इन्हें आसीन किए हुए थे। इन युगल चरणों को देखकर मन ही मन ऐसा लगा कि आराध्य के चरणों को निरखने की जन्म-जन्मान्तर की आकाँक्षा पूरी हो गयी। मन में स्वर फूटे-

निरखा प्राण निछावर हो गये, दास हुआ श्री चरणों का।

नवागन्तुक कार्यकर्त्ताओं को उद्बोधन कर रहे प्रभु ने प्रत्यक्ष में भर नजर देखा और मुस्करा दिए। ऐसा लगा अन्तर्यामी गुरुदेव ने मन के स्वरों को सुन लिया और स्वीकार कर लिया। अपने प्रभु की प्रीति की प्रतीति या दृष्टि पुनः चरणों में टिक गयी। उनके चरणों और अंगुलियों की इतनी निर्दोष गढ़न और सौंदर्य को देखकर मन मुग्ध हो गया। ऐसे अपूर्व सुन्दर चरण। प्रत्येक अंगुलि की गढ़न कितनी सुन्दर और शोभायुक्त थी। गुरुदेव के पाँवों की अंगुलियों में उनके तप का तेज था। प्रत्येक नख मानों एक छोटा-छोटा सीप था। क्या ही सूक्ष्म शिल्पकारिता थी, कमल पुष्प की सुषमा और शिशिर की स्निग्धता मिलाकर गुरुवर के चरण बनाए गए थे। तेज, सौंदर्य और स्निग्धता का आश्चर्यजनक मिलन था प्रभु के चरणों में। पहले मिलन में ही इन्हें निरखने का यह अपूर्व सौभाग्य मिला था।

बचपन में पढ़ी गई श्रीरामचरित मानस के सोरण-चौपाई अंतर्हृदय में साकार हो रहे थे-

बंदऊँ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि। महामोह तम पुँज, जासु वचन रविकर निकर॥

मैं गुरुदेव के चरण कमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और मनुष्य रूप में नारायण हैं। जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।

श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती॥

दलन मोह मत सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥

गुरुदेव के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है। जिसका स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।

गुरुदेव के चरणों को निहारकर वह सत्य प्रत्यक्ष हो रहा था कि तुलसी बाबा ने जो कुछ कहा, उसमें काव्य सौंदर्य तो है, पर अतिशयोक्ति जरा भी नहीं। उन्होंने जो भी कहा वह उनके शिष्य जीवन की साधना सत्य है। जो साधना करने पर प्रत्येक शिष्य का जीवन सत्य बन सकता है।

सद्गुरु जिसे स्वीकारते हैं, उसे ही अपने श्री चरणों का सामीप्य देते हैं। उस दिन भी प्रभु ने अपनी बातों की समाप्ति इसी सत्य से की। उन्होंने कहा- ‘तुम्हें मैंने बुलाया है, तभी तुम आ सके हो। अब आ गए हो तो किसी ओर मत देखना, कहीं मन को न भटकाना। बस मुझे देखना, मेरी ओर निहारना।’ उन क्षणों में ऐसा लगा जैसे वह कृपापूर्ण हो बता रहें हो कि सद्गुरु चिन्तन और सद्गुरु ध्यान ही समस्त साधनाओं का सार है। उनके कथन की समाप्ति के बाद सभी एक-एक करके उठे, सबको अब चरण स्पर्श का सौभाग्य मिला था।

क्रमानुसार जब बारी आयी गुरुचरणों में माथा नवाने की, तो कुछ पलों के लिए काल चक्र जैसे थम गया। भूः लोक के मनुष्य ही नहीं स्वर्लोक के देवता, जनःलोक के सिद्ध, तपः लोक के महर्षि और सत्य लोक के ब्रह्मर्षि जिन चरणों में माथा नवाकर अपने को बड़भागी समझते हैं, आज उन्हीं चरणों पर इस अकिंचन को आत्मदान का सौभाग्य मिल रहा था। सच है, उनकी कृपा से सब सम्भव है। भुवन वन्दित गुरुदेव के चरणों की महिमा बुद्धि विचार से सर्वथा परे साधना सत्य है, समाधिगम्य है। वह अलौकिक स्पर्श, स्पर्श भर न रहा, स्पर्शयोग बन गया। उस दिन साधना का एक नया द्वार खुला।

उन चरणों की छुअन से अकेली देह नहीं, मन-प्राण सहित समूचा अस्तित्त्व रोमाँचित हो गया। पहली बार जाना महायोगी का साधनामय जीवन ही नहीं उनकी देह भी दिव्य होती है। वह तपोमूर्ति की तपस्या के तेज के प्रकट होने का माध्यम है। इस अलौकिक देह में सबसे अनुपम है प्रभु के चरण, शिष्यों के आश्रय स्थल। इन चरणों से जो गुरुकृपा की गंगा बहती है, उसके स्पर्श मात्र से त्रयताप छूट जाते हैं। इस स्पर्श की अनुभूति जीवन में बनी रहे, तो फिर और बाकी क्या रहा?

गुरुदेव के चरण स्पर्श की यह पहली अनुभूति लिए जब नीचे उतरना हुआ तो देखा पूर्व दिशा की ओर आकाश में सूर्य देव अपनी प्रभा बिखेर रहे हैं। उनकी रश्मियाँ चारों ओर विकीर्ण हो रही है। मन सोचने लगा परम पूज्य गुरुदेव के युगल चरण क्या इन्हीं सूर्य किरणों से गढ़े गए हैं? सूर्य के ध्यान की ही भाँति उनका ध्यान भी तो समर्थ है। बरबस ही मन में ये दो पंक्तियाँ स्वरित हो उठीं-

हे गुरुदेव, तुम्हारे करुणामय चरण अरुण सूर्य के रूप में सदा प्रत्यक्ष हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118