पत्रों से मार्गदर्शन गुरुकथामृत-32 - लेखनी की साधना का संवेदनासिक्त मार्गदर्शन

April 2002

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साठ वर्ष तक निरंतर लेखनी की साधना करने वाले, अपनी चिंतन क्षमता, कल्पनाशक्ति, भाव संपदा खपाने वाले तपस्वी युगद्रष्टा आचार्य श्री को पत्रकारिता के क्षेत्र में भी एक पथप्रदर्शक के रूप में याद रखा जाना चाहिए। उन्होंने दार्शनिक, साहित्यकार एवं मार्गदर्शक तीनों की भूमिका निभाई। जीवनभर वे अपनी लेखनी से, पुस्तकों-पत्रिकाओं, पत्रों व प्रत्यक्ष चर्चा से औरों को भी प्रोत्साहित करते रहे, ताकि सकारात्मक लेखन चलता रहे, जिस किसी के भी अंदर पात्रता हो, वह युगसाहित्य के निर्माण में भागीदारी करे। कार्य बड़ा था, वे स्वयं भी सामर्थ्य रखते थे एवं अस्सी वर्ष की आयु पूरी होने तक उन्होंने जो लिखा, वह अपने आप में एक कीर्तिमान है। फिर भी वैज्ञानिक अध्यात्मवाद हो, चाहें काव्यलेखन, विभिन्न स्तर की साहित्यिक प्रतिभाओं को सतत प्रेरित कर उनका पथ प्रदर्शन जीवन भर किया। इन पंक्तियों का लेखक भी एक चिकित्सक था, जिसे कुछ भी प्रशिक्षण हिंदी लेखन में नहीं मिला था। लेकिन उसकी उँगली पकड़ कर भी उन्होंने लिखना सिखा दिया, ताकि अनेकों प्राणचेतना के संवाहकों में एक वह भी बन सके।

पूज्यवर के पत्रों के माध्यम से यह संवेदनासिक्त मार्गदर्शन झलक देता है। इस बार के गुरुकथामृत में हमने कुछ ऐसे ही पत्रों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। पहला पत्र 4 मई, 1952 को लिखा गया है अजमेर के श्री मोहनराज भंडारी को। उन्हें वे अपना अन्नय भी मानते थे एवं उसी मित्र भाव से लिखते भी थे। वे लिखते हैं-

हमारे आत्मस्वरूप,

आपका पत्र मिला। इन दिनों आपने जो ठोक साहित्यिक कार्य किए हैं, उनका विवरण जानकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आपके द्वारा, आपकी लेखनी द्वारा राष्ट्रनिर्माण का बहुत कार्य होने की आशा है।

‘कुसुम’ मिला, पर उससे प्रसन्नता नहीं हुई। आप पहेलियों का क्या झंरुट ले बैठे? आपकी उज्ज्वल कीर्ति में इससे कमी ही होगी। आप इसे साहित्यिक ही रखते तो अधिक अच्छा होता।

कहानी लिखने का अभ्यास अब छूट गया है, धार्मिक लेख ही लिखता रहता हूँ। फिर भी तुम्हारे लायक कुछ लिखूँगा। पारिश्रमिक भेजने की कतई जरूरत नहीं है। तुम्हारा आत्मभाव ही उच्चकोटि का बहुमूल्य पारिश्रमिक है। घर के सब लोगों को हमारा यथोचित नमस्कार कहना।

-श्रीराम शर्मा

पत्र की भाषा शिक्षण देती है। उनकी लेखन शैली के बहुविध आयाम भी दर्शाती है। पहले पैराग्राफ में वे उनकी पीठ थपथपाते हैं व कहते है कि आपसे हम राष्ट्र निर्माण के स्तर पर लेखन की अपेक्षा रखते हैं। इतने ऊंचे स्तर की आशा-अपेक्षा है एवं उन्होंने अपनी पत्रिका निकाली भी तो ‘क्विज’ पहेलियों वाली। इस पर उन्होंने खिन्नता व्यक्त की है। लेखक-साहित्यकार युगनिर्माता होता है। वह जीवन को दिशाधारा देने का कार्य करता है, न कि “कौन बनेगा करोड़पति’ स्तर की प्रतिस्पर्द्धा वाला पहेली भंडार बनाने वाला व्यवसायी। वे अपने लिए भी लिखते हैं कि पारंपरिक औपन्यासिक कहानियाँ जो मनोरंजन करती है, वे नहीं लिखते, मात्र धार्मिक साहित्य का लेखन करते है। जिसका प्रमाण उनकी पंद्रह वर्षीय पुरानी अखण्ड ज्योति पत्रिका थी, जिसके माध्यम से मोहनराज जी जुड़े थे। पारिश्रमिक पर जो टिप्पणी है, वह भी हृदय को स्पर्श कर जाती है। यह एक पत्र नहीं, दस्तावेज है, एक नूतन उभरते साहित्यकार को दिए जा रहे मार्गदर्शन का, उँगली पकड़कर सिखाने वाले स्तर की गुरुसत्ता के परामर्श का।

दूसरा पत्र है मथुरा के ही डॉ. त्रिलोकी नाथ ब्रजवाल को लिखा गया, जो उन दिनों पिलानी में अध्यापक थे। काव्य में उनकी गति थी। गायत्री तपोभूमि मथुरा से 20 मार्च 1954 को लिखे गए इस पत्र में पूज्यवर कहते हैं-

“पत्र तथा कविताएँ मिलीं, जीवन यज्ञ के तीसरे अंक में आपकी कविता दे रहे हैं। अन्य कविताएँ आगे छपती रहेगी। जीवन यज्ञ आपके पास बराबर पहुँचता रहेगा। आपकी आत्मीयता के लिए कृतज्ञ है। कुछ अधिक अक्षरों की अधिक लंबी लाइनें हों, चार-चार लाइन के छंदों की शैली हमें अधिक रुचिकर लगती है। जीवन यज्ञ तथा अखण्ड ज्योति में आप अक्सर वैसी ही कविताएँ देखते होंगे। इस प्रकार की रचनाएँ बनाने का प्रयास करें तो हमें और भी अधिक प्रसन्नता होगी। आशा है आप सानंद होंगे।

-श्रीराम शर्मा

अखण्ड ज्योति, जीवन यज्ञ दो पत्रिकाएँ उन दिनों निकलती थीं। बाद में जीवन यज्ञ बंद हुआ फिर युगनिर्माण योजना पत्रिका प्रकाशित की गई। प्रत्येक में काव्य को स्थान दिया गया था। प्रारंभिक व अंतिम पृष्ठ पर फड़फड़ा देने वाली कविताएँ होती थी। इस युग काव्य ने एक नई विधा को जन्म दिया, जिसमें साधना, उपासना व राष्ट्र आराधना का अद्भुत समन्वय होता था। पृथक से प्रकाशित पुस्तकों रहित विभिन्न कवियों को हमारे गुरुवर ने लिखना सिखाया, छंदबद्ध करना सिखाया एवं प्रायः दो से तीन हजार कविताएँ इनसे लिखवा लीं। इन्हीं का समन्वित रूप काव्य के वाङ्मय के खंडों के रूप में शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा हैं। देखने योग्य बात है- कविता लेखन पर सुव्यवस्थित मार्गदर्शन। कवि अपनी भाव संवेदनाओं को पिरोते हुए कैसे लिखें, यह स्टीक बिंदुवार चिंतन वे सतत देते रहते थे। एक ऐसा ही पत्र हमारे मिशन की सुपरिचित कवयित्री श्रीमती मायावर्मा को लिखा हम यहाँ दे रहे है। गुरुसत्ता ने अपनी शिष्या की अंतर्वेदना को समझा व उन्हें काव्य लिखने को प्रेरित किया। वे जीवनपर्यंत लिखती रहीं। 22-12-67 को लिखे एक पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-

चि. माया आशीर्वाद स्नेह

तुम्हारा पत्र मिला। कविता भी। तुम्हारी दोनों पुस्तकों प्रेस में है। कविताएँ सुधार ली हैं। जिन कविताओं में अधिक सुधार होना है, उन्हें रोक लिया है। तुम जब कभी इधर आओगी, तब उनका सुधार समझाकर तुम्हारे ही हाथों उसे ठीक कर लेंगे, ताकि आगे से तुम्हें इन बातों का ध्यान रहे। अपना लेखनकार्य चालू रखें। उसका अधिकाँश भाग तो काम में आता ही रहेगा। सुधार समझाना पत्र में नहीं, प्रत्यक्ष ही संभव हो सकेगा। सो कभी सुविधानुसार आना।

ग्वालियर की माया वर्मा वैसे माया सक्सेना थीं, पर उन्होंने अपनी बेटी (मानसपुत्री) का काव्य की दृष्टि से नामकरण माया वर्मा कर दिया। उन्होंने उनके पति ने स्वीकार कर लिया। कई पुस्तिकाएँ, एकाँकी, मार्गदर्शक नाटक उनसे लिखवाए। वे समय-समय पर मथुरा जाती रहतीं व प्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त करती थीं। विशेष बात यह थी कि सुधार भी पूज्यवर ही करते थे, पर उसे वे उन्हीं के हाथों लिखवाना चाहते थे, ताकि अभ्यास हो जाए। फिर आगे काव्य में त्रुटि न हो। प्रत्यक्ष चर्चा में कई पहलू आते हैं, जो समझा दिए जाते हैं। इसी आधार पर आत्मीयता से भरे मार्गदर्शन की धुरी पर उन्होंने युगपीर का निर्वाह करने वाली कविताएँ लिखवा लीं माया जी से, जो आज मील का पत्थर बन गई।” जिसका हर आँसू रामायण प्रत्येक कर्म ही गीता है” से लेकर ”ओ सविता देवता संदेशा मेरा तुम ले जाना” इसी शक्तिपात की परिणति है।

सिवनी के श्री ध्रुवनारायण जौहरी अच्छे चिंतक हैं, शिक्षाविद् हैं एवं ‘अखण्ड ज्योति’ का वैज्ञानिक अध्यात्मवादपरक परिवर्द्धक होने के बहुत पूर्व से पूज्यवर से जुड़े रहे हैं। आज भी वे हमारे संपर्क में हैं, समय-समय पर हमें भी परामर्श देते रहते हैं। उन्हें 17-1-70 को लिखे एक पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-

“आपका भेजा अतींद्रिय विज्ञान का अनुवाद यहाँ यथासमय आ गया था। हमें आजकल बहुत करके बाहर ही करना पड़ रहा है, सो लौटने पर पत्र लिख रहे हैं।

अपना यह प्रयास बराबर जारी रखें। इस प्रयास से उपर्युक्त पाठ्य सामग्री प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। वेदाँत का जितना काम हो चुका हो, जब तुम साकोली महासमुँद आओ, तब साथ लेते आना। बाकी जितना काम होता जाए, उतना भेजते जाना।”

पत्र सरल-सा है, पर जरा इसकी भाषा पर ध्यान दें। उपर्युक्त पाठ्य सामग्री मधुसंचय की तरह से पूज्यवर द्वारा एक नहीं, ढेरों व्यक्तियों को प्रेरित कर लिखवा ली गई। समय-समय पर उसका अखण्ड ज्योति पत्रिका में उपयोग भी हुआ, पर विलक्षण बात यह थी कि विज्ञान, परामनोविज्ञान की सामग्री भेजने वाला लेखक-शिष्य भी जब छपकर आए लेख को देखता था तो बस उँगली दाँतों तले दबाकर रह जाता था। वैज्ञानिक तथ्यों की गवाही लेकर किस तरह ‘वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ स्थापित किया गया, इस पर समय रहते जब भी शोध होगी, कई अनजाने पहलू सामने आएंगे। गुरुसत्ता ने सभी को अवसर दिया, वे स्वाध्याय करें, पाठ्य सामग्री का संकलन करें व उसे नियमित भेजते रहें। वे अपने कार्यक्रम जिनमें वे अति व्यस्त रहते थे, वहाँ भी उस सामग्री को बुलवाने में संकोच नहीं करते। इससे लेखक शिष्य को भी सरलता हो जाती थी, प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी मिल जाता था। श्री जौहरी जी के बालावा सतींद्रदत्ता, रमाकाँत शर्मा रमन, निर्मलराय, श्री प्रभाकर सहित ऐसे न जाने कितने नाम हमारे स्मृतिपटल पर आ जाते हैं, जो अपने दैनंदिन जीवन के अतिरिक्त इसी साधना में नियोजित कर दिए गए। इसका लाभ उन्हें भी मिला एवं मिशन को भी।

जहाँ तक इस पाठ्यसामग्री का प्रश्न है, एक अनुभूति इस स्तंभ लेखक की है, जो बताना जरूरी है। वे सभी को विषय देते थे व अगले दिन पढ़कर लेख लाने को कहते थे। 1983-84 की बात है। एक विषय पर लेखन हेतु पढ़कर अगले दिन आने को कहा गया। विषय स्नायु विज्ञान व उसकी जटिलताओं से संबंधित था। पढ़ा गया एक छोटा-सा आलेख तैयार कर अगले दिन प्रातः अपनी ही भाषा में लाया गया तो प्रत्युत्तर में एक लिख हुआ लेख दे दिया गया, जो उसी दिन प्रातः अर्द्धरात्रि को लिखा गया था। अपने सभी प्रतिपादन उस लेख में देखकर आश्चर्य हुआ, क्योंकि वे मौलिक थे, गुरुसत्ता के शिक्षण के आधार पर तथ्यों को एकत्र कर लिखे गए थे। आश्चर्य मिटा गुरुदेव की वाणी सुनकर, जिस समय वे बोले, “जब तुम पढ़ रहे थे मैं यहाँ लिख रहा था। तुम्हारे मस्तिष्क को मैं यही से बैठे पढ़ रहा था। आश्चर्य मत करना। यह सारा सूक्ष्म परोक्षजगत का लीला संदोह है।” ऐसे में इनमें से कोई भी यदि यह सोचने लगे कि हम लिखते हैं, तो हम कितने नादान हैं। लिखाने वाले भी वे ही हैं, सोचने की प्रेरणा देने वाले भी वे ही हैं, यह समर्पण भाव मन में रहे तो क्यों तो अहंकार आए व क्यों चिंतन गड़बड़ाए?

एक पत्र और जो श्री रामस्वरूप खरे को 1-1-67 को लिखा गया। यहाँ अंश रूप में प्रस्तुत है-

कल्याण, सरस्वती आदि में आपकी रचना छपने की बड़ी प्रसन्नता है। आप साहित्यिक जगत् में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह यशस्वी हों, ऐसी आँतरिक कामना है।

यदा-कदा अपनी पत्रिकाओं के लिए भी कुछ रचनाएँ भेजते रहें।

पत्र में मंगलकामनाएँ हैं कवि के लिए व पूर्व से दिया जा रहा आह्वान है कि वे अपनी कविताएँ अन्य पत्रिकाओं के अलावा अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान पाक्षिक आदि पत्रिकाओं के लिए भी भेजते रहें। पं. रामस्वरूप जी निरंतर काव्य-लेखन करते रहे एवं पूज्यवर अपनी पत्रिकाओं में उन्हें अग्रणी स्थान देते रहे। पत्र छोटा-सा है, पर एक साधक-कवि को प्रेरणा दी गई है एवं उसके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ व्यक्त की हैं। अंत में दुर्ग के श्री सुमंत कुमार मिश्र को लिखा गया एक पत्र दे रहे हैं, जिसमें उनसे पत्रिकाओं का, प्रकाशित योजना का फीडबैक माँगा गया है।

3-4-67 को लिखे पत्र में वे लिखते हैं-

“मार्च की अखण्ड ज्योति आपने पढ़ी होगी। न पढ़ी हो तो उसे एक बार फिर पढ़ लें। आगामी गायत्री जयंती से जो युगनिर्माण विद्यालय आरंभ होने जा रहा है, उसके तथा प्रथम पंचवर्षीय योजना के संबंध में अपना अभिमत लिखें। प्रस्तुत योजना का सफल बनाने के लिए आपके सुझाव तथा परामर्श की विशेष रूप से आवश्यकता अनुभव की जा रही है।”

ऐसे एक नहीं, कई सुमतों को पूज्यवर ने ऐसे पत्र लिखे हैं। विनम्रतापूर्वक अपने पाठक-शिष्यों से अभिमत माँगना, सुझाव-परामर्श की बात लिखना, यह बताता है कि किस उच्च स्तर पर पूज्यवर का हर कार्य नियोजित होता था। इतना बड़ा मिशन-विराट् वटवृक्ष यों ही नहीं खड़ा हो गया है। उसके पीछे गुरुसत्ता का तप तो है ही, ऊपर उद्धृत पत्रों की भूमिका कितनी है, हर कई समझ सकता है।


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