‘योग का ज्ञान-विज्ञान’

May 2001

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योग शब्द की निष्पत्ति ‘युज’ धातु से ‘योजाँ योग’ इस विग्रह के ‘भावे’ सूत्र भाव अर्थ में ‘छात्र’ प्रत्यय करने से होती है। इसका अर्थ है जोड़ना, संयोजित करना, सम्मिलित करना एवं तदाकार होना। योग का अर्थ जीवात्मा एवं परमात्मा का मिलन या सायुज्य है। ज्योतिष शास्त्र में योग का सम्बन्ध युग (काल) से है। गणित शास्त्र में दो या अधिक संख्याओं के जोड़ को योग कहा गया है। आयुर्वेद में विभिन्न प्रकार की औषधियों के मेल को योग कहते हैं। योग शब्द प्राचीन भारतीय आर्य भाषायी परिवार का है। यह जर्मन भाषा के जोक (छ्वशय़द्ग) एंग्लो सेक्शन के गेओक (त्रद्गशष्) इउक (द्यह्वष्) के ओक (ह्रष्) लैटिन के इउगम (द्यह्वद्दह्वद्व) तथा ग्रीक के जुगोम (ह्वद्दह्वद्व) के समकक्ष या समानार्थक है।

योग मनुष्य की चेतना के विकास का विज्ञान है। इसमें पदार्थ, जीवन और चेतना का समन्वय होता है। यह विज्ञान एवं अध्यात्म का योग भी कराता है। उपनिषदीय परंपरा में योग चेतना की एक उच्च अवस्था है। इसमें पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा मन की वृत्तियाँ रुक जाती है और बुद्धि भी स्थिर हो जाती है। इस प्रकार इंद्रिय नियंत्रण से ध्यान स्थिर हो जाता है। पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार योग “चित्तवृत्ति निरोध” की अवस्था है।

वैदिक वाङ्मय में सर्वप्रथम ऋग्वेद में योग शब्द मिलता है। ऋग्वेद के 1/14/4, 1/5/1, 3/52/1, 1/117/1, आदि मंत्रों में इसकी झलकियाँ मिलती हैं। यहाँ पर योग का संकेत आध्यात्मिकता की ओर है। उपनिषदों में प्रयुक्त योग भी आध्यात्मिक अर्थ को ही पुष्ट करता है। उपनिषदों में मुख्य रूप से कठोपनिषद् एवं श्वेताश्वेतर उपनिषद् में योग का उल्लेख हुआ हैं कपिल के साँख्य दर्शन एवं पतंजलि के योग दर्शन में भी योग के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की ओर संकेत किया गया है। महाभारत में योग की अक्षय निधि संचित है। इसमें योग का प्रयोग उपाय के रूप में मिलता है। भगवद्गीता तो योग शास्त्र है ही। इसके अठारह अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय का नाम योगाँत बताया गया है। रामायण में योग के ही समानार्थक तप शब्द का उल्लेख हुआ है ।इससे परम लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।

भगवद्गीता में योग की अनेक परिभाषाएँ प्राप्त होती है। गीता के दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें मंत्र में सिद्धि असिद्धि में सम रहना योग बताया गया है। योग कर्मों की कुशलता भी है। आगे गीता कहती है कि जीवन में जो दुख का संयोग है उसका वियोग ही योग है। गीता द्वारा प्रतिपादित योग की परिभाषा पतंजलि योग की परिभाषा से शाब्दिक रूप में नहीं मिलती, परंतु उसके सन्निकट है। पतंजलि के अनुसार जब चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती है, तो प्रकृति और पुरुष का भेद स्पष्ट होने लगता है। इसके परिणामस्वरूप समस्त दुखों से मुक्ति मिल जाती है। अर्थात् दुखों से वियोग हो जाता है। अतः कहा जा सकता है कि जब साधक युक्त हो जाता है, तभी दुखों से उनका वियोग हो जाता है।

योग का सामान्य अर्थ युक्त होना है। इसी परिप्रेक्ष्य में योगी याज्ञवल्क्य ने योग की परिभाषा दी है। उनके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा का समान रूपात्मक संयोग ही योग है। समान रूपात्मक का अर्थ है बंधनमुक्त परमात्मा के सदृश्य जीवात्मा भी अपनी आसक्ति, वासना आदि बंधनों से रहित होकर उससे तदाकार हो जाए। स्मृतियों में योगाभ्यास की उन सभी क्रियाओं का वर्णन मिलता है। जिनसे मोक्ष की प्राप्ति संभव है। बौद्ध धर्म में बोधिसत्व की प्राप्ति कराने वाली प्रक्रिया को योग कहा गया है। जैन आचार्यों के मतानुसार वह समस्त साधन, जो सिद्धि एवं मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं, योग कहलाते हैं।

योगशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भागवत पुराण का स्थान औपनिषदिक योग तथा पातंजल योग के बीच के काल में है। इसमें ज्ञानयोग, क्रियायोग, तथा भक्तियोग तीनों साधनों का वर्णन मिलता है। इसमें सिद्धि प्राप्त करने के साधन के रूप में योग का प्रतिपादन हुआ है। शिव महापुराण में दो प्रकार के योग का उल्लेख मिलता है।

पतंजलि द्वारा प्रतिपादित चित्तवृत्ति निरोधरूपी योग भी समानार्थक है। योग सूत्रों के भाष्यकार व्यास ने योग का लक्षण समाधि बताते हुए दोनों को अभिन्न माना है। परंतु योग सूत्रकार ने समाधि को अष्टाँग योगों में गिनाकर उसे योग का अंग या साधन माना है। श्री केएन मिश्र ने पतंजलि योग शास्त्र में भाव व्युत्क्रम रूप में प्रयुक्त योग या समाधि को अंग या साधन मानकर दोनों शब्दों के समानार्थक होने का सिद्धाँत स्वीकार किया है। इस प्रकार योग और समाधि शब्द पर्यायवाची एवं समानार्थक हैं।

विभिन्न ग्रंथों में योग का अर्थ भिन्न रूप में वर्णित है। अध्यात्मशास्त्र में प्रतिपादित मोक्ष प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट साधना एवं उनकी यथाविधि सम्यक् साधना और उससे प्राप्त होने वाली आध्यात्मिक विकास की पूर्णता का नाम ही योग है। महान योगी श्री अरविंद ने योग समन्वय में स्पष्ट किया है कि परमात्मा से एकत्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना तथा इसे प्राप्त करना, यही सब योगों का स्वरूप है।

योग का विषय व्यापक रहा है। समय के साथ उसकी व्यापकता में और भी वृद्धि हुई। इस व्यापकता में योग के अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं। इस क्रम में योग के कई प्रकार गिनाए गए है। ज्ञानयोग के अनुसार ब्रह्मा की एकता का ज्ञान हो जाना ही मोक्ष है। ब्रह्मा भाव की स्थिति को प्राप्त करना ही ज्ञानयोग की साधना कर लक्ष्य है। यह ज्ञान स्वरूप चैतन्य को अज्ञान से मुक्त कर देने पर प्राप्त होता है।

कर्म बंधन का कारण होते हैं। इनकी मुक्ति के लिए कर्मयोग का सहारा लिया जाता है। निष्काम कर्म में कर्म बंधन कारक नहीं होते अतः फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करते हुए भगवत् प्राप्ति के मार्ग को कर्मयोग कहा जाता है। कर्मयोग साधना की प्रथम अवस्था में कर्म निष्कामपूर्वक करना चाहिए। अगली अवस्था में कर्तव्य कर्म भी भगवद् अर्पित हो जाता है। इसी स्थिति में भक्ति भावना उदय होती हैं। अंत में कर्मयोगी स्वयं को कर्ता भी नहीं मानता और वह कर्तव्य की भावना से रहित हो जाता है। कर्मयोग से लौकिक एवं अलौकिक दोनों कर्मों का उत्थान होता है।

भगवत् प्राप्ति का सबसे सरल एवं सुगम मार्ग भक्ति मार्ग है। युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद के अनुसार सच्चे और निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं प्रेम ही भक्ति का मूल सिद्धाँत है। शाँडिल्य सूत्रानुसार भी ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है। भक्तियोग में भगवान ही एकमात्र केंद्र बिंदु होता है। परमात्मा के प्रति प्रेममय होकर तदाकार हो जाना ही भक्तियोग का लक्ष्य है।

मंत्रयोग को जपयोग के नाम से भी जाना जाता है। किसी मंत्र के जप के द्वारा परम लक्ष्य की प्राप्ति को जपयोग कहते हैं। योग सूत्र में मंत्र सिद्धि को माना गया है, और इसमें उल्लेख मिलता है कि इष्ट मंत्र के जप से इष्टदेव की प्राप्ति होती है। योगदर्शन में प्रणव अर्थात् ओंकार को ईश्वर का वाचक माना गया है और उसके अर्थ की भावना करते हुए जप करने का विधान बताया गया है। प्रणव के साथ ही गायत्री मंत्र को भी शास्त्रकारों ने अति महत्वपूर्ण बताया है।

योग के विभिन्न प्रकारों में लययोग का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। वैष्णव और शाक्त मतानुसार नाद बिंदु अमृत बिंदु, ध्यान बिंदु आदि का वर्णन मिलता है। इन बिंदु में स्वानुसंधानपूर्वक संहार करके अर्थात् नादमयी सारी भूमिकाओं को त्यागकर स्वरूप में स्थिति प्राप्त कर उसी में लीन हो जाना ही लययोग है। नाद में मन स्वभाव में विलीन होने लगता है। लययोग से भी मोक्ष प्राप्ति होती है।

हठयोग शास्त्रों के अनुसार ‘हकार’ (ह) का अर्थ पिंगला नाड़ी (सूर्य स्वर) या प्राण वायु होता है तथा ‘ठकार’ का अर्थ इड़ा नाड़ी (चंद्र स्वर) या अपान वाला होता है। इन सूर्य और चंद्र स्वरों अर्थात् प्राणवायु और अपान वायु के सम्मिलित स्वरूप को हठयोग कहा गया है। हठयोगियों की मान्यता है कि भगवान शिव ही इस योग के प्रवर्तक है। मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के पूर्व भी हठयोग की क्रियाओं का प्रचलन था। हठयोग शरीर और मन दोनों को आपस में सम्बन्धित मानता है। योग की साधना का लक्ष्य शरीर और प्राण पर विजय प्राप्त करना है।

महायोग के प्रवर्तक महर्षि रमण माने जाते हैं। इसमें निदिध्यासन ही मुख्य साधन है। इस योग की साधना चिंतन से आरंभ होती है। महायोग का जो साध्य है वही साधना है। यद्यपि यह योग कठिन एवं दुर्गम है, परंतु भगवत्कृपा से यह भी सहज, सरल एवं सुगम हो जाता है। महर्षि रमण के अनुसार ‘हृदय गुह्य’ में केवल मात्र ब्रह्मा ही है। यह साक्षात आत्मस्वरूप में प्रकाशित होता है। रमण महर्षि कहते हैं उसी की खोज एवं उस में विलय ही महायोग है। यह महायोग एक प्रकार से ज्ञानयोग के समान ही है।

तंत्र भी एक योग है। इसे ‘आगम’ भी कहते हैं। आगम उस शास्त्र को कहा जाता है, जिसके द्वारा भोग और मोक्ष के उपाय सुझाए जाते हैं। शैव और शाक्त तंत्रों के अतिरिक्त वैष्णव, सूर्य और गणपत्य तीन और तंत्रों का उल्लेख मिलता है। इन पाँचों को पंचागम कहा जाता है। तंत्र योग एक ऐसी पद्धति है, जिसमें आँतरिक और बाह्य, व्यक्तिगत और सामूहिक क्रियाओं का समावेश करने का प्रयत्न किया गया है।

तंत्र योग के ही एक अंग कुँडलिनी योग में कुँडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाता है। यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर शिव के साथ एक हो जाती है। यहाँ पर योगी को जीव और ब्रह्म की एकता की अनुभूति होती है।

प्राणायाम युक्त मनोवृत्ति को स्पर्श योग की संज्ञा दी गई है और यदि स्पर्श योग मंत्र के स्पर्श से रहित हो तो भावयोग कहा जाता है, परंतु जिसमें संपूर्ण विश्व तिरोहित हो जाता है, उसे अभाव योग कहते हैं, क्योंकि उसमें विद्यमान वस्तु का भी आभास नहीं रहता। चित्त का बाह्यार्थ संयोग किसी भूमि आदि से संयोग ही क्रिया योग कहा गया है। योग के इन भेदों के अलावा योग के और भी कई रूपों में भिन्नता है, शिव योग, मृत्युँजय योग, संपूर्ण योग आदि।

योग का यह वास्तविक प्राचीन स्वरूप औपनिषदिक परंपरा का ही अंग है। तत्वज्ञान एवं तत्त्वानुभूति के साधन के रूप में ही यह विकसित हुआ। कालाँतर में यही अष्टाँग योग के रूप में प्रतिपादित किया गया। पतंजलि ने अष्टाँग योग को यम नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के रूप में स्वीकारा है। शिव महापुराण एवं गरुड़ पुराण में भी अष्टाँग योग की चर्चा मिलती है। तत्वज्ञान और तत्त्वानुभूति आदि उच्च भावों की प्राप्ति में सहायक होने से शारीरिक तथा मानसिक विकास हेतु भी योग का प्रयोग हुआ है। आधुनिक काल में योग के कई प्रयोजन सुझाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, योग द्वारा सिद्धि प्राप्त करना, स्वास्थ्य संवर्द्धन रोगों की चिकित्सा चेतना का विकास आदि। वैसे कहना यही उचित है कि योग मुख्यतः तत्त्वानुभूति का विषय है और वह आत्मिक विकास पर केंद्रित हैं।

इसी तरह जीवन में चिंतन चरित्र एवं व्यवहार में उत्कृष्टता का योग ही सच्चा योग माना जा सकता है। अतः योग मार्ग पर अग्रसर साधक को सदैव उस परमात्मा का अभीप्सा करते रहना चाहिए। यही सभी योगों का सार है।


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