ज्ञान निरर्थक (kahani)

May 2001

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एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश कर रहे थे, “वत्स! जो कछुए की तरह अपने हाथ-पाँव सब ओर से समेटकर आत्म-लीन हो जाता है, ऐसे निरुद्योगी पुरुष के लिए संसार में किसी प्रकार का दुख नहीं रहता।

घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में साधु की यह वाणी पड़ी तो वह चौकन्ना हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़कों को खड़ा करके छोटे से बोली, ‘ले यह घड़ा पानी भर कर ला।” मझले से कहा, “तू चल और सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक।” अंत में साधु की ओर देखकर उस कर्मावती ने उपदेश दिया, “महात्मन्! निरुद्योगी मैंने बहुत देखें हैं, कई पड़ोस में ही बीमारी से ग्रस्त, ऋण-भार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े है।”

ज्ञान को कर्म का सहयोग न मिले, तो कितना ही उपयोगी होने पर भी वह ज्ञान निरर्थक है।


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