धर्मोपदेश में व्यक्त (kahani)

May 2001

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देवासुर युद्ध में देवताओं की सहायता करने के लिए अर्जुन स्वर्गलोक गए और वहाँ उन्होंने देवताओं को विजयी बनाया।

अर्जुन के पराक्रम से प्रसन्न होकर सुरपुर की सर्वश्रेष्ठ सुँदरी उर्वशी उन पर मुग्ध हुई और नाटकीय ढंग से स्वयं को दीन-दुःखी बताकर अर्जुन से सहायता का वचन लिया। कष्ट पूछने पर उसने बताया कि मैं आपके द्वारा आपके जैसा ही पुत्र चाहती हूँ।

अर्जुन उर्वशी का प्रयोजन समझ गए। उनने गंभीर होकर कहा, “पुत्र के लिए प्रतीक्षा की क्या आवश्यकता है। मैं स्वयं आपके पुत्र रूप में आज से ही मौजूद हूँ। मुझे ही आप पुत्र रूप में मानें।” अर्जुन का सदाचरण और दृढ़ता देखकर उर्वशी अवाक् रह गई।

शरशैय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने पर प्राण त्यागने की तैयारी में लगे थे। कुरु और पाँडुकुल के नर-नारी उन्हें घेरे बैठे थे। पितामह ने उचित समझा कि उन्हें कुछ धर्मोपदेश दिया जाए वे धर्म और सदाचार की विवेचना करने लगे।

सब ध्यानपूर्वक सुन रहे थे, पर द्रौपदी के चेहरे पर व्यंग्य-हास की हल्की-सी रेखा दौड़ रही थी। भीष्म ने उसे दिखा और अभिप्राय को समझा। वे बोले, बेटी ! मेरी कल की करनी और आज की कथनी में अंतर देखकर तुम आश्चर्य मत मानो। जिन दिनों राजसभा में तुम्हारा अपमान हुआ था, उन दिनों कौरवों का कुधान्य खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो रही थी, इसलिए तुम्हारे पक्ष में न्याय की आवाज उठा न सका। इन दिनों मुझे लंबी अवधि का उपवास करना पड़ है, सो भावनाएँ स्वतः वैसी हो गई, जैसी कि मैं इस समय धर्मोपदेश में व्यक्त कर रहा हूँ।


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