विजय न्याय की (kahani)

May 2001

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गुजरात के प्रसिद्ध सेठ दानमल हँकाजी का पढ़ा लिखा जवान विवाहित बेटा दिवंगत हो गया, तो सेठ जी को बड़ा शोक हुआ, पुत्र वियोग का उतना नहीं, जितना अपनी जवान विधवा बहू का, जो एक वर्ष भी सुहागिन नहीं रह सकी थी। तो क्या वह जीवनभर वैधव्य की आग में जलती रहेगी? यह सोच सोचकर अत्याधिक दुखी हो जाते थे बेटे के जाने के बाद उसके हिस्से का प्यार भी बहू पर सिमट आया था।

बहुत सोच-विचार के बाद उन्होंने एक निश्चय किया। बहू उनकी पुत्री तुल्य है। वह उसका पुनर्विवाह करेंगे। उसे वैधव्य की आग में नहीं जलने देंगे। उन्होंने समाज के तीव्र विरोध को सहते हुए भी अपनी विधवा बहू का पुत्री की तरह पुनर्विवाह करके ही चैन की साँस ली।

मराठा सरदार राघोबा पेशवा पर अपने भतीजे ही हत्या का अभियोग था। जिस न्यायालय में उसका निर्णय होने वाला था, उसके न्यायाधीश श्री रामशास्त्री थे। श्री शास्त्री सत्यनिष्ठा के लिए दूर-दूर तक विख्यात थे, इसलिए राघोबा को भय था कहीं उसे सजा न मिल जाए।

राघोबा की धर्मपत्नी को एक उपाय सूझा। उन्होंने श्री रामशास्त्री को भोज दिया और इस विचार से उनकी खूब आवभगत की कि उससे प्रभावित होकर श्री शास्त्री उनके पक्ष में ही निर्णय देंगे। बात-बात में उन्होंने इस बात की चर्चा ही छेड़ दी, तो श्री रामशास्त्री ने कहा, “न्याय की दृष्टि से तो सरदार को प्राणदंड मिलना ही चाहिए।” राघोबा की पत्नी उनकी इस निर्भयता से प्रभावित तो हुई, पर उन्होंने कहा, “इस तरह का निर्णय देने का परिणाम जानते हैं आप क्या होगा? हम जिंदा ही आपकी जीभ कटवा लेंगे और किसी गड्ढे में गडवा देंगे।”

बिना उत्तेजित हुए श्री शास्त्री ने उत्तर दिया, “यह आप कर सकती है, पर उससे मुझे कोई दुःख नहीं होगा, गलत निर्णय देने की अपेक्षा तो जीभ क्या शिर काट लिया जाना ही अच्छा है।” अंततः विजय न्याय की ही हुई।


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