परिवर्तन की धुरी बनेगा इक्कीसवीं सदी का विज्ञान

May 2001

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विज्ञान हमें जीवन की सुविधाएँ देने वाला अक्षय कोष होने के साथ ही सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक भी है। सामाजिक परिवर्तन में इसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। विज्ञान मानव समाज के कार्यभार की सचेत अभिव्यक्ति है। इससे सामाजिक परिवेश में अपनी आवश्यकताओं को समझने, उन्हें सुनियोजित व संतुष्ट करने की सामर्थ्य भी मिलती है। विज्ञान और समाज का अंतर्संबंध गहरा है। संबंधों की यह गाथा मानव जाति के परिवर्तन से जुड़ी है। इतिहासकारों के अनुसार मानव जाति अभी तक केवल तीन बड़े परिवर्तनों से गुजरी है। पहला परिवर्तन था, समाज की स्थापना एवं दूसरा था सभ्यता का उदय। ये दोनों ही परिवर्तन इतिहास लिखे जाने से भी बहुत पहले संपन्न हो चुके थे। तीसरे परिवर्तन के द्वारा समाज में वैज्ञानिक बदलाव आया।

समाज की स्थापना को पहली क्राँति कहना अधिक उपयुक्त है। इसके द्वारा मनुष्य ने अपनी पहचान बनाई। उसने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अनुभवों का हस्ताँतरण कर विकास का नया आयाम खोला। दूसरी क्राँति थी सभ्यता की खोज। यह क्राँति कृषि एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित थी। अनेक तकनीकों का आविष्कार इसी दौरान प्रारंभ हुआ। इससे शहर एवं व्यापार के सामाजिक रूपों की नींच पड़ी। इन दोनों क्रांतियों से मनुष्य में बौद्धिक कुशलता बढ़ी एवं साहस का नया संचार हुआ। मनुष्य ने स्वनिर्भर होना सीखा। कालक्रम के अनुसार देखें, तो यह सब छठी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक संपन्न हो चुका था। तब तक इसके दो ही केंद्र थे, भारत और मेसोपोटामिया।

इसके पश्चात नवजागरण काल तक सभ्यता का विकास अति मंथर गति से संपन्न हुआ। यह मान्यता पाश्चात्य विद्वानों की है। पंद्रहवीं सदी के मध्य में एक नूतन क्राँति का सूत्रपात हो रहा था। इसमें आधुनिक विज्ञान की संभावनाएँ जन्म ले रही थीं। हालाँकि इन दिनों पूँजीवाद का उदय भी हो रहा था। अठारहवीं सदी तक इसकी प्रक्रिया बड़ी धीमी रही। कृषि और प्रौद्योगिकी के रूप में विज्ञान का भविष्य बड़ा रोमाँचक लग रहा था। परंतु तब विज्ञान का भविष्य बड़ा रोमाँचक लग रहा था। परंतु तब विज्ञान व पूँजीवाद को पूरक माना जात था। इसके प्रति दृष्टिकोण का बदलाव तो वर्तमान समय की देन है। चंद हाथों का खिलौना बनकर रहना शायद विज्ञान को पसंद नहीं आया। वैज्ञानिक मानसिकता में इस बीच काफी परिवर्तन हुए है। तभी आज यह समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में तत्पर है। समाज में विज्ञान का पदार्पण सर्वप्रथम धार्मिक अंधविश्वासों को तोड़ने के रूप में हुआ। जिसके अंतर्गत इसने मानव को तार्किक एवं प्रयोगधर्मी सोच दी है।

यही नहीं, विज्ञान ने सामाजिक जीवन को भी एकजुट करने का प्रयास किया। सामाजिक भूमिका के रूप में विज्ञान के कई और भी महत्वपूर्ण पहलू है। विज्ञान सुविधाएँ जुटाकर भौतिक विश्व की, मनुष्य की निर्भरता को काफी बढ़ा देता है या बढ़ाने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन विज्ञान की बैसाखियों पर टिक जाता है। मनुष्य के लिए यह स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ता की है। ऐसे में एक उलझन को सुलझाने का प्रयास कई नई उलझनों को जन्म देता है। विज्ञान का यह पक्ष समाज के लिए सुविधाजनक होने के बावजूद बहुत अच्छा नहीं है।

हालाँकि वर्तमान युग विज्ञान का युग है। इसकी उपलब्धियों तले मानव समाज दब सा गया है। परंतु प्रश्न है विज्ञान का संचालन एवं नियमन करने का। आज यह आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों के जटिल ढाँचे का एक अंग बन गया है। अगर इसका दुरुपयोग हुआ, तो परिणाम फिर से उसी भूली हुई विभीषिका के समान हो सकता है। इससे बचने का उपाय एक ही है, विज्ञान का सृजनात्मक तत्वों के द्वारा नियमन। विज्ञान को फिर से उसे अपने मूलभूत उद्देश्य के प्रति सचेत व जागरुक करना पड़ेगा। तभी यह सामाजिक परिवर्तन में प्रमुख शक्ति बन सकता है। यह सच है कि विज्ञान के पथ अथाह शक्तियाँ हैं। यही इसे देव या दानव में परिवर्ती कर सकती हैं। हाँलाकि विज्ञान अपने सामाजिक महत्व से अभी काफी कुछ अपरिचित है एवं विकास से यथार्थ से भी अनभिज्ञ है। परंतु इसे इस कार्य में नियोजित किया जा सकता है। इसे जागरुक बनाने के लिए वर्तमान और भविष्य की समस्याओं के प्रकाश में देखा जाना चाहिए।

इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो विज्ञान के माध्यम से समाज अपनी भौतिक समस्याओं का निदान ढूंढ़ सकता है। विज्ञान इन समस्याओं के मूल तक पहुँच सकता है और यह भी पता लगा सकता है कि समस्या वास्तविक है या काल्पनिक। जैसे -जैसे विज्ञान भौतिक सभ्यता की सचेतन निर्देशक शक्ति बनता जाता है वैसे -वैसे इसे संस्कृति के अन्य क्षेत्रों में भी प्रवेश की अनुमति मिल जाती है।

आज उच्च विकसित विज्ञान और संस्कृति दो भिन्न -भिन्न धाराओं में बह रहे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विज्ञान अभी सचेतन शक्ति नहीं बन पाया है। विद्वानों के अनुसार कोई भी समाज अपने समय के प्रभुत्व एवं प्रभावशाली विचारों से अनिश्चितकाल तक दूर नहीं रह सकता। अगर यह दूरी बनी रहेगी तो समाज की महत्ता खो जाएगी। यद्यपि विज्ञान अपने वर्तमान रूप में समाज व संस्कृति के साथ उचित सामंजस्य नहीं रख पा रहा। इसके लिए विज्ञान संरचना में परिवर्तन लाने होंगे। क्योंकि आज का विज्ञान अपना स्वयं का विज्ञान ही खो चुका है। अब तक विज्ञान का चरित्र मौलिक आवश्यकताओं एवं जरूरतों से निर्धारित होता रहा है। इसकी प्रकृति भी मुख्यतः आलोचनात्मक ही रही है। इसको तभी सफल माना जा सकता है, जब वह व्यवहार में भी खरा उतरे।

विज्ञान को अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु काफी मंजिलें तय करनी पड़ेगी। आज जो अन्वेषण एवं अनुसंधान हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कही कुछ खो गया है, कोई कड़ी लुप्त हो गई है। आज खोजों को प्रायः इंसानी प्रतिभा का चरम मानकर ही संतोष कर लिया जाता है। विज्ञान की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह मानवीय जीवन की ऐसी परिघटनाओं से उचित रूप में निबट पाने में असमर्थ है, जिनमें प्रकृति उसे चुनौती दे रही हो।

समाज और संस्कृति में स्थान पाने के लिए विज्ञान को अपनी यह कमी दूर करनी होगी। इसके निराकरण के बाद ही विज्ञान की शुष्क प्रकृति साँस्कृतिक संवेदना एवं भावना से एकाकार हो सकती है। इस तरह यदि विज्ञान का रूपांतरण संभव हो सका, तो समाज के अन्य क्षेत्रों के साथ भी इसका संपर्क बढ़ सकता है। इन बदले परिवेश में इतिहास, परंपरा एवं साहित्य आदि दृश्य विज्ञान से और भी निकट आते जाएँगे। विज्ञान का यह रूपांतरण एक नए अध्याय की शुरुआत करेगा, जिससे समाज की तस्वीर बदल सकती है।

विज्ञान के रूपांतरण के इस विचार से पूर्व की स्थिति देखें, तो स्वयं विज्ञान भी कई स्तरों एवं अवस्थाओं से होकर गुजरा है। विज्ञान की बाल्यावस्था रहस्यमयी ब्रह्मांड की जानकारी से आरंभ हुई। अब तो यह प्रौढ़ावस्था में पहुँच गया है और अज्ञेय संभावनाओं को खोलने लगा है। इसी अवस्था में इसकी जिज्ञासा बदली है। अब यह अपने सिद्धाँत और व्यवहार दोनों दृष्टि से मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने में रुझान प्रकट कर रहा है।

इसके साथ ही विज्ञान ने तार्किकता के अनजान क्षेत्र में प्रवेश किया। याँत्रिकी, भौतिकी और रसायन का उद्भव इसी की परिणति है। पौर्वात्य मनीषा कहती है तर्क से सृजन संभव नहीं है। अतः जीवविज्ञान में तार्किकता का यह मिथक टूटा। विज्ञान ने विकास के कुछ और चरण बढ़ाए। उद्विकास सिद्धाँत में इसे नवीनता और इतिहास की मान्यता मिली। इतिहासविदों के मतानुसार इतिहास में सदैव नवीनता जुड़ी रहती है। अतएव इतिहास विज्ञान कभी नहीं बन सकता। चूँकि नवीनता विज्ञान की धुरी है इसलिए इतिहास और विज्ञान के सम्बन्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

वैज्ञानिक परिदृश्य में एक और क्राँति तब हुई जब मार्क्सवादी विचारधारा तथा वैज्ञानिक सोच की दो विरोधी शक्तियाँ पास आने लगी। कार्लमार्क्स के विचारों के जन्म के साथ ही तार्किक अध्ययन का अध्याय पश्चिम में प्रारंभ के साथ ही तार्किक अध्ययन का अध्याय पश्चिम में प्रारंभ हुआ। इसी वजह से मानवीय विकास की भविष्यवाणी की जा सकी। परंतु वैज्ञानिक भविष्यवाणी तभी संभव है जब सारे कारक संपूर्ण रूप से ज्ञात हों। इस अंतर के बावजूद भी विज्ञान की सीमाओं के अंदर विकास के आयाम खुलें। चूँकि दोनों का उद्देश्य विकास है, इसलिए दोनों विचारधाराओं ने समाज की समस्याओं का स्पर्श किया।

विज्ञान मार्क्सवाद के कई कल्पित विचारों को हटाने में भी समर्थ हुआ। विज्ञान ने मार्क्सवाद को आर्थिक और सामाजिक विकास के निर्णायक महत्व रखने वाले अंग के रूप में दर्शाया। एक ओर जहाँ विज्ञान को मार्क्सवाद के अधिभूतवादी तत्वों को अलग किया है वही मार्क्सवाद ने विज्ञान को एक नई वैज्ञानिक सोच हेतु प्रेरित किया। मार्क्सवाद की व्यावहारिक उपलब्धियों के माध्यम से ही वैज्ञानिक चेतना ने मानव कल्याण की दिशा पाई।

अपने सार्थक स्वरूप में विज्ञान मानव समाज की एक जीवंत अभिव्यक्ति भी हैं, क्योंकि इससे विज्ञान प्रकृति के कई रहस्य खुले हैं। इसने प्रकृति के साथ मानव के सम्बन्धों की भी यथासंभव व्याख्या की है। भले ही व्याख्या की ये विधियाँ अपूर्ण हों, परंतु भविष्य के लिए एक संभावना तो बनती ही है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि विज्ञान को जानने के लिए मनुष्य को अपने व्यक्तित्व और उपलब्धि को खोना नहीं पड़ता है। यही नहीं, वैज्ञानिकता समाज व मानव को उद्देश्यपूर्ण ढंग से सचेत व जागरुक होकर जीना सिखाती है।

22 21वीं सदी के नवयुग में विज्ञान समाज के भावी परिवर्तन का एक प्रमुख कारक बन सकता है। परंतु इसके सुधार की स्थायी प्रक्रिया जीवन के दायरे में आनी चाहिए। सामाजिक जीवन में यह उपयोगी एवं लाभदायी हो, ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए इससे विज्ञान का महत्व एवं दायित्व बढ़ जाएगा और विज्ञान स्वयं को मानवीय और सामाजिक समस्याओं के समाधान के आस-पास केंद्रित करेगा। यह एक चुनौती है। इस चुनौती में उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ भी छुपी हुई है। यह तभी संभव हो सकता है जब विज्ञान का नियमन एवं नियंत्रण विवेकशील प्रज्ञावानों के हाथों में आए। इसी से अध्यात्मवादी भौतिकवाद का पथ प्रशस्त होगा।


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