महर्षि दयानंद के एक शिष्य थे अमीचंद्र। वे गाते भी बहुत अच्छा थे व तबला भी बजाते थे। पर उन्हें शराब पीने की बुरी लत थी। दूसरे शिष्यों ने कहा, भगवन् इन्हें आप अपने साथ न रखें। इनसे हम सबकी प्रतिष्ठा गिरती है। स्वामी जी बोले, “पहले यह गाता था, पेट के लिए व मनोरंजन के लिए। अब जब से हम से जुड़ा है, भगवान की खातिर उन्हीं को सुनाकर गीत गाता है। यह स्वयं बदलेगा।” हुआ भी वही। प्रथा प्रभु के संदेश को फैलाने वाले गीत सुना सुनाते अमीचंद्र बदल गए, उनकी आदत भी छूट गई और समाज सुधार के कार्य स्वामी जी के सहयोगी बने।
दो भाई तीर्थयात्रा पर निकले। रुपये पैसे का उनके पास कोई अभाव न था। उनमें से एक भाई ने धन बाँटना प्रारंभ किया। वह हर भिखारी को धन बांटता चला जाता था। अच्छे बुरे, पवित्र, अपवित्र, इसे धन की आवश्यकता है अथवा नहीं, उसके मस्तिष्क में ऐसा कोई भी विचार न था। एक निर्धन गृहस्थ जो कई दिन के शीत के कारण व्याकुल था सामने से गुजरा। दूसरे भाई ने अपना कोट उतार कर उसे देते हुए कहा, लो भाई ठंडक से शरीर बचाओ, तुम्हारे पीछे एक परिवार लगा है।
छोटा भाई नत मस्तक हो गया। उसने अनुभव किया, तीर्थयात्रा का सही उद्देश्य तो भाई ने ही समझा है। जो पराये दुख को अपना मानता है, उसे जो आकुलता बाँटने की बनी रहती है, वही सच्ची भक्ति है।