आस्था और विश्वास के प्रति विद्रोह का नाम है भ्रष्टाचार

May 2001

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भ्रष्टाचार भौतिक पदार्थ नहीं है। यह मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है। जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है। यह एक मानसिक समस्या है। भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास एवं जाति की सीमाएँ भेदकर व्यापकता का परिचय देता है। वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति एवं सामाजिक जीवनचक्र भी इससे अछूते नहीं हैं। इसने असाध्य महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है। यह किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं है वरन् समस्त विश्व की है।

आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘अर्थशास्त्र’ में भ्रष्टाचार का उल्लेख इस तरह से किया है, ‘अपि शक्य गतिर्ज्ञातु पतताँ खे पतत्त्रिणाम्। न तु प्रच्छन्न भवानाँ युक्तानाँ चरताँ गति।’ अर्थात् आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है,किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों का गतिविधि से पार पाना कठिन है। कौटिल्य ने भ्रष्टाचार के आठ प्रकार बताए हैं। ये हैं प्रतिबंध, प्रयोग, व्यवहार, अवस्तार, परिहायण, उपभोग, परिवर्तन एवं अपहार। विभिन्न विद्वानों ने इस विषय में अपना भिन्न-भिन्न मत प्रतिपादित किया है। जनरल नेजुशन ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है। उनके अनुसार यह विकृत मन मस्तिष्क की उपज है। जब समाज भ्रष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है। ईमानदारी ओर सचाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टता फैलती है। इस परिप्रेक्ष्य में चीन के सक्रिय समाजसेवी वाँग एन शिन्ह (121 - 86 एडी) का कहना है कि सामाजिक दुरवस्था का कारण है, कानूनी दोष एवं गलत अनैतिक तत्वों का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। यही से भ्रष्टाचार का अंकुरण होता है।

इस्लामी विद्वान अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन (1332-1406) समाज की नींव में भ्रष्टाचार रूपी दीमक को नष्ट करने में कामयाब न हो सके। अतः अपने कडुए अनुभव से उन्होंने कहा, व्यक्ति जब भोगवाद वृत्ति का अनुकरण करता है, तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कामना करता है, इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएँ लाँघ जाना चाहता है और जहाँ ऐसा प्रयास सफल होता है, तो भ्रष्टाचार का ‘चेन रिएक्शन’ प्रारंभ होता है। राजनीतिक विचारकों के अनुसार मनुष्य के लोभ का बढ़ना मानसिक द्वंद्व को जन्म देता है व पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के कारण भ्रष्टाचार का जन्म होता है।

डब्ल्यू एफ वर्थिम ने ‘सोशियोलाजिकल एस्पेक्ट्स ऑफ करप्शन इन साउथ ईस्ट एशिया’ में स्पष्ट किया है। कि भ्रष्टाचार आमतौर पर सार्वजनिक व्यय में घोटाले के दोष को कहा जाता है इस तरह भ्रष्टाचार तीन तरह के अर्थों के लिए प्रयुक्त होता है, रिश्वत, लूट-खसोट और भाई भतीजावाद। इन तीनों की प्रकृति एक समान होती है। अगर इसके चरित्र का विश्लेषण किया जाए, तो इस तरह होगा, यह सदा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है। जब यह दुष्कृत्य एक व्यक्ति द्वारा होता है, तो उसे धोखेबाज कहते हैं और एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है। तो भ्रष्टाचार कहलाता है। मुख्यतः यह गोपनीय कार्य है। व्यक्ति आपसी मंत्रणा कर अपने निहित स्वार्थ हेतु यह कदम उठाते हैं। इसमें नियम और कानून का खुला उल्लंघन नहीं किया जाता है, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से जालसाजी की जाती है।

भ्रष्टाचार भिन्न-भिन्न देशों में उसकी स्थिति एवं साँस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर होता पाया गया है रिश्वतखोरी अविकसित देशों में अधिक पाई जाती है। वहाँ पर मूल्य नियंत्रण, उत्पादन एवं व्यापारिक गतिविधियाँ इससे अत्यंत प्रभावित होती है। भारत में भ्रष्टाचार की एक विशिष्ट शैली है जो विश्व के अन्य देशों से एक दम अलग है।

भ्रष्टाचार पनपने के कई कारण है। नेतृत्व क्षमता में कमी से भ्रष्टाचार पनपता है। चीन और जापान में एक कहावत हैं, “बाँसुरी जितनी तिरछी होगी उससे प्रवाहित हवा उतना ही प्रभावित होगी।” इसी तरह भ्रष्टाचार नेतृत्व क्षमता पर निर्भर करता है। यदि यह क्षमता कुशल एवं सुग्राही है, तो भ्रष्टाचार की संभावना कम होती है, अन्यथा यह बढ़ती है। भ्रष्टाचार के आम कारणों में धार्मिकता और नैतिकता की कमी, उपनिवेशवाद, अशिक्षा, गरीबी, काफी के प्रति निष्ठा और ईमानदारी का अभाव, शासन की संरचना, सामाजिक अवस्था आदि आते हैं।

भ्रष्टाचार की उत्पत्ति कहाँ एवं कैसे हुई? इस संबंध में विद्वानों में मताँतर है। कुछ विद्वान पूर्वी यूरोप के रुमानिया एवं नाइजीरिया जैसे साम्यवादी देशों में इसकी उत्पत्ति मानते हैं। वहाँ पर भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए गए है। विश्व का भ्रष्टतम माने जाने वाला देश नाइजीरिया है। जहाँ लोगों के बैंक खाते भी सुरक्षित नहीं माने जाते। स्टाँशिस्लाव एंड्रेस्की के मतानुसार लेटिन अमेरिका के दो राष्ट्रपति क्रमशः 7 करोड़ एवं 4 करोड़ अमेरिकी डालर के घोटाले में लिप्त थे प्राचीन ग्रीस, रोम, चीन और भारत में यह दुष्प्रथा चली आ रही है। विशेषज्ञों के अनुसार एशिया में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भ्रष्टाचार का तीव्र विकास हुआ।

‘द ग्लोबल कंपीटीटीवनेस रिपोर्ट 1996 ने दुनिया में भ्रष्ट देशों का आँकड़ा प्रस्तुत किया था। इसके अनुसार ये देश हैं, इटली, स्पेन, चीन, अर्जेन्टीना, तुर्की, मैक्सिको, इंडोनेशिया, भारत फिलीपींस, पाकिस्तान कोलंबिया बेनेजुएला और रूस। सन 1999 में भारत चार सबसे भ्रष्टतम देशों में से एक था। विश्व बैंक ने 69 देशों के 36 फर्मों का सर्वेक्षण किया। इनमें से 4 प्रतिशत से अधिक फर्मों ने रिश्वत की बात स्वीकारी। सर्वेक्षण में पाया गया कि भ्रष्टाचार के मामले पूर्व सोवियत संघ और अफ्रीका में अधिक थे। पूर्वी एशियाई देशों में यह दर आर्थिक विकास के साथ साथ बढ़ी। विश्व में भ्रष्टाचार 5 से 7 प्रतिशत है। परंतु भारत में यह 20 से 28 प्रतिशत है। सितंबर 1999 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में दिल्ली का एक बैंक सबसे भ्रष्ट बैंक की सूची में था।

भ्रष्टाचार सदियों से मानव सभ्यता को प्रभावित करता रहा है। भारत की तो यह ज्वलंत समस्या है। लगता है भ्रष्टाचार का दुष्ट ग्रह भारत की कुँडली में स्थायी रूप से आसन जमाकर बैठ गया है। इसके निराकरण का हर प्रयास उसे पूर्व की अपेक्षा और अधिक प्रबल और प्रभावी बनाता आ रहा है। एक युग था जब घोटाले हजारों रुपयों में होते थे, बहुत हुआ तो चंद लाख रुपयों में। अब तो करोड़ों और अरबों रुपयों में घोटाले हो रहे हैं।

भारत में यह एक सामान्य बात हो गई है। पिछले पचास सालों में अनेक घोटाले हुए है। सर्वप्रथम 1947 में जीप घोटाला सामने आया। पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के समय ब्रिटेन स्थित भारतीय उच्चायुक्त बी. के. कृष्णमेनन ने एक कंपनी को 463 जीपों का ऑर्डर दिया। ये जीपें सही नहीं पाई गई और युद्ध विराम के बाद पहुँची। 1941 में रत्न ठेका घोटाले में विंध्य प्रदेश के उद्योगमंत्री रँगे हाथों पकड़े गए। उन्होंने पन्ना के एक रत्न ठेकेदार से 25 रुपये की रिश्वत ली थी। मंत्री जी को तीन साल की सजा हुई।

सन् 1951 का साइकिल पाट्स रेकेट काँड में केंद्रीय आयोग और व्यापार सचिव एस. ए. वेंकटरमन सम्मिलित थे। उन्होंने एक कंपनी को साइकिल के पाट्स आयात करने का बड़ा ठेका दिया। इसमें धाँधली हुई थी। सन् 1951 में कानपुर के उद्योगपति हरिदास मूँधरा ने अपनी कंपनी के भाव बढ़ाने के लिए जीवन बीमा निगम से एक करोड़ रुपये हासिल किए। इस घोटाले में तत्कालीन वित्त मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था। सन् 1962 में जयंती धर्मसिंह ने जहाजरानी कंपनी खोली, जिसमें उसने अपने मात्र 2 रुपये लगाए और सरकार से 22 करोड़ रुपये का कर्ज लिया, उसने ग्राहकों से बड़ी मात्रा में अग्रिम भुगतान लेकर लीथेस्टाइन बैंक में जमा किया। यह एक बड़ा घोटाला था।

सन् 1964 में एक कमेटी ने अपनी जाँच में पाया कि पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रिश्तेदारों ने उनके कार्यकाल में अथाह संपत्ति जमा कर ली थी। उस अरोप के बाद मुख्यमंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ा। सन् 1971 में भूतपूर्व सेना अधिकारी रुस्तम सोहराब नागरवाला ने स्टेट बैंक के मुख्य कैशियर में इंदिरा गाँधी की नकली आवाज पर 6 लाख रुपये निकलवा लिए। इस काँड में अनेक वरिष्ठ पदाधिकारी शामिल पाए गए, परंतु उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई।

सन् 1974 में पाँडिचेरी के तुलमोहन राम नामक व्यापारी ने 21 साँसदों के फर्जी हस्ताक्षर करके केंद्रीय उद्योग मंत्रालय को आयात लाइसेंस देने की अर्जी दी। जब इसका पर्दाफाश हुआ, तो अनेक अधिकारी पकड़े गए, परंतु उन पर भी कोई कार्यवाही न हो सकी। सन 1982 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पर चुरहट बाल कल्याण संस्था के नाम पर 5.4 करोड़ रुपये इकट्ठा करने का आरोप लगा।

इन घटनाओं के बाद तो घोटालों की बाढ़ सी आ गई। कोई भी वर्ष किसी एक घोटाले के लिए याद किए जाने के लिए कम पड़ने लगा। तेजी से घटे घोटालों की यह शृंखला आगे बढ़ चली। अन्य चर्चित घोटालों में सीमेंट घोटाला, एचडब्ल्यू डी पनडुब्बी और बोफोर्स तोपों का मामला (1987), एबीबी लोको सौदा (1993), चीनी घोटाला (1994), जैन हवाला काँड (1995), यूरिया घोटाला (1996), टेलीकॉम घोटाला (1996), इंडियन बैंक घोटाला (1996), आयुर्वेद घोटाला (उप्र 1997-98) आदि हैं।

हमारे देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार अपने चरम सीमा पर पहुँच गया है। इसके अलावा शासन, प्रशासन, संस्थाएँ सभी इस महामारी की चपेट में हैं। सामान्य जीवनचक्र भी इससे अछूत नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की हर गतिविधियाँ इसके दायरे में आ गई है। सरकारी अस्पताल में निःशुल्क जन्म एवं प्रमाण पत्र के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इसके लिए 1 से 3 रुपये तक खरच करने पड़ते हैं। किसी अच्छे स्कूल, कॉलेज या व्यावसायिक संस्था में प्रवेश के लिए डोनेशन न्यूनतम राशि 5 ये 5 लाख रुपये तक हो सकती है। रिश्वत के बगैर तो रोजगार एवरेस्ट शिखर फतह करने जैसा है। इंजीनियरिंग क्षेत्र के लिए दो से पाँच लाख, लेक्चररशिप हेतु एक से तीन लाख, कंपनी मैनेजर के लिए पाँच से दस लाख रुपये देने पड़ते हैं। यहाँ तक कि आर.टी.ओ. आफिस के बाबू बनने के लिए कई लाख खरचने पड़ सकते हैं। जो संस्था या दफ्तर जितना महत्वपूर्ण है, उसके कर्मचारी भी उतने महँगे साबित होते हैं।

भ्रष्टाचार का यह दर्शन बेहद अमानवीय है। पहले तो यह जनसामान्य को अमानवीयता, असम्मान, अन्याय, असुरक्षा और असमानता के हवाले छोड़ देता है। किसी की पीड़ा एवं कसक इसके लिए बेमानी नजर आती है।

भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु केवल कानून बनाना ही एक मात्र विकल्प नहीं हो सकता। इसके लिए व्यक्ति के लिए अंदर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस होना अनिवार्य है। क्योंकि भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से जूझने के लिए अंदर और बाहर दोनों मजबूत होना चाहिए। भ्रष्टाचार की जड़ें इन दोनों क्षेत्रों में गहरी हैं। अतः जागरुकता यह पैदा की जाए कि व्यक्ति को लोभ, मोह को छोड़कर साहस एवं बलशाली होना चाहिए। यह विचार एवं भाव सभी जाते के अंदर से उमगे, तो ही भ्रष्टाचार रूपी महाकुरीति का उन्मूलन संभव है।


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