मदनमोहन मालवीय किसी अँग्रेज अफसर से मिलने जा रहे थे। अभी थोड़ी ही दूर पहुँचे थे कि रास्ते में पड़ी हुई एक निर्धन स्त्री दिखाई दी। उसके पाँव में घाव हो गए थे। मक्खियाँ काट रही थी, इससे उसे असह्य वेदना हो रही थी।
मालवीय जी ने अपनी घोड़ागाड़ी रुकवाई। स्वयं उतरे और उस स्त्री को उठाकर गाड़ी में बैठाकर अस्पताल की ओर चल पड़े। एक युवक ने यह देखा, तो दौड़-दौड़ आया और बोला, पंडित जी इस स्त्री को लाइए मैं अस्पताल पहुँचा देता हूँ। आप किसी आवश्यक कार्य से जा रहे है, वहाँ जाइए। आपका समय ज्यादा मूल्यवान है।
मालवीय जी ने कहा, यह कार्य ज्यादा आवश्यक है, मैं इसी के लिए जिंदा हूँ। यह कहकर उन्होंने गाड़ी आगे बढ़वाई और उस स्त्री को स्वयं अस्पताल पहुँचाकर आए।
गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद में जो चर्चा हुई है वह वस्तुतः हर व्यक्ति के अंतरंग पर लागू होती है। अर्जुन के व्यामोह को देख सूत्र संचालक भगवान श्रीकृष्ण सचेत हुए और बाहर से प्राणवान दीखने पर भी भीतर से दीन दयनीय, कृपण कायर की तरह व्यवहार कर रहे अर्जुन को धिक्कारा, उसे आत्मबोध का ज्ञान कराया। वस्तुतः यही आत्मबोध अर्जुन का दूसरा जन्म था। गाँडीवधारी अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से कहा-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥
उनका अंतः का ऊहापोह दूर हुआ और वे भगवान के निर्देशानुसार चलने को उद्यत हुए। यह आत्मबोधजन्य उपलब्धि है। अपना अंतः जिसे कहे, उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद, ईश्वरीय संदेश मानकर जब मनुष्य चल पड़ता है तो ध्येय प्राप्ति सुनिश्चित है।