श्री रामकृष्ण परमहंस के गले में नासूर हो गया था। इसी समय शशिधर चूड़ामणि उनके पास आए और बोले, “स्वामी जी! यदि आप अपने मन को एकाग्र करके कहें कि ‘रोग चला जा’ तो आपका रोग अवश्य मिट जाएगा।” परमहंस बोले, “जो हृदय मुझे सच्चिदानंद माँ का स्मरण करने हेतु मिला है, उसे मैं साँसारिक कार्य में क्यों लगाऊँ?” इस पर अनेक शिष्यों को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने मिल-जुलकर आग्रह किया कि आप माँ से कहें कि वह आपको रोग-मुक्त कर दें।
इस पर रामकृष्ण परमहंस मुस्करा कर बोले, “मैं ऐसी मूर्खता क्यों करूं? माँ दयामयी, सर्वज्ञ और सर्व-समर्थ हैं। उन्हें मेरे कल्याण के लिए जो उचित लगा, वही किया, फिर में उनकी व्यवस्था में छिछोरापन क्यों लाऊँ? अपना ओछापन क्यों बताऊँ?” महामानव अपनी संपदाओं को लोकहित में अर्पण करने के कारण ही महान बनते हैं।