युगगीता-23 - ये यथा माँ प्रपद्यन्ते ताँस्तथैव भजाम्यहम्

May 2001

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(गीता के चतुर्थ अध्याय ज्ञानकर्म संन्यासयोग की युगानुकूल व्याख्या)

चौथे अध्याय के दसवें श्लोक के अंतर्गत विगत अंक में एक महत्वपूर्ण प्रतिपाद दिया गया कि वीतराग हो जाने पर, भय व क्रोध पर नियंत्रण पा लेने पर, शरणगति भाव से तप करने वाले भगवान् के स्वरूप को ही प्राप्त हो जाते हैं। गीता आत्मानुशासन का शिक्षण करने वाली एक पाठ्य पुस्तिका है। भगवान् कहते हैं कि जो मेरे साथ एक भाव को प्राप्त हो जाते हैं, वे आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्ति पा लेते हैं। आसक्ति पर विजय-वीतराग होना कितने उच्चस्तर की सिद्धि है, इसका प्रमाण पिछले अंक में महात्मा बुद्ध के एक शिष्य, कुतुक ऋषि एवं शुकदेव जी के उदाहरणों द्वारा दिया गया। भगवान् के स्वरूप को जान लेने के बाद, एकत्व की सिद्धि प्राप्त करने के बाद जीवन में जो आनंद का सागर लहराने लगता है, वह अवर्णनीय है। ध्यान में परमात्मा की उपस्थिति मानकर जब कर्तव्य कर्मों का संपादन किया जाता है, तो क्रमशः वासनाओं का क्षय होने लगता है। दिव्य प्रेरणाएँ मिलती हैं एवं अलौकिक कर्म होने लगते हैं। ग्यारहवें श्लोक में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया कि ईश्वर एक प्रकार से आइना है, एक दर्पण है। भगवान् कहते हैं, "जो जिस भावना से मेरी उपासना करते हैं, उसी के अनुसार मैं उनकी कामनाओं को पूरा करते हूँ।" इसी बात को संत कबीर के एक दोहे द्वारा भी समझाया गया था। अब इसी श्लोक की व्याख्या के साथ आगे की यात्रा करेंगे।

योगेश्वर कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य चाहे जिस तरह से भगवान् को अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनंदित होते हों, भगवान् उन्हें उसी तरह अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनंदित होते हैं। "ये यथा माँ प्रपद्यंते ताँस्तथैव भजाम्यहम्" के पीछे यही तथ्य निहित है। यह इसलिए ही कहा जा रहा है कि सभी मनुष्य सभी प्रकार से प्रभु के बताए मार्ग का ही अनुसरण करते हैं (मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वषः)। यहीं हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता, सहनशीलता, सामासिकता का दिग्दर्शन हमें होता है। चाहे कोई भी उपासना-पद्धति हो, सभी साधनाएँ एक ही लक्ष्य उस अनंत सौंदर्य-आनंदस्वरूप-तत्त्वरूप परमात्मा की ओर ले जाने वाली पगडंडियाँ ही तो हैं।

मिलेगा आह्वान की तीव्रता के अनुपात में

यदि व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से देखा जाए, तो आह्वान का तरीका कुछ भी हो, यदि अनिवार्य शर्तें पूरी हो रही हैं, तो मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति निश्चित ही होती है। मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं। आवश्यकता है, तो केवल उसे अपने मन का अवलोकन करने की, वंचित तीव्रता व एकात्मता के साथ अपनी क्षमताओं का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करने की, फिर जो भी कुछ वह चाहता है, उसे मिलकर ही रहेगा, चाहे वह आध्यात्मिक ज्ञान हो अथवा साँसारिक उपलब्धियाँ। प्रत्येक को अपने आह्वान की तीव्रता के अनुपात में अपने कार्यक्षेत्र में सफलता मिलती है, लेकिन यह उपलब्धि होती प्रभु से ही है, मार्ग भले ही विशुद्धात्मा सर्वशक्तिमान् सत्ता ही क्यों न हो। प्रत्येक सफल कार्य, चमत्कारिक उपलब्धि कहीं भी किसी समय अर्जित किए जाते हैं, तो वह आत्मा के शुद्ध चैतन्य से ही प्रेरित होते हैं।

भगवान् की ग्यारहवें श्लोक में कही गई बात को अब सीधे-सादे ढंग में समझने का प्रयास करें, तो ऐसा कुछ निष्कर्ष निकलता है, सारी आसक्ति, भय और क्रोध को त्यागकर स्थिर मन से अपने ही स्वरूप का ध्यान करने वाले साधक परमात्मा के अनंत सौंदर्य का दर्शन कर पाते हैं। कुछ लोग अपनी मनोकामनाओं के वशीभूत हो उनकी आराधना करते हैं, तो उन्हीं की कृपा के बल के सफलता पाते हैं। निम्न स्वार्थ से ग्रसित लोग धन, सम्मान, इंद्रिय-भोगों की कामना करते हैं। उनकी भी इच्छाएँ पूरी होती चली जाती है। सारा खेल मन का है। आपने जैसी कामनाएँ कीं, वैसा ही मनोयोग बना, क्रियाएं हुई और फल की प्राप्ति हुई।

ठाकुर एवं आचार्य श्री के जीवंत उदाहरण

वर्तमान में हम देखते हैं भगवान् श्री रामकृष्ण देव एवं परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम आचार्य "ये यथा माँ प्रपद्यन्ते" जैसे श्लोक के जीवित भाष्य के रूप में अवतरित हुए हैं। जहाँ ठाकुर ने अपने जीवन में विभिन्न धर्मों, मार्गों, मतों तथा साधना-प्रणालियों का अवलंबन कर सिद्धि के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचकर दिखाया, वहीं पूज्यवर ने भगवत् प्राप्ति के सभी मार्ग हमारे समक्ष खोलकर रख दिए। उनने विभिन्न प्रकार की साधना-प्रणालियों का मूल गायत्री बताकर सभी को उसके मर्म को जीवन में उतारने को कहा, वह चाहे किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो। सभी पहुँचते विभिन्न मार्गों से एक ही केंद्रबिंदु की ओर हैं, यही निष्कर्ष पूज्यवर के जीवन-दर्शन के अमृत-मंथन से निकलता है। कभी वैदिक युग में ऋषियों के मुख से "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" निकला था, किंतु द्वापर में "ये यथा माँ प्रपद्यन्ते" की घोषणा के बाद इस उदार महावाक्य को उन्नीसवीं में जीने के लिए ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस को एवं बीसवीं शताब्दी में श्रीराम शर्मा आचार्य जी को आना पड़ा।

बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम आदि विभिन्न धर्मों के अभ्युदय और प्रधानता के कारण तथा विभिन्न देवताओं का उपासना अद्वैत, विशिष्ट द्वैत, द्वैताद्वैत आदि की साधना, षड्दर्शन-ज्ञान, कर्म, भक्ति, योग साधन, तंत्र आदि के मार्गों के प्रचलन के कारण विगत चार-साढ़े चार हजार वर्षों में एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न हुई। अनेक धर्म-मतों के अनुयायी राजशक्ति की सहायता से अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए परस्पर संघर्षरत हुए। "मेरा धर्म सत्य है" इस भाव से बहुत कुछ रक्त इस धरती पर बहा है। ऐसे में ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवन-साधना अवतरित हुई व उनने बता दिया कि सभी धर्म-मत सत्य हैं, अनंत मत-अनंत पथ हैं। इसीलिए तो श्री रामकृष्ण के संबंध में भाव-विभोर होकर स्वामी विवेकानंद कह उठते हैं, "उनका जीवन एक असाधारण प्रकाश स्तंभ है, जिसके तीव्र प्रकाश से लोग हिंदू धर्म के समाज अंग और आशय को समझ सकेंगे। ऋषि और अवतार जिस यथार्थ शिक्षा को देना चाहते थे, वह उसे अपने जीवन से दे गए हैं। शास्त्र-मतवाद मात्र हैं, परंतु वह थे उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति। यह व्यक्ति इक्यावन वर्षों के जीवन से पाँच हजार वर्षों का जातीय-आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करके भावी वंशधरों के लिए अपने को दृष्टाँत रूप बना गए है।" (श्रीमद्भागवत् गीता, स्वामी संपूर्णानंद जी, रामकृष्ण शिवानंद आश्रम बारासात पं बंगाल से उद्धत)।

एकता, समता, शुचिता, ममता

परमपूज्य गुरुदेव ‘अपनों से अपनी बात’ के अंतर्गत अखण्ड ज्योति जून 1969 की पंक्तियों में लिखते हैं, "नया युग कुछ आदर्शों को लेकर आ रहा है। एकता, समता, शुचिता और ममता, ये सत्प्रवृत्तियाँ जब उमगने और छलकने लगेंगी, तो आज प्रत्येक क्षेत्र में संव्याप्त विकृतियों अव्यवस्थाओं, उलझनों, कुंठाओं और समस्याओं को कोई कारण नहीं रह जाएगा। सर्वत्र सुख-शांति, प्रगति एवं समृद्धि भरली स्वर्गीय परिस्थितियाँ परिलक्षित होने लगेंगी। विवेक का तकाजा है कि धर्म की एकरूपता हो। समस्त विश्व का एक ही धर्म हो, मानवीय आस्थाओं और प्रक्रियाओं को जो पशुता के स्तर से ऊँचा उठाकर देवत्व की दिशा में विकसित कर सके, वही विश्वधर्म हो सकता है। अगले दिनों ऐसे ही विश्वधर्म का विकास होना है।"

परमपूज्य गुरुदेव भी अपने अस्सी वर्ष के जीवन में पाँच व्यक्तियों का जीवन जी कर गए एवं एकत्व कर समता का शिक्षण अपने जीवन से देकर गए। जिसने उन्हें जिस रूप में देखा, जैसी उनकी आराधना की, वैसा ही मिलता चला गया। यही सारी व्याख्या इस ग्यारहवें श्लोक की है, जो मनुष्य की सफलता-असफलताओं की, भौतिक-आध्यात्मिक उपलब्धियों की हमें कहानी सुनाती है।

गीता के चौथे अति महत्वपूर्ण इस अध्याय का अगस्त श्लोक ग्यारहवें का उत्तरार्द्ध भी कहा जा सकता है। भगवान् कहते हैं-

काड्क्षन्तः कर्मणाँ सिंद्धि यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥412

अर्थात् इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले देवताओं का पूजन करते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी उन्हें शीघ्र भी उन्हें शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है।

जाकी रही भावना जैसी

साँसारिक स्तर पर किए गए पुरुषार्थ सरत कई लोगों के पुरुषार्थ के पीछे प्रलोभन भी यही रक्त है यह कार्य सरल होने के कारण लोग सांसारिक लाभ और भौतिक सफलताओं के लिए दौड़ते हैं। गजन स्तर के प्रयासों की उनमें आवश्यकता नहीं है। आध्यात्मिक क्षेत्र में हर व्यक्ति को अकेले ही प्रयास करना पड़ता है, अपने प्रखर आत्मबल के संपादन द्वारा अपना आँतरिक सौंदर्य निखारना होता है। शारीरिक श्रम और प्रयास के बदले भगवान् दे भी सरलता से देते हैं, किंतु मानसिक नियंत्रण और अनुशासन अपेक्षाकृत अधिक कठिन है।

सामान्यतः देखने में यही आता है कि फल की आकाँक्षा से देवताओं की पूजा करते हैं। ऐसे व्यक्ति धन, ऐश्वर्य आदि पा भी लेते हैं, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि ऐसे फल मोक्ष की तुलना में अल्पकालिक-अस्थाई होने के कारण तुच्छ है। देवता निर्वाण नहीं दे सकते। यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। कैवल्य मुक्ति देने की शक्ति केवल परमेश्वर में ही है। इसीलिए निष्काम कर्म का फल अति महान् बताया गया है। इससे चित्त शुद्धि होकर भगवान् की प्राप्ति होती है। परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे,"अध्यात्म एक विज्ञान है। यह कहता है कि भगवान् से जब भी माँगो, कीमती चीज माँगो। कीमती होता है, व्यक्तित्व का परिष्कार-आत्मोत्थान। जबकि छोटी-छोटी उपहार प्रधान चीज पाकर संतुष्ट हो जाने वाला मनुष्य इसी को सब कुछ मान बैठना है।""गुरुवर की धरोहर परमपूज्य गुरुदेव के प्रवचनों पर आधारित पुस्तक है। इसके प्रथम भाग के एक प्रवचन में पूज्यवर कहते हैं, "आपको जिस आदमी ने यह बात सिखा दी है कि अध्यात्म देवी-देवताओं की खुशामद को कहते हैं, गुरु की खुशामद को कहते हैं, सिद्ध पुरुषों की खुशामद को कहते हैं और कमाई किए बिना, मेहनत किए बिना, चापलूसी से जीभ की नोंक की हेरा-फेरी करके, माला पहना करके, सवा रुपये दक्षिणा देकर के यह चीजें पाई जा सकती हैं, तो वह गलत आदमी था। आप उससे भी गलत आदमी हैं, जो ऐसी बातों पर विश्वास करते हैं। दुनिया कायदे पर बनी हुई, नियम पर टिकी है।"

सकाम और निष्काम के फलितार्थ

योगेश्वर श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन को इस सकाम और निष्काम के फलितार्थ बताकर उसे कर्मसंन्यास की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।"कर्मणा सिद्धिं जयते" कर्म से उत्पन्न होने वाली सिद्धि के बारे में वे बता रहे हैं कि चाहे प्रेत-पितरों की पूजा कर लो, चाहे देवी-देवताओं की, तामसिक व सात्विक सिद्धि मिल जाएगी, परंतु यह लौकिक स्तर की होगी। किंतु जब कोई भगवान् की इच्छा के अनुसार जीवन जाता है, तो उसकी आकांक्षा समाप्त हो जाती है। पूरे श्लोक का भाव है, आकाँक्षारहित होकर जीवनयापन करना।

जापान में एक संत इसुनू हुई हैं। कभी भोजन करतीं, कभी पंद्रह-पंद्रह दिन भूखी रह जातीं। शरीर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वे भगवान् से पूछतीं-भगवन् आज खाना खा लें, तो यदि उत्तर ‘हाँ’ में मिलता, तो वे खा लेती थीं। इसी प्रकार एक दिन उनने कहा कि आज मेरे प्रभु बुला रहे हैं एवं इतना कहकर अंतिम भोजन किया, शाम को शरीर स्वेच्छा से छोड़ गईं। यह है प्रभु समर्पित जीवन। यह सिद्ध महिला-संत भगवान् के लिए जीती थीं, खाती थीं और उनसे सीधा वार्तालाप करती थीं। हम उपवास करते हैं, तो गिन-गिनकर सतत उसका हिसाब लगाते रहते हैं। वह हिसाब से परे थे, इसीलिए उन्हें भगवत् प्राप्ति हो गई।

गुण-कर्म के आधार पर विभाजन

आगे तेरहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः। तस्य कर्तारमपि माँ विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥ 4/13

अर्थात् “गुणों और कर्मों के आधार पर चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना मेरे द्वारा ही की गई हैं। यद्यपि मैं उनका रचयिता हूँ, तथापि तू मुझे अविनाशी परमेश्वर को वास्तव में अकर्ता और अपरिवर्तनशील ही जान।”

भगवान् कहते हैं कि गुण-कर्मों के आधार पर चार वर्ण मेरे द्वारा बनाए गए हैं। यह विभाजन जाति के आधार पर नहीं है। कौन-कौन से हैं यह? जिन्हें ज्ञान की ललक है। जो सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसे सृष्टि में फैलाने का संकल्प लेकर आए हैं, परमात्मज्ञान को जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं, वे ब्राह्मण बनते हैं। शूद्र कौन? वह जिसकी श्रम करेंगे, तो धन आएगा। अर्थ शक्ति का प्रवाह फैलेगा, समाज के हर अंग तक पहुँचाया जाएगा। यह वैश्य का धर्म है। प्रभाव में वृद्धि हुई, सामर्थ्य बढ़ी, तो औरों की समाज के विभिन्न अंगों की रक्षा की ताकत भी आ गई। यह वर्ग क्षत्रिय कहलाएगा। इसके बाद जब साँसारिकता से ऊपर उठ जाते हैं और ज्ञान पाने की आकाँक्षा बढ़ने लगती हैं, तो ब्राह्मण कहलाते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव ने कहा, हम गायत्री के माध्यम से सभी को ब्राह्मण बनाएंगे। जो गायत्री को जीवन में उतारेगा, श्रम से शुरुआत कर अर्थ का नियोजन करना सीखेगा, उल्लास एवं शक्ति-सामर्थ्य का अर्जन करेगा एवं फिर ब्रह्म तत्व की प्राप्ति का प्रयास करेगा। वे कहते थे कि यदि आइंस्टीन आज होते, तो उन्हें ब्राह्मण कहा जाता। उन्हें क्रिश्चियन नहीं कहा जाता। परशुराम ब्राह्मण थे, पर कर्म से क्षत्रिय थे। गाँधी वैश्य थे, पर कर्म से ब्राह्मण भी थे व क्षत्रिय भी। पुरातन मान्यता रहीं है कि जो जिस जाति में जन्मा है, उसी में मरेगा। पूज्यवर ने कहा है कि ऐसा नहीं है। ब्राह्मणत्व एक सिद्धि है, जिसका राजमार्ग श्रम की साधना से आरंभ होना है एवं पराकाष्ठा तक पहुँचने पर ज्ञान की प्राप्ति होने तक चलता चला जाता है।

स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार, “ऐसा व्यक्ति जिसमें सात्विक भावनाएँ प्रबल हों, ब्राह्मण कहलाता है। इस श्रेणी में बौद्धिक, विचारक, वैज्ञानिक और अन्वेषक आते हैं रजोगुण गतिशीलता-सक्रियता का प्रतीक है। जब यह प्रधान हो, तमोगुण पर्याप्त हो, किंतु सत्वगुण न्यून हो, तो उन्हें वैश्य कहा जाता है। इनमें व्यापारी आदि आ जाते हैं। मंद और निम्न वासनाओं की प्रबलता तामसिक गुणों में गिनी जाती है। जब तमोगुण की प्रधानता हो, तो शूद्र कहे जाते हैं। इनमें कारीगर, मजदूर, श्रमिक आदि आते हैं। जब रजोगुण प्रधान, सत्वगुण पर्याप्त एवं तमोगुण न्यून हो, तो उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है। इनमें कर्मठ-सक्रिय लोग, राजनीतिज्ञ आदि आते हैं।”

जन्म से नहीं, कर्म से

चारों वर्णों का कारण जन्म विशेष नहीं है। आज जो जातिवाद की समस्या एक विष की तरह चारों ओर असमानता के रूप में बढ़ती दिखाई दे रही है, यह हमारे, मनुष्यों के निहित स्वार्थों के कारण पैदा की हुई हैं। भगवान् कहते हैं कि चारों वर्ण वासनाओं के स्वरूप (गुण) और कर्मों के प्रकार (कर्म) पर ही आधारित है। “वर्ण व्यवस्था मानव जाति का वैज्ञानिक, सार्वभौमिक, प्राकृतिक, मानसिक वर्गीकरण हैं, लेकिन तोड़ा-मरोड़ा, उलझा हुआ वर्ण धर्म और अनैतिक विकृतियाँ ये सब हमारे मन की कुरूपताएँ है।” यह स्वामी चिन्मयानंद जी की मान्यता है।

भगवान् इस सुप्रसिद्ध श्लोक में यह भी कहते हैं कि प्रत्येक हृदय का प्रकाशक चैतन्य तत्व होने के नाते वे निस्संदेह सब प्रकार के मानवी कर्मों के पीछे विद्यमान एक शक्ति के रूप में हैं, फिर चाहे वह पुण्य करने वाला हो या पापकर्म करने वाला, तथापि वे उसमें शक्ति होते हुए भी अकर्ता और अविनाशी ही हैं। माँ विद्धिः अकर्तारमव्ययम्। अपने भीतर की वासनाओं की अभिव्यक्ति ही हमारे बहिरंग में दिखाई देती है। भगवान् अपरिवर्तनशील हैं। उनकी ही दिव्य सत्ता सभी के हृदय में विराजमान हैं, चाहे वह पुण्यवान् हो अथवा पापी चांडाल। यह वासनाओं के परिशोधन एवं सतोगुणी प्रकृति के विकास पर निर्भर करता है कि कौन कहाँ तक पहुँच पाया। आध्यात्मिक विकासवाद की बड़ी सुँदर व्याख्या यहाँ भगवान् के श्रीमुख से प्रस्तुत हुई हैं।

वर्ण व्यवस्था का मूलभूत आधार

ऋग्वेद संहिता के पुरुष सूक्त के द्वादश ऋचा में आया है-

ब्राह्मणोस्य मुखम् आसीत, बाहू राजन्यः कृतः। ऊरुतदस्य यद् वैष्य, पद्भ्याँ षूद्रोऽजायत॥

अर्थात् “उस परम पुरुष ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र का जन्म हुआ।” इसका आशय यह है कि ब्राह्मण ज्ञान, धर्म और कर्म की शिक्षा देते हैं, इसी कारण वे मानव समाज के मुख स्वरूप हैं। जो लोग बाहुबल से समाज की रक्षा करते हैं, वे क्षत्रिय हैं और समाज के बाहु स्वरूप हैं। जो लोग समाज के अन्न-वस्त्र आदि का प्रबंध करते हैं, वे वैश्य हैं और समाज के उदर या उरुस्वरूप हैं। जो लोग समाज को गतिशील रखते हैं, सेवक हैं, वे समाज के पैरों के समान हैं। चारों में से किसी को भी नीचा या ऊँचा ऋषि ने नहीं कहा है। हाँ एक विकास की यात्रा कही है, जो श्रमप्रधान जीवन से आरंभ होकर ज्ञान प्रधान, तपप्रधान जीवन पर समाप्त होती हैं। चारों वर्ण ही समाज की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु सभी समय समाज में बने रहते हैं।

भगवान् ने इसी श्लोक में यह कहा है कि इन चतुर्वष का स्रष्टा होते हुए भी तू मुझे अविकारी, अकर्ता ही जान इसकी व्याख्या अगले श्लोक (चौदहवें) के साथ अब उत्तर प्रस्तुत की जाएगी, क्योंकि वहाँ भगवान् कहते हैं, कर्मफल में मेरी आकाँक्षा नहीं है, न ही मुझे कर्म लिप्त करते हैं। यह विस्तार से समझेंगे, अगले जून के अंक में।


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