प्रतिभाएं परमात्मा की देन होती हैं, ऐसा माना जाता है। इसी कारण हजारों में एक वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा विषय विशेष का निष्णात प्रकाँड पंडित बन पाता है। वस्तुतः परमपिता की यह कृपा बरसती सब पर एक साथ है, लाभ वे ही उठाते हैं, जो अपने विचार को रचनात्मक चिंतन एवं कर्तृत्व में नियोजित कर लेते हैं।
सम्राट पुष्यमित्र का अश्वमेध सानंद संपन्न हुआ और दूसरी रात को अतिथियों की विदाई के उपलक्ष्य में नृत्योत्सव रखा गया। यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि उस उत्सव में सम्मिलित हुए। महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखरी। उस समय तो उसने कुछ न कहा, पर एक दिन जब महर्षि योगदर्शन पढ़ा रहे थे, तो चैत्र ने उपालंभपूर्वक पूछा, “गुरुवर! क्या नृत्य-गीत के रस-रंग चित्तवृत्तियों के निरोध में सहायक होते हैं।”
महर्षि ने शिष्य का अभिप्राय समझा। उन्होंने कहा, “सौम्य! आत्मा का स्वरूप रसमय है। रस में उसे आनंद मिलता है और तृप्ति भी। वह रस विकृत न होने पाए और अपने शुद्ध स्वरूप में बना रहे, इसी सावधानी का नाम ‘संयम’ है। विकार की आशंका से रस का परित्याग कर देना उचित नहीं। क्या कोई किसान पशुओं द्वारा खेत चर लिए जाने के भय से कृषि करना छोड़ देता है? यह तो संयम नहीं पलायन रहा। रसरहित जीवन बनाकर किया गया संयम प्रयत्न ऐसा ही है जैसे जल का तरलता और अग्नि को ऊष्मा से वंचित करना। सो हे भद्र! भय मत करो।”