यम-नियमः स्वाध्याय - साधना में बोध और सजगता का समावेश

May 2001

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(1) गीता, रामायण, भागवत, महाभारत और उपनिषद् आदि ग्रंथों का नियमित पाठ या अध्ययन करना।

(2) प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाने वाले साहित्य का स्वाध्याय करना।

(3) ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ सूत्र के आधार पर अपनी समीक्षा करना।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि व्रतोँ से चेतना आध्यात्मिक उड़ान भरने की स्थिति में आती हैं। वह जितनी परिष्कृत और निर्मल होती जाती है, उतनी ही आँतरिक गहराइयों और जागतिक ऊँचाइयों को छूने लगती है। व्यावहारिक जीवन में जिन नियमों का अभ्यास किया जाता है, इस लेखमाला में जिनका दिग्दर्शन किया गया अथवा जो साधन संहिता सुझाई गई, उनका पालन करने से चेतना धीरे-धीरे निर्मल होती जाती है। लेकिन निर्मल होना अथवा उड़ान भरने की सामर्थ्य अर्जित करना ही पर्याप्त नहीं है। उड़ान, उत्कर्ष या विकास की दिशा क्या हो? यह भी महत्वपूर्ण है।

सिद्धि शक्ति मिल जाए और उपयोग के बारे में कुछ निश्चित नहीं हो तो उनका दुरुपयोग ही होता है। उपयोग नहीं किया जाए, तो वे व्यर्थ ही पड़ी और विकृत होती रहती हैं। धन की तरह सिद्धि सामर्थ्य की भी तीन ही दशाएँ हैं, उपयोग दुरुपयोग और संचय से निष्क्रियताजनित नाश। अहिंसा से तप तक यम नियमों के आठ अंग बता देने के बाद महर्षि पतंजलि ने नवाँ अंग स्वाध्याय बताया। मनीषियों ने स्वाध्याय की तुलना दर्शनेंद्रिय से की है, जो व्यवहार जगत् में देखती और अच्छा-बुरा समझकर देहपुरी के स्वामी को तदनुसार चलने का निर्देश देती है। देखने समझने की इस क्षमता को सक्रिय समर्थ बनाए रहने के उपाय का नाम है ‘स्वाध्याय’।

स्वाध्याय का मोटा अर्थ सत्शास्त्रों का अध्ययन है शाब्दिक अर्थ अपने आपका अध्ययन भी है। अपने आप के बारे में कोई पहचान या समझ अनायास ही नहीं आ जाती। वह मार्गदर्शक सत्ता से प्राप्त हुई हो, पिछले जनम के संस्कारों से उदित हुई हो या ईश्वर के अनुग्रह से जाग्रत हुई हो, तभी प्राप्त होती है। यह स्थिति ऊँची अवस्था में पहुँचे और किन्हीं कारणों से भटक गए साधकों को ही सुलभ होती है। भटकते रहने पर किसी घड़ी में कोई शुभ संस्कार जाग्रत होता है, तो अचानक ‘संबोधि’ का उदय होता है। वह क्षण दुर्लभ है और उसकी प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे नहीं रहना चाहिए।

साधकों के लिए निर्देश है कि गीता, रामायण, भागवत, महाभारत और उपनिषद् आदि ग्रंथों का नियमित पाठ करें। इसी शृंखला में अगला परामर्श प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा सत्साहित्य का अध्ययन करने के लिए ही गीता, रामायण, आदि ग्रंथों को शास्त्र कहा गया है। शास्त्र अर्थात् जो साधकों का शासन करते हैं, उन्हें व्यवस्थित होने की दिशा देते हैं। सभी धर्म-संप्रदायों में एक या एक से ज्यादा शास्त्र हैं। ये उस परंपरा में बहुत आगे तक गए साधकों या सिद्धजनों के अनुभव से निकलकर आए हैं। उनका अध्ययन मनन अनुयायी को साधना परंपरा में आगे बढ़ने के लिए शक्ति और प्रेरणा देता है। यहाँ गीता-रामायण आदि ग्रंथों का परामर्श कुछ विशेष कारणों से दिया गया है। गिनाए गए शास्त्रों को दो वर्गों में रख सकते हैं। एक तत्वदर्शनप्रधान और दूसरे कथानकप्रधान। गीता, उपनिषद् सूत्र आदि शास्त्र तात्विक है। रामायण, महाभारत और भागवत आदि ग्रंथों एक कथानक चलता है, जिसमें कई उपकथाएँ होती और उनके बीच में सिद्धाँत या व्यवहार का निरूपण होता है।

तात्विक ग्रंथों में भगवद्गीता का स्थान सर्वोपरि है। सात सौ श्लोकों के इस ग्रंथ में भारतीय दर्शन ही नहीं विश्व की सभी धर्म परंपराओं का तत्वज्ञान समाहित है। ज्ञान, भक्ति, कर्म, सदाचार, संन्यास, गृहस्थ, श्रद्धा तर्क, आत्मविद्या, समाज शास्त्र, व्यवस्था, राजनीति आदि विषयों का सूत्र रूप में आवश्यक मार्गदर्शन इस शास्त्र के उपदेश्यों ने कर दिया है। वर्णाश्रम धर्म के उपदेश से समाज शास्त्र युद्ध की अनिवार्यता और न्याय के लिए सन्नद्ध रहने के आशय से राजनीति, सात्विक तप और दैवी संपदा आदि के विवेचना से नैतिकता की विलक्षण समग्र प्रेरणाएँ इस शास्त्र में भरी हुई हैं।

सैकड़ों वर्षों से अकेला गीताशास्त्र धर्म दर्शन का समग्र संदेश दे रहा है। समय समय पर इस शास्त्र की युगीन व्याख्याएँ भी की जाती रही है। समय की आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार उन व्याख्याओं को समाज ने स्वीकार भी किया। मूल प्रेरणा एक ही है, “उद्वेरदात्मनाऽत्मानं” अपने आप अपना उद्धार करो। साधकों को इस शास्त्र के नियमित पाठ और भावों के चिंतन मनन की प्रेरणा इसलिए दी जाती है कि वे इसकी सहायता से अपने अंतर्जगत में प्रवेश करें। बिना किसी के बताए सिखाए लाखों लोग आज भी गीता के एक-एक अध्याय का नियमित पाठ करते हैं।

विकल्प के रूप में या गीता के साथ साधक उपनिषदों का अध्ययन भी कर सकते हैं दोनों ग्रंथों में अंतर नहीं है, कथ्य दृष्टि से गीता और उपनिषद् एक ही बात कहते हैं। आयाम और अनुभूति का क्षेत्र बदल जाने से शैली में अंतर हो सकता है। गीता को शास्त्रकारों ने सभी उपनिषदों का निचोड़ कहा है। वेदव्यास ने इसकी उपमा गौ के दुग्ध के रूप में देते हुए उपनिषदों को गायें कहा है, जिन्हें पार्थ रूपी बछड़े के लिए दुहकर श्रीकृष्ण ने साधकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। लेकिन जिन्हें भगवद्गीता से संतोष नहीं है या जो अपना अध्ययन मनन का क्षेत्र और व्यापक रखना चाहते हैं, वे चाहें तो उपनिषदों का अध्ययन भी कर सकते हैं।

सत्साहित्य का अध्ययन ‘स्वाध्याय’ की अगली कड़ी है। आत्मविकास को दिशा देने और जीवन की गुत्थियाँ सुलझाने वाला साहित्य पढ़ने के लिए कम से कम आधा घंटा तो लगाना ही चाहिए। किस साहित्य को सत समझें और किसे असत्? इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। जिसे पढ़ने से मन में आशा, उत्साह, स्फूर्ति, ऊर्जा और गुत्थियों को सुलझाने वाली दृष्टि का उदय हो, वह सत्साहित्य है। मनोरंजन, सूचना और देश काल की घटनाओं से परिचित रखने अथवा जीविका चलने का व्यवसाय में प्रगति करने वाला या सिखाने वाला साहित्य का अध्ययन इस श्रेणी में नहीं होगा। उसे पढ़ने की मनाही नहीं है, जितना आवश्यक हो उतना और उससे भी ज्यादा ऐसे संपर्क में रहे। स्वाध्याय का अर्थ उससे अलग है और वह सिर्फ आत्मचेतना के विकास में सहायक होने की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। इतना नहीं होगा कि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा लिखा गया सृष्टि या स्वयं सिद्ध और उत्कृष्ट श्रेणी की निधि है। साधना उपासना का प्रभाव हो रहा है या नहीं, इस सही दिशा में बढ़ रहे हैं या नहीं अथवा यथास्थिति ही बनी हुई है? यह जानने का उपाय समीक्षा के सिवा कोई नहीं हो सकता। साधना के क्षेत्र में जो भी पुरुषार्थ किया जाता है, उसका उद्देश्य अपने आपको ऊपर उठाना है। संत महात्माओं की प्रेरणा के अनुसार यह कार्य परमात्मा को पाना अथवा अपने क्षुद्र अहं को विराट चेतना में घुला मिला देना है। अपनी स्थिति की निरंतर समीक्षा की जाती रहे, तभी पता चलता है कि प्रगति हो रही अथवा नहीं? निश्चित और सुदृढ़ प्रगति अनायास नहीं हो जाती, न ही वह क्षण भर में घट जाने वाला चमत्कार है। अहंकार धीरे धीरे ही पोषण पाते हैं, आज जो ग्रहों किया जा रहा है। उसका स्थायी प्रभाव एक निश्चित अवधि बीतने पर ही पता चलता है। आज थोड़ी सी साधना कर लें और तीव्रता या मंद अभ्यास के अनुसार उसका प्रभाव देखने के लिए देर तक बैठे रहे, तो जीवनभर साधना करते हुए भी प्रगति नहीं होगी।

गायत्री परिवार के साधकों को आत्मसमीक्षा के लिए “हर दिन नया जनम और हर रात नई मौत” का एक ललित सूत्र आरीं से ही उपलब्ध है। सुबह उठते ही नया जन्म होने का बोध जगाना और दिनभर की योजना बनकर सूत्र का पूर्वार्द्ध है। इसमें अपने ईष्ट, ईश्वर या अस्तित्व अनुग्रह मानते हुए उन नियमों पर नजर दौड़ानी चाहिए, साधन संहिता में अंगीकार किए गए है। संकल्प करना चाहिए कि इनका यथाशक्ति पालन करेंगे। जानबूझ उल्लंघन नहीं होने दिया जाएगा इसके बाद दिनचर्या निर्धारण किया जाए और पूरे समय मनोयोग के साथ उस नियोजित रहा जाए।

ललित माँत्र का उत्तरार्द्ध सोने से पहले के लिए उस समय दिन भर के कामों की समीक्षा साधना संहिता पालन में हुई चूकों का पकड़ना और दोबारा उन्हें न होने देने का संकल्प करना चाहिए। समीक्षा के बाद आज का जीवन पूरा हुआ। जीवन यज्ञ में एक दिवस आहुति दी गई। अगले दिन और उत्कृष्ट आहुति प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि ध्यान रखें कि साधन संहिता का उल्लंघन हुआ तो प्रायश्चित भी किया जाए। प्रायश्चित में कोई छोटा या कोई कम निश्चित किया जा सकता है।


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