अल्लाह का कैदी जा मिला उन्हीं से

May 2001

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संत मंसूर का जन्म ईरान के बैजर गाँव में हुआ था। शिक्षा ईराक में हुई। पढ़-लिखकर जब वह समझदार हुए, तो ईरान वापस चले गए। अब उन्हें किसी योग्य गुरु की तलाश थी। भटकते-भटकते एक दिन वह शूस्तर नामक शहर जा पहुँचे। उन दिनों वहाँ सुहेल बिन अब्दुला का बड़ा नाम था। वे अपने जमाने के पहुँचे हुए सिद्ध संत थे। अध्यात्म विद्या में उनका कोई सानी नहीं था। लोग उनकी शगिर्दी के लिए तरसते थे। सुहेल बिन अब्दुल्ला चेहरा देखकर ही भाँप लेते थे कि किसमें कुछ पाने की कितनी तड़प है। उनके पास भरपूर दमखम वाला ही टिक सकता था।

मंसूर इन्हीं संत के सामने घुटने टेककर रहम की भीख माँगने लगे। संत ने अपनी आँखें ऊपर उठाईं, मंसूर की आँखों में से पानी का स्त्रोत फूट रहा था। संत ने उन पतीली आँखों में से काफी कुछ खोज लिया। वे मंसूर के मन की गहराइयों तक जा पहुँचे। दुआ कबूल हो गई। मंसूर सुहेल बिन अब्दुल्ला के शागिर्द हो गए। वह अपने पीर से पूरे 18 साल तक अध्यात्म विद्या सीखते रहे । जब वह निपुण हो गए, तो सुहेल ने उन्हें जाने की इजाजत दे दी। मंसूर भी अपने पीर का प्रचार करने अरब और ईराक की ओर चल पड़े।

बगदाद में उन दिनों सूफी संतों का बहुत जोर था। अबुल हसन सूरी और जुनैद बगदादी उन दिनों वहाँ के ख्याति प्राप्त संत थे। उनकी चर्चाएँ काफी दूर-दूर तक फैली हुई थीं। मंसूर भी इन संतों के साथ में रहने लगे।

उन्हें इन संतों के पास रहते-रहते पाँच वर्ष बीत गए। एक दिन जुनैद बगदादी बोले, मेरे बच्चे ! तू जो सीख गया, वह काफी है। तू उसी की तकसीम कर।

मंसूर बोले, मेरे हुजूर ! अभी तो मैं कुछ जानता ही नहीं।

क्या करेगा अब और जानकर। मैंने तेरी आँखों में इबारत पढ़ कर ली है। चिंगारियाँ फूट रही है, पर बुझ जाती है। मेरे बच्चे ये अच्छे शकुन नहीं होते।

मंसूर बेचैन हो उठा। बोला, हुजूर क्या होता है इसका मतलब ?

अब वह घड़ी आ गई है, जब तेरे ऊपर वतन के मुल्लाओं और मुफ्तियों का कहर बरसेगा।

युवक मंसूर तड़प उठे, बोले, नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। बगदादी बोले, मेरे बच्चे! अल्लाह के करम पर क्या कोई कैद लगा सकता है। मुझे साफ दीख रहा है, एक लकड़ी का पैना सिरा धीरे-धीरे तेरी ओर सरकता चला आ रहा है। वह सिरा तेरे खून से रंगने के लिए बेचैन हो रहा है।

मंसूर को यह बहुत बुरा लगा। बोला, हुजूर! मैं नहीं चाहता कि आपके शागिर्द का यह हश्र हो। पर देख लेना मेरे हुजूर, अगर मैं सूली पर चढ़ गया, तो उससे पहले आपको अपना चोला बदलना पड़ेगा।

और उन्होंने एक दिन बगदाद छोड़ दिया। खुरासान, ईरान, सीस्तान, फारस, बसरा और न जाने वे कहाँ-कहाँ घूमते रहे। इस्लाम का प्रचार करते हुए वे एक दिन मक्का जा पहुँचे। जिस समय वे मक्का पहुँचे, उस समय लगभग चार सौ प्रतिष्ठित एवं विद्वान शेख उनके शागिर्दों में थे। इससे उनके अनुयायियों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

वह अब संत मंसूर हो गए थे। उन्हें मक्का बहुत भाया। चौबीस घंटे में नमाज की चार सौ आयतें पढ़ते, तब कहीं उन्हें तसल्ली होती। कंपकंपाती सरदी और पिघलाने वाली धूप में मंसूर काबा की ओर मुँह किए पूरे एक साल तक खड़े रहे। दिनभर रोजा रखते और जब खोखते तो सिर्फ एक ही रोटी नसीब होती।

संत मंसूर अब पूर्णरूपेण तप चुके थे। जब उनका मन मक्का से ऊब गया, तो भारत होते हुए वे चीन जा पहुँचे चीन में वह इस्लाम का भरपूर प्रचार करते रहे। जब चीन से मन भर गया, तो फिर मक्का वापस आ गए। अब मंसूर, मंसूर नहीं रह गए थे। मस्ती के आलम का रंग पक्का पड़ा गया था। वे अब समाधि और तल्लीनता की स्थिति में आ गए थे। बेहद मस्ती का आलम था। बस अब तो उन्हें केवल एक ही रट लगी थी, ‘अन अल हक’ (अहं ब्रह्मास्मि)। अद्वैत पूरी तरह उनके मानस में रम गया था। जहाँ जाते, वहीं वे कहते, मैं वहीं हूँ जिसे मैं चाहता हूँ। जिसे वह चाहता है वह भी मैं ही हूँ। हम दोनों एक ही हैं।

कुछ दिनों के बाद मंसूर मक्का छोड़कर बगदाद आ गए। उनके आते ही मुनियों और मौलवियों की सत्ता हिल उठी। मौलवी भड़क उठे और जोर से चीत्कार उठे, मंसूर काफिर है। यह कुफ्र का कलमा पढ़ने लगा है। इस्लाम खतरे में है। यह काफिर हम सबका ईमान बिगाड़ रहा है।

खिलाफत का यह तूफान दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा, पर मंसूर इस तूफान से बिलकुल अनभिज्ञ थे। वह तो लगातार अन-हल-हक की रट लगाए हुए थे। उन्हें यह तक पता नहीं था कि उन्हें काफिर करार दिया गया है और कैद एवं काल उनका इंतजार कर रहा है।

मंसूर के किस्से और मुल्लाओं की चीख खलीफा के दरबार तक जा पहुँची। मुल्लाओं को खलीफा के सामने पेश कर दिया और बोला, हुजूर! काफिर मंसूर जो कुछ कर रहे हैं, उसके ये लोग चश्मदीद गवाह है।

खलीफा ने चारों ओर नजर दौड़ाई और पूछा, मंसूर कहाँ हैं?

उनको नहीं बुलाया गया है। वजीर ने बताया।

हम एकतरफा बयान सुनने को तैयार नहीं है। मंसूर को भी पेश किया जाए। खलीफा उठकर चल दिया। सभी अवाक् रह गए।

दूसरे दिन मंसूर को भी खलीफा के सामने पेश किया गया। सभी एक ओर थे, मंसूर बिलकुल अकेले थे।

एक मौलवी आगे बढ़ा और बोला, हुजूर! यह काफिर इस्लाम के खिलाफ बोलता ही नहीं, लिखता भी है।

खलीफा ने कहा, है कोई ऐसी तहरीर, जो इसने इस्लाम के खिलाफ लिखी हो?

मौलवी ने एक किताब खलीफा के सामने रख दी, यह देख लीजिए, हुजूरे आला।

तहरीर बेशक इस्लाम के खिलाफ थी। उसे देखते हुए खलीफा बोले, ये इबारत तुमने शरीअत के खिलाफ क्यों लिखी?

यह इबारत मेरी अपनी नहीं है। इसे तो मैंने एक किताब से नकल किया है। मंसूर ने निडरतापूर्वक अपना पक्ष रखा।

कजी उमरम भी वहीं बैठे थे। तुरंत बोले, यह गलत है हुजूरे आला। मैंने सारी किताबें पढ़ी हैं, किसी में भी ऐसा नहीं लिखा।

सब एक स्वर से बोल पड़े, मंसूर झूठा है, उसे सूली पर चढ़ाया जाए।

दूसरा मौलवी बोला, हुजूरे आला! यह मंसूर मजहब में ही नहीं, सियायत में भी दखल देता है। लोगों से कहता है कि सल्तनत की सारी जमीन मेरी है। सब लोग जमीन बाँट लो। हुजूर! इस तरह तो यह शख्स सल्तनत को बहुत माली नुकसान पहुँचाएगा।

वजीर बोले, हुजूर! मेरी राय में मंसूर को कैद में डाल देना चाहिए। वह काफिर है।

खलीफा शांत हो, हाथ ऊपर उठाकर बोले, नहीं! मंसूर काफिर नहीं है। तुममें से है कोई ऐसा, जो मंसूर की बराबरी कर सके?

कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया। सभी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।

खलीफा पुनः बोले, यूँ क्या देख रहो हो?

जब तुम लोग इतने काबिल नहीं हो तो तुम्हें मंसूर को सजा देने का क्या हक है? मजहब का मामला है। इस पर फैसला हम नहीं कर सकते। इसका फैलता सिर्फ शेख जुनैद बगदादी ही कर सकते हैं। वे हम सबसे काबिल हैं। हम उनके फैसले की इज्जत करेंगे।

बगदादी वहीं बैठे थे। वे इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे। अतः वे अब तक खामोश ही बैठे थे। उन्होंने बहुत टालने की कोशिश की, पर वजीर अब्बास नहीं माना। एक तरफ ले जाकर न जाने क्या-क्या समझाते रहा। बगदादी पशोपेश में पड़ गए। हारकर उन्होंने सूफियाना लबादा उतार दिया और आलिमाना जबादा पहन लिया और बोले, ‘अल्लाह’! फिर दोनों कान पकड़ लिए। कुछ क्षण तक आँखें बंद किए खड़े रहे। आँखें खोली तो वजीर अब्बास का क्रूर चेहरा उन्हें घूरता नजर आया। बगदादी सहम गए। बोले, जाहिर के लिहाज से मंसूर को कत्ल का फतवा दिया जा सकता है। अंदर का हाल तो अल्लाह ही बखूबी जानता है।

मंसूर जोर से अट्टहास करने लगे। चिल्लाकर बोले, हुजूर! आज मेरी बात सही निकली। याद है एक दिन मैंने क्या कहा था आपसे। बदलना पड़ा न आपको अपना सूफियाना चोला।

बगदादी कुछ बोल न सके। बाहर शून्य में ताकते रहे। मंसूर को कैद में डाल दिया गया। खलीफा मंसूर को सूली पर चढ़ाना नहीं चाहते थे। उन्होंने सुलेमान नामक एक विश्वासपात्र सेवक मंसूर के पास भेजा। अगर मंसूर माफी माँग ले तो उसे रिहा किया जा सकता है।

लेकिन मंसूर तो मस्ती के आलम में थे। बोले, कौन माफी माँग ले?

मंसूर!

मंसूर मुस्कराए और बोले, कहाँ है मंसूर? मुझे तो वह दिखाई ही नहीं देता। मुझे तो हर ओर प्रपंच, झूठ के सिवाय कुछ नजर ही नहीं आता। मंसूर मरता है, तो मरने दो उसे। मेरा क्या बिगड़ेगा?

सुलेमान हार मानकर चला गया।

मंसूर कैदखाने में खामोश नहीं बैठे रहे। वहाँ वे कैदियों को इकट्ठा करते और तरह-तरह के चमत्कार दिखलाते। एक दिन सुहेल नाम का कैदी बोला, जब आप इतने चमत्कारी है, तो यहाँ क्यों आए? आप भाग क्यों नहीं जाते?

तुम भागना चाहते हो क्या? मंसूर ने पूछा।

यहाँ भला कौन रहना चाहेगा?

मंसूर ने दीवार की ओर संकेत किया। चूने से जड़ी पत्थर की दीवार भरभराकर गिर पड़ी। मंसूर चिल्लाया जा...ओ...भाग...जाओ.... जल्दी से चले जाओ........।

सब कैदी भाग गए। सिर्फ एक कैदी रह गया। वह असमंजस में पड़ा हुआ सब कुछ आश्चर्यचकित होकर देख रहा था।

पगले! तू यहाँ क्यों खड़ा हैं? भाग क्यों नहीं जाता। उस समय तो कह रहा था कि सब भागना चाहते हैं, अब क्यों नहीं भाग जाता? मरना है क्या? मंसूर बोले।

नहीं! मैं नहीं जाऊँगा।

क्यों?

जब तक आप नहीं चलेंगे, मैं भी नहीं चलूँगा।

मंसूर ने उसे समझाया, पगले! समझदारी से काम लो, यह खलीफा की जेल हैं और तुम सब खलीफा के कैदी हो। मैं खलीफा का कैदी नहीं हूँ, अल्लाह का कैदी हूँ। मैं यहाँ से भागकर कहाँ जाऊंगा? अल्लाह की कैद से बच सकता हूँ क्या? तू जा.... भाग..... जा.......। कैदी चुपचाप चला गया।

मंसूर के और जुर्म तो शायद माफ हो जाते, पर खलीफा की जेल से कैदियों को भगा देना तो संगीन जुर्म था खलीफा ने मंसूर को सूली पर चढ़ाने के आदेश दे दिए।

24 जी क्राद, हिजरी सन् 39 का वह दिन था। जब संत मंसूर को सूली की ओर ले जाया जा रहा था। उन महान् संत के पीछे-पीछे जनसमूह उमड़ पड़ा। इतनी भीड़ कि शुमार करना भी मुश्किल था। मंसूर मस्ती के आलम में चले जा रहे थे। चेहरे पर शिकन तक न थी। मंसूर संपूर्ण शरीर से दिव्य तेज फूट रहा था। वातावरण में ओर ‘अन अल हक’ गूँज रहा था। सूली पर चढ़ाए गए मंसूर की देह तो निःशब्द हुई, पर आत्मा के स्पंदन सब ओर फैल गए।


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