दुग्धा का बलिदान

May 2001

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भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक अमर बलिदानी हुए हैं, जो इतिहास के पृष्ठों पर आने से रह गए। देशभक्ति की भावना से किया गया बलिदान गौरव की और इतिहास पुरुषों की ध्येय साधना में उस निष्काम साधक की कहानी भी प्रकाश में आ पाई। घटना महाराणा प्रताप के जीवनकाल की है। जब वह मुगल सेनाओं से अपने देश की रक्षार्थ संघर्ष करते हुए स्वातंत्र्य की यज्ञवेदी पर अपने सर्वस्व का होम कर जंगलों और पहाड़ियों में छिपकर कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे और भविष्य के अपने ध्येय की पूर्ति के प्रति चिंतित थे।

बड़े जंगल के साथ सटा हुआ यह एक पहाड़ी इलाका था। उसमें इस गाँव में बसी लगभग 3-4 झोंपड़ियाँ थीं। सायंकाल के समय उस दिन आकाश में घनघोर बादल छाए हुए थे। जिससे संपूर्ण पहाड़ी क्षेत्र अंधकार के आँचल में सिमटा हुआ था। एक झोंपड़ी में एक बालक माँ को रोटी बनाते देखकर मुँह में बार-बार जीभ चला रहा था। यही कोई 12 वर्ष के आस-पास उसकी आयु होगी। भूख की व्याकुलता से उनका दिल कह रहा था कि बन रही रोटी तुरंत ही उसे प्राप्त हो, चाहे वह कच्ची ही क्यों न हो? पितृविहीन बालक को तीन दिन के पश्चात रोटी नसीब हो रही थी, ऐसे में उसकी व्याकुलता की सीमा क्या होगी, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है? अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंधा और उसने भोलेपन से माँ ने पूछा, “माँ! महाराणा प्रताप कई दिनों से ऊपर पहाड़ी पर छिपे हुए हैं। चारों तरफ से उन्हें शत्रुओं ने घेरा हुआ है। वह भोजन कैसे करते होंगे?”

माता का हृदय उस बालक के उद्गार सुनकर प्रसन्न हुआ, परंतु अगले ही क्षण वह चिंतित होकर बोली, “बेटा! न जाने कैसी हालत होगी उनकी? कई दिनों से उन्हें भोजन तो क्या अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ होगा?”

“माँ!उनके छोटे बच्चे भी हैं न?”

“ हाँ।”

“वे भी तो भूखे होंगे। मेरी तरह।”

“हाँ ..... वे भी भूखे होंगे।

बालक किसी गहन सोच में डूब गया। पलभर पहले जो भूख की व्याकुलता उसे सताए हुए थी, वह विलुप्त हो गई और उसका चेहरा एक प्रदीप्त आभा से दमक उठा।

“माँ! मैं यह रोटी महाराणा प्रताप और उनके बच्चों को देने पहाड़ी पर जाऊँगा।”

माँ का मातृत्व पिघल उठा। एक ही सहारा था उसका। इकलौती संतान वह भी मौत के मुख में जाने के लिए आतुर थी, परंतु उसका विचार महान था। देश की रक्षार्थ वैभवविहीन वनों में आपत्तियों से संघर्ष कर स्वातंत्र्य देव की आराधना कर रहे महाराणा प्रताप और उसके बच्चों का भूख से आकुल चेहरा मन मस्तिष्क में घुस गया। वह बालक के सिर पर स्नेह के हाथ फेरते हुए बोली, “लेकिन बेटा चारों ओर तो शत्रुओं का पहरा है। रोटी देने कैसे जाओगे?”

बालक ने कहा, “माँ! “इस समय चारों ओर अंधकार छाया हुआ है। कुछ दिखाई नहीं दे रहा होगा। मैं पहाड़ी रास्तों से पूर्णतः परिचित हूँ। जिससे मुझे उनकी आँखों से बचकर निकल जाने में सफलता प्राप्त होगी बस माँ! तुम्हारे आशीर्वाद की आवश्यकता है।”

माँ ने उस अदम्य साहसी बालक को अपने हृदय से लगा लिया और आँसुओं की एक अविरल धारा उसके नेत्रों से बह निकली। यह मौन स्वीकृति थी उस माँ की, जो अपनी एकमात्र संतान को देश पर निछावर होने को प्रेरित कर रही थी।

रोटियों की पोटली बाँधकर ज्यों ही वह बालक झोंपड़ी से बाहर निकला, उसी समय जोर से बादल गरजे, बिजली चमकने लगी, और मूसलाधार बारिश होने लगी। परंतु वह बालक अपने ध्येय के मार्ग से बिल्कुल विमुख न हो, बाधाओं का बहादुरी से सामना करने का निश्चय कर, अविचल भाव से अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ चला।

पहाड़ी के पथरीले रास्तों पर वह नंगे पाँव धीरे-धीरे सरककर शत्रु के जाल को तोड़ता हुआ आगे बढ़ गया। पैर लहूलुहान हो रहे थे। शरीर पर अन्य कई जगहों पर घाव हो गए थे। परंतु वह उनकी परवाह न कर लगातार आगे बढ़ता रहा।

अचानक जोरों से बिजली चमकी। नीचे से आते हुए मुगल सैनिक ने एक परछाई को ऊपर जाते हुए देखा। अंदाज से अपनी कटार निकालकर अंधकार में फेंक दी। वार बालक की पीठ पर जाकर लगा। परंतु उसने अपने मुँह से कोई चीख न निकाली। एक क्षण भी विचलित न होते हुए उसने नीचे की तरफ सिपाही को लक्ष्य बनाकर एक पत्थर लुढ़का दिया और अगले ही क्षण एक चीख वातावरण में तैर गई, लेकिन वह चीख बादलों की गड़गड़ाहट में दबकर रह गई।

असह्य दर्द को अपनी देश भक्ति के जस्ते से सहन करता हुआ, गिरता पड़ता वह गंतव्य स्थान पर जा पहुँचा। बाहर से द्वार पर दो-चार थपकियाँ देकर वह औंधे मुँह नीचे जमीन पर गिर पड़ा।

आवाज सुनकर महाराणा प्रताप द्वार खोलकर सन्नद्ध अवस्था में बाहर आए। मशाल की धीमी रोशनी में उन्होंने देखा कि एक बालक घायल अवस्था में पड़ा है। रोटियों की पोटली हाथ में बड़ी सख्ती से भींची हुई है। चेहरे पर कार्य को संपूर्ण करने की सफलता की एक दीप्त आभा प्रस्फुटित हो रही थी।

महाराणा प्रताप को पूरी बात समझने में देर न लगी। बालक ध्येय की वेदी पर शहीद हो चुका था। महाराणा प्रताप ने स्नेह से उसका मस्तक चूम साश्रुनयनों से श्रद्धाँजलि अर्पित करते हुए उस निष्काम योगी को चिर विदाई दी।

भारतमाता के उस अमर सपूत का नाम था दुग्धा। कितना दिव्य था लक्ष्य की बलिवेदी पर उसका बलिदान? जिसने स्वयं को राष्ट्रीय भावनाओं के लिए निछावर कर दिया।


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