शिष्य संतुष्ट (kahani)

May 2001

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दो संत तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। एक विशालकाय वृक्ष के नीचे उन्होंने आश्रय लिया और आगे बढ़े। पर्यटन के उपराँत अगले वर्ष जब वे वापस लौटे, तो उन्होंने पाया कि जिस सघन वृक्ष की छाया में उन्होंने भोजन किया था, विश्राम किया था, गिरा पड़ा है। पहले ने अपने से वरिष्ठ संत से पूछा, महात्मन्! यह कैसे हुआ कि इतनी अल्प अवधि में यह वृक्ष गिर गया है? संत बोले, तात्! यह वृक्ष छिद्रों के कारण गिरा है। प्राण था इसका जीवन रस, जो गोंद रूप में सतत बहता रहा। उसे पाने की लालसा में मनुष्य ने उसमें छेदकर उसे खोखला बना दिया। खोखली वस्तु कभी खड़ी नहीं रह सकती। झंझावातों को सहन न कर पाने के कारण ही इसकी यह गति हुई हैं

शिष्य ने गुरु से पूछा, देव! आप कहते हैं कि सारी संपदा इस जगती में भगवत् प्रदत्त हैं, पर हम दैनंदिन जीवन में देखते हैं कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से संपत्ति एकत्र करता है, जबकि भगवान् की उपासना, पूजा-अर्चना, प्रार्थना-मनुहार का तो उसमें कोई योगदान भी नहीं होता। गुरु बोले, “वत्स! यदि मनुष्य के पास भगवान् की दी हुई दैवी संपदा-समय, श्रम व सुदृढ़ स्वास्थ्य न हो तो वह संपत्ति जिसे तुम पुरुषार्थजन्य कह रहे हो, कभी एकत्र नहीं कर सकता। यदि पूर्व में दैवी संपत्ति का उपयोग कर साधनसंपन्न बन भी जाता है, तो यह नहीं मानना चाहिए कि वह अपना उद्देश्य पा गया। जरा-सा भी भटकने पर ऐश्वर्य में प्रमाद, श्रम से जी चुराना, इंद्रिय असंयम, विचारों की कुमार्गगामिता अथवा बिखराव एवं समय की हानि इनमें से एक धुन लग जाने पर वह फिर खोखला हो जाता है और अर्जित संपदा खो देता है।” संपत्ति और संपदा संबंधी अपनी जिज्ञासा का तर्क-तथ्य पूर्ण समाधान सुनकर शिष्य संतुष्ट हो गया।


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