प्राचीन भारत देश मानवता के आदर्श गुणों से मूलतः परिपूर्ण रहा है। दिव्य गुणों पर आधारित होने के कारण यह महान आदर्शों का स्रोत रहा है अपने साँस्कृतिक आदर्शों के बल प इसने चिरकाल तक विश्वमानव के अंतस्तल में शासन किया है। इसने तलवारों की टनकारों से, युद्धोन्माद के आतंक से अपनी विस्तार नहीं किया है। वरन् प्रबल एवं प्रखर विचारों द्वा इसने चक्रवर्ती का गौरव पाया एवं विश्व का हृदय जीता। समस्त संसार को शासन-सूत्र संचालन का बोध कराने के कारण ही इसे चक्रवर्ती कहा गया। इसी कारण से जगद्गुरु का श्रद्धासिक्त सम्मान भी मिला।
राष्ट्र के इन साँस्कृतिक आदर्शों का उद्बोध युगद्रष्टा विश्व विश्रुत स्वामी विवेकानंद के आग्नेय वाणी द्वारा होता है, हमारा राष्ट्रीय आदर्श लुटेरा नहीं बनाता, यह बलवानों का दुर्बलों की छाती पर मूँग दलने की शिक्षा नहीं देता ओर न हमें बलवान बनाकर दुर्बलों का खून चूसने की शक्ति प्रदान करता है। यह ऐसे अभियानों के लिए प्रोत्साहित नहीं करता, जिसके पैरों के नीचे धरती काँपती है और जो संसार में रक्तपात, लूटमार और इतर जातियों का सर्वनाश करने में ही अपना गौरव मानती हैं।
संसार इस राष्ट्र का अत्यंत ऋणी है। सारा संसार हमारे सहिष्णु राष्ट्र का जितना ऋणी है, उतना और किसी देश का नहीं। स्वामी जी कहते हैं यह भी ठीक है कि किसी अन्य राष्ट्र की गतिशील जीवन तरंगों ने भी महान शक्तिशाली सत्य के बीजों को चारों ओर बिखेरा है परंतु यह हुआ है रण भेरी के निर्दोष तथा रणसज्जा के सज्जित सेना-समूह की सहायता से। बिना रक्तप्रवाह में सिक्त हुए, बिना लाखों स्त्री पुरुषों के खून की नदी में स्नान किए, कोई भी नया भाव आगे नहीं बढ़ा। प्रत्येक ओजस्वी भाव प्रचार के साथ ही असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों और असहायों का करुण क्रंदन और विधवाओं का अजस्र अश्रुपात होते ही देखा गया है। प्रधानतः इसी उपाय द्वारा अन्यान्य देशों ने संसार को शिक्षा दी है। परंतु इस उपाय का अवलंबन लिए बिना ही अपना देश हजारों वर्षों से शांतिपूर्वक रहा है। संसार के सभी देशों में केवल एक अपने ही चक्रवर्ती देश ने लड़ाई झगड़ा करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है इसने हृदय परिवर्तन तलवार की नोंक पर नहीं वरन् प्रेम और त्याग के बल पर किया है।
स्वामी जी कहते हैं कि कितने ही वैभव शाली देश उठे और गिरे। विजयोल्लास और भावावेशपूर्ण प्रभुत्व का कुल काल का कलुषित राष्ट्रीय जीवन बिताकर सागर की तरंग की तरह उठकर फिर मिट गए। परंतु अपना राष्ट्र और उसकी राष्ट्रीयता जीवंत और जाग्रत है। जब कभी फारसी, यूनान, रोम, अरब या इंग्लैंड वाले अपनी सेनाओं को लेकर दिग्विजय के लिए निकले और जिन्होंने विभिन्न राष्ट्रों व एक सूत्र में गूँथा है, तब भी अपने यहाँ के साँस्कृतिक आदर्श एवं दार्शनिक चिंतन नवनिर्मित भागों द्वारा संसार की जातिय की धमनियों में होकर प्रवाहित होते रहे हैं। राजनीतिक श्रेष्ठता या सामरिक शक्ति प्रदान करना किसी काल में इन राष्ट्र का जीवनोद्देश्य न कभी रहा है और न कभी रहेगा इसका दूसरा ही जीवनोद्देश्य रहा है। वह यह कि अपना समग्र शक्ति को मानो किसी डाइनेमो में संगृहीत, संरक्षित और नियोजित किया गया हो, और यह संचित शक्ति सारा पृथ्वी के जन जीवन में जीवन जलप्लावन करती रही है।
समस्त मानवीय प्रगति में एवं राष्ट्रोत्थान में शांतिप्रिय इस देश को कुछ अपना योगदान भी है। स्वामी जी इस ज्योतिर्मय आलोक के रूप में साँस्कृतिक दान मानते हैं। उनके अनुसार हमारे इस देश में संस्कृति का जो स्रोत बहते हैं, उसकी बाढ़ समस्त जगत् को आप्लावित कर राजनीतिक उच्चाभिलाषाओं एवं नवीन सामाजिक संगठनों के प्रयासों में प्रायः समाप्तप्रायः, अर्द्धमृत तथा पतनोन्मुखी पाश्चात्य और दूसरे समाजों में नव जीवन का संचार करती रहती है विभिन्न प्रकार के मत-मताँतर एवं साँस्कृतिक विचारों के विभिन्न सुरों से अपने दश्ो का गगन गूंजता रहा है।
स्वामी जी के अनुसार इस पृथ्वी का क्षुद्र क्षितिज जो केवल कई एक हाथ ही विस्तृत है, हमारी दृष्टि को सीमित नहीं कर सकता। हमारा साँस्कृतिक आदर्श तो दूर तक बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह इंद्रियों की सीमा से भी आगे तक फैला है। यह देश और काल के भी परे है। वह दूर और दूर विस्तृत होता हुआ उस सीमातीत स्थिति में पहुँचता है, जहाँ इस भौतिक जगत् का कुछ भी शेष नहीं रहता और सारा विश्व ब्रह्मांड ही आत्मा के दिगंतव्यापी महामहिम अनंत सागर की बूँद के समान दिखाई देता है। यह राष्ट्रीय आदर्श प्रकाँड मेधा तथा बुद्धि वाले मनीषियों से उद्भासित है, जो इस कथाकथित अनंत जगत् के साम्राज्य को भी गढ़हिया मात्र समझते हैं और वे क्रमशः अनंत जगत् को भी छोड़कर और दूर अति दूर चले जाते हैं। भौतिक प्रकृति को इस प्रकार अतिक्रमण करने की चेष्टा, किसी प्रकार प्रकृति से मुँह का घूँघट हटाकर एक बार उसे देश काल से परे तत्व के दर्शन का यत्न करना, यहाँ का स्वाभाविक गुण है। यही हमारा साँस्कृतिक आदर्श है।
स्वामी जी की मान्यता है कि जिस राष्ट्र का मूल मंत्र राजनीति प्रधान होता है उसका अस्तित्व संदेहास्पद होता है, परंतु यहाँ का प्रधान जीवनोद्देश्य साँस्कृतिक आदर्श है। केवल इसी से उन्नति, प्रगति एवं कास की आशा की जा सकती है। जिसका मूल मंत्र भाव हृदय में जागता है, वही उसका आधार है, अन्यथा इस राष्ट्र का मेरुदंड ही टूट जाएगा। जिस भित्ति के ऊपर यह विशाल भवन खड़ा है, वही नष्ट हो जाएगा। यहाँ के महापुरुष अपने को प्राचीन राजाओं अथवा पुरातन दुर्ग निवासी, पथिकों का सर्वस्व लूट लेने वाले डाकू वैरनों के वंशधर न बताकर अरण्यवासी अर्द्धनग्न तपस्वियों की संतान कहने में ही अधिक गौरव समझते हैं। इस राष्ट्र में बड़े-बड़े राजा अपने को किसी प्राचीन ऋषि की संतान प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। यही साँस्कृतिक आदर्श की आधारशिला है।
यहाँ राजनीति सभी तरह की बौद्धिक कुटिलता सदा ही गौण समझी जाती हैं। चिर प्राचीनकाल से ही हमारे यशस्वी पूर्वजों ने अपने आदर्शों के पथ को ग्रहण कर लिया और संसार की समस्त भौतिकता को चुनौती दे दी। उन्होंने बताया कि हमारी समस्याओं को हल करने का रास्ता है वैराग्य, न्याय, निर्भीकता तथा प्रेम। यही तत्व अपनी संस्कृति के हृदय का मर्मस्थल है। यही अपनी संस्कृति की रीढ़ या नींव है, जिसके ऊपर अपन साँस्कृतिक आदर्श खड़ा है। स्वामी विवेकानंद का उद्घोष है कि संस्कृति हमारे जीवन का मुख्य केंद्र है और वही इस जीवनरूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई समाज अपनी स्वाभाविक जीवन शक्ति को दूर फेंकने का प्रयास करे, तो सारी सफलताओं के बावजूद वह समाज मृत हो जाएगा। यही कारण है कि अपने देश में राजनीति, समाज नीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को अपनी जीवन शक्ति का केंद्र कभी नहीं बनाया।
स्वामी जी के अनुसार जब कभी भी संसार को इसकी आवश्यकता महसूस हुई, उस समय इस निरंतर बहने वाले आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत ने संसार को प्लावित कर दिया है। राजनीति सम्बन्धी विद्या का विस्तार रणभेरियों और सुसज्जित सेनाओं के बल पर किया जा सकता है। लौकिक एवं समाज सम्बन्धी विद्या का विस्तार आग और तलवारों के बल पर हो सकता है, परंतु आध्यात्मिक विद्या का विस्तार तो शांति द्वारा संभव है। यही एक दान है, जो भारतीय समाज ने समस्त संसार को बारंबार दिया है। भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की बाढ़ ने उमड़कर सारी दुनिया को हमेशा ही प्लावित किया है।
अपने साँस्कृतिक आदर्श का दान है, साँस्कृतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक ज्ञान। इसके प्रसार के लिए यह आवश्यक नहीं कि सेना उसके आगे मार्ग निष्कंटक करती हुई चले। साँस्कृतिक और आध्यात्मिक तत्व को शोणित प्रवाह पर से ढोने की आवश्यकता नहीं। ये साँस्कृतिक तत्व खून से भरे जरूरी आदमियों के ऊपर से सदर्प विचरण नहीं करते। ये शाँति और प्रेम के पंखों से उड़कर शाँतिपूर्वक आया करते हैं और सदा हुआ भी यही। जिस प्रकार चक्षु और कर्ण गोचर न होता हुआ भी मृदु ओस बिंदु गुलाब की कलियों को विकसित कर देता है, वैसा ही इस ज्ञान के विस्तार से होता है।
स्वामी जी के उक्ति स्वाभाविक है कि हमने कभी दूसरी जाति पर विजय प्राप्त नहीं की। यही हमारा महान गौरव है। अपने देश ने कभी खून की नदियाँ नहीं बहाई। उसने सदा आशीर्वाद और शाँति के शब्द कहे, सबको उसने प्रेम और सहानुभूति की कथा सुनाई। यहाँ राष्ट्रीय विस्तार विचारों के बल पर हुआ है। इसका सबसे बड़ा लक्षण है उसका शाँत स्वभाव और नीरवता। जो प्रभूत शक्ति उसके पीछे है, उसका प्रकाश बलपूर्वक जादू सा असर करता है शाँत, अज्ञेय किंतु महाशक्ति के अदम्ब बल से, तभी उसने सारे जगत् की दिशा राशि में क्राँति मचा दी हैं एक नया ही साम्राज्य एवं युग खड़ा कर दिया है। यही राष्ट्र का साँस्कृतिक आदर्श है, जिसने इसको विश्व पर विजयी एवं चक्रवर्ती बनाया और यही नवयुग का आधार भी है।